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हमेशा मजबूत नहीं रहेगा डॉलर

जहां यूरोप, अमेरिका और जापान में मंदी की आहट सुनाई दे रही है, वहीं भारत में आर्थिक गतिविधियां जोर पकड़ रही हैं.

पिछले कुछ समय से भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर होते हुए फिलहाल 80 रुपये प्रति डॉलर के आसपास है. रुपये की इस कमजोरी से नीति निर्माताओं में स्वाभाविक चिंता व्याप्त है और विपक्ष भी सरकार को घेरने की कोशिश में है. यह पहली बार नहीं है कि भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है.

साल 1991 से अभी तक रुपया डॉलर के मुकाबले औसतन 3.03 प्रतिशत सालाना की दर से कमजोर होता रहा है. यह अवमूल्यन सभी वर्षों में एक जैसा नहीं रहा. पिछले पांच महीनों में रुपये का अवमूल्यन 7.28 प्रतिशत तक हो चुका है. पहले रुपया डॉलर के अलावा यूरो, पाउंड, येन, युआन समेत कई अहम करेंसियों के मुकाबले भी कमजोर होता रहा है. साल 1991 से अभी तक रुपया पाउंड के मुकाबले 137 प्रतिशत, यूरो के मुकाबले 489 प्रतिशत और येन के मुकाबले 241 प्रतिशत कमजोर हुआ है, जबकि डॉलर के मुकाबले यह अवमूल्यन 252 प्रतिशत रहा है.

लेकिन पिछले पांच महीने में रुपये के अवमूल्यन की प्रवृत्ति में बदलाव आया है. जहां रुपया डॉलर के मुकाबले 7.28 प्रतिशत कमजोर हुआ है, वहीं पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले यह 6.31 प्रतिशत, येन के मुकाबले 10.77 प्रतिशत और यूरो के मुकाबले 4.72 प्रतिशत मजबूत हुआ है. कहा जा सकता है कि डॉलर के मुकाबले तो रुपया कमजोर हुआ है, पर अन्य करेंसियों के मुकाबले यह मजबूत हुआ है तथा वे मुद्राएं भी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुई हैं.

चूंकि पूरी दुनिया में डॉलर लगभग सभी करेंसियों के मुकाबले मजबूत हुआ है, इसलिए हमें रुपये की कमजोरी की बजाय डॉलर की विभिन्न मुद्राओं के मुकाबले मजबूती के कारणों का विश्लेषण करना अधिक लाभकारी होगा. हमें यह भी समझना होगा कि रुपये और अन्य करेंसियों का भविष्य क्या है? यह प्रश्न भी उठता है कि क्या भविष्य में भी डॉलर की विजय यात्रा जारी रहेगी.

जहां हम श्रीलंका, पाकिस्तान, यूरोपीय देशों आदि की ऋणग्रस्तता की बात करते हैं, तो हमें समझना होगा कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी कर्जदार है. आज अमेरिका पर 30.4 खरब डॉलर, चीन पर 13 खरब डॉलर और इंग्लैंड पर 9.02 खरब डॉलर का विदेशी ऋण है.

भारत पर विदेशी ऋण कुल 614.9 अरब डॉलर ही है, जो हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 20 प्रतिशत ही है. अमेरिका का विदेशी ऋण उसकी जीडीपी का 102 प्रतिशत है, जबकि इंग्लैंड का 345 प्रतिशत. उल्लेखनीय है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पिछले कुछ महीनों से रुपये की स्थिरता को बनाये रखने के लिए कम हुआ है, लेकिन अभी भी यह 572.7 अरब डॉलर है.

रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते आज सभी मुल्क महंगाई के चंगुल में फंस चुके हैं. अमेरिका में मंहगाई दर 9.1 प्रतिशत पहुंच चुकी है, जबकि इंग्लैंड में यह 9.4 प्रतिशत और भारत में यह मात्र 7.0 प्रतिशत है. मंहगाई में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपूर्ति में बाधाओं के कारण है, जिससे ईंधन, खाद्य पदार्थों, आवश्यक कच्चे माल, मध्यवर्ती वस्तुओं तथा धातुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं.

अंतरराष्ट्रीय बाजार की उथल-पुथल ने पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों को भी प्रभावित किया है. इतिहास गवाह है कि जब-जब दुनिया में उथल-पुथल होती है, डॉलर मजबूत होता जाता है. इसका कारण यह है कि दुनियाभर के निवेशक यह मानते हैं कि अमेरिका उनके लिए सर्वाधिक सुरक्षित गंतव्य है. विशेषज्ञों द्वारा कहा जा रहा है कि चूंकि दुनियाभर में महंगाई बढ़ी है, ग्रोथ के प्रति चिंताएं बढ़ी हैं और ब्याज दरें भी बढ़ रही हैं, इसलिए डॉलर मजबूत हो रहा है.

विभिन्न करेंसियों के ‘बास्केट’ की तुलना में डॉलर पिछले एक साल में 10 प्रतिशत बढ़ा है और पिछले 20 वर्षों के सर्वाधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है. डॉलर के मुकाबले येन 24 वर्ष के न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है. जहां दुनियाभर के केंद्रीय बैंक अपने-अपने देशों में महंगाई को थामने के लिए ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व भी ब्याज दरें बढ़ा रहा है. अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने से भी निवेशक उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं.

लेकिन अमेरिका के बाहर व्यवसाय करने वाली अमेरिकी कंपनियां मजबूत डॉलर के कारण नुकसान में रहेंगी तथा बड़ी 500 कंपनियों को आमदनी में पांच प्रतिशत का नुकसान हो सकता है, पर अमेरिका में कार्यरत कंपनियों को मजबूत डॉलर का लाभ होगा. वे देश, जिन्होंने भारी मात्रा में डॉलर में ऋण ले रखा है, उन्हें ब्याज और ऋणों के भुगतान में मुश्किल हो रही है, लेकिन कुछ देश हैं, जो तेल उत्पादक और निर्यातक देश हैं या कृषि पदार्थों के आपूर्तिकर्ता हैं, उनकी करेंसियां कमजोर नहीं हो रही हैं.

उसी प्रकार रूस की करेंसी रूबल लगातार मजबूत ही हो रही है. कारण है कि रूसी तेल व गैस का निर्यात बढ़ता जा रहा है और पूंजीगत प्रवाहों पर रूस सरकार द्वारा नियंत्रण के चलते पूंजी का बर्हिगमन नहीं हो रहा है. यह सही है कि वैश्विक उथल-पुथल और अमेरिका में बढ़ती ब्याज दरों के चलते डॉलर मजबूत हो रहा है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चल सकता. जब दुनिया की दूसरी मुद्राओं में उठाव आयेगा, भारत से कूच कर गये निवेशक पुनः बाजारों की खोज में भारत और दूसरे मुल्कों में जायेंगे, तो डॉलर का नीचे जाना अवश्यंभावी हो जायेगा.

जहां यूरोप, अमेरिका और जापान में मंदी की आहट सुनायई दे रही है, वहीं भारत में आर्थिक गतिविधियां जोर पकड़ रही हैं. जीएसटी और अन्य करों से प्राप्तियां उछाल ले रही हैं. औद्योगिक उत्पादन में भी लगातार वृद्धि हो रही है, जो अर्थव्यवस्था के लिए उत्साहजनक संकेत है. चाहे बिजली की मांग हो अथवा उपभोक्ता वस्तुओं या पूंजीगत वस्तुओं की, देश में सभी प्रकार की मांग में 20 से 55 प्रतिशत की भारी वृद्धि भारत में आर्थिक गतिविधियों में उठाव को इंगित कर रहे हैं.

सभी वैश्विक संस्थान भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बता रहे हैं. इससे भी दुनियाभर के निवेशक धीरे-धीरे भारत की ओर रुख करने के लिए बाध्य हो जायेंगे. हालांकि आयात और निर्यात के बीच अभी बड़ा अंतर दिख रहा है, लेकिन देश में बढ़ते उत्पादन से यह अंतर अंतत: घटने वाला है. लगातार बढ़ते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और मजबूत आर्थिक आधार रुपये को मजबूती की ओर ले जाने की क्षमता रखते हैं. माना जा सकता है कि डॉलर की मजबूती लंबे समय तक नहीं चलने वाली है.

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