Climate change : इस बार तो फरवरी के पहले सप्ताह से ही गर्मी का अहसास होना शुरू हो गया था. सामान्य तौर पर तापमान 30 डिग्री के स्तर पर मार्च के महीने में पहुंचता है, पर इस बार दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में, फरवरी में ही एक बार तापमान 29.7 डिग्री छू चुका था, जो महीने के आखिर में 40 डिग्री के पार पहुंच गया. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र, तेलंगाना, तटीय आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल और दमन, दीव के कुछ क्षेत्रों में पारा 35 से लेकर 38 डिग्री तक दर्ज किया गया. फरवरी महीने में कन्नूर हवाई अड्डे पर पारा 40.4 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो 1901 के बाद सबसे अधिक था. इसी दौरान जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, गिलगिट-बाल्टिस्तान, मुजफ्फराबाद के हिस्सों में भी अधिकतम तापमान सामान्य से पांच डिग्री या उससे अधिक दर्ज किया गया. इस बढ़ोतरी में अल नीनो या ला नीना का भी असर नहीं था, जैसा कि बीते कुछ वर्षों में माना जाता रहा है.
मौसम विज्ञान विभाग की मानें, तो मार्च से मई तक दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों को छोड़ पूरे देश में अधिकतम तापमान सामान्य से अधिक और उष्ण लहर का प्रकोप भी ज्यादा रहेगा. जनवरी 2025 में दुनिया का तापमान औद्योगिक काल 1850-1900 से पूर्व की तुलना में 1.75 डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहा. यह अब तक का सबसे गर्म जनवरी रहा. वहीं फरवरी में तापमान में 1.34 डिग्री की बढ़ोतरी हुई, जो 1901 के बाद सर्वाधिक है. इसका कारण धरती के ऊर्जा संतुलन का बिगड़ना है. ऊर्जा संतुलन बिगड़ने का अर्थ है कि धरती सौर ऊर्जा सोख तो रही है, परंतु उसे फिर से छोड़ने की उसकी क्षमता बिगड़ गयी है. इसी कारण धरती कहीं अधिक तेजी से गर्म हो रही है. यह वैश्विक तापन के खतरे के और बढ़ने के संकेत हैं.
नासा के पूर्व वैज्ञानिक जेम्स इ हैनमैन का कहना है कि धरती के लिए ऊर्जा का एकमात्र स्रोत सूर्य है जो एक स्थिर दर पर ऊर्जा प्रदान करता है. धरती की ऊर्जा स्थिरता इस ऊर्जा के अंतरिक्ष में वापस लौटने पर निर्भर करती है. मार्च 2000 और फरवरी 2010 के दौरान धरती 29.2 प्रतिशत सौर ऊर्जा अंतरिक्ष को वापस लौटा रही थी. जबकि 2024 में धरती की यह क्षमता घटकर 28.6 फीसदी रह गयी. ऊर्जा की बढ़ोतरी में सूर्य के प्रकाश को प्रतिबंधित करने वाली बर्फ के पिघलने की अहम भूमिका है, जिसके चलते धरती सूर्य के प्रकाश से मिलने वाली ऊर्जा को अंतरिक्ष में वापस नहीं भेज पा रही है.
मौसम के इस बदलाव के चलते फरवरी महीने के आखिर में देश के तटीय इलाकों- मुंबई, कोंकण, तटीय कर्नाटक के कुछेक हिस्सों- में लू चलने की संभावना व्यक्त की गयी थी. यह अच्छा संकेत नहीं है. अक्तूबर-दिसंबर में मौसम 1.01 डिग्री प्रति शताब्दी की दर से गर्म हो रहा है. इसके बाद जनवरी-फरवरी में पारा 0.73 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है. बहरहाल, हालात सबूत हैं कि मौसम का यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे का संकेत है. दुनिया के शोध-अध्ययन इस बात के प्रमाण हैं कि जलवायु परिवर्तन अधिक अनिश्चित हो सकता है, क्योंकि जलवायु प्रणाली स्वाभाविक रूप से छोटे स्थानिक पैमानों पर अधिक प्रभाव डालती है. स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि दक्षिण एशिया, भूमध्यसागरीय, मध्य यूरोप और उप सहारा के कुछ क्षेत्रों सहित कई क्षेत्र 2060 तक तीन डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करने की राह पर हैं. वैज्ञानिक नोआह डिफेनबाग ने चेतावनी दी है कि यह पहले के अध्ययन से अलग और जल्दी है, जिससे कमजोर पारिस्थितिकी तंत्र और समुदायों के लिए जोखिम बढ़ता जा रहा है. इसलिए न केवल वैश्विक तापमान वृद्धि पर, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी होने वाले बदलावों पर ध्यान देने की जरूरत है.
वैज्ञानिकों ने चेताया है कि ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में तेजी से बर्फ की चादर पिघलने से महासागरीय प्रक्रियाएं प्रभावित होंगी, जिसका असर वायुमंडल पर पड़ेगा. वैज्ञानिक मौरी पैल्टो ने नासा के उपग्रह चित्रों के विश्लेषण के बाद खुलासा किया है कि माउंट एवरेस्ट पर जमी बर्फ में 150 मीटर की कमी आयी है. और तो और, एवरेस्ट पर 6100 मीटर से ऊपर ग्लेशियर पिघल रहा है. हाल की सर्दियों में गर्म और शुष्क मौसम बना हुआ है, जिसकी वजह से बर्फ का आवरण कम हो रहा है. यह आपदाओं का संकेत है.
एक नये शोध में खुलासा हुआ है कि ऐसी हालात में 24 प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है, वहीं सर्दी में देरी और समय पूर्व बढ़ रहे तापमान से प्रवासी पक्षियों के प्रवास पर भी असर पड़ रहा है. हर वर्ष की तरह इस बार भी सर्दियों में हजारों मील का सफर तय कर भारत आये प्रवासी पक्षियों ने फरवरी के मध्य में ही गर्मी की आहट महसूस कर समय से पहले अपनी वापसी शुरू कर दी. एम्स के मनोचिकित्सा विभाग की मानें, तो मौसम में हो रहे बदलाव और समय पूर्व गर्मी से हार्मोन में आ रहे बदलाव से मूड स्विंग, यानी स्वभाव में गुस्सा बढ़ रहा है. उपरोक्त कारणों को देखते हुए सरकार का नीतिगत बदलाव करना जरूरी हो गया है. नहीं तो पर्यावरण की गुणवत्ता, जैव विविधता, स्वास्थ्य, दैनिक जीवन से संबंधी आवश्यकताएं और कुपोषण जैसी समस्याएं विकराल रूप धारण कर सकती हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)