Cheap Loans : भारतीय रिजर्व बैंक ने लगभग पांच साल तक रेपो रेट को लगातार बढ़ाने के बाद इसमें 0.25 प्रतिशत की कटौती करते हुए उसे 6.5 प्रतिशत से घटा कर 6.25 किया. इससे उधार सस्ता हो जाएगा, जिससे हाउसिंग और अन्य प्रकार के उधारों पर ईएमआई कम हो जाएगी, साथ ही, कारोबार के लिए भी कर्ज सस्ता हो सकेगा, जिससे ग्रोथ को गति मिल सकेगी.
रिजर्व बैंक सामान्यत: मुद्रास्फीति के बारे में अपनी धारणा के आधार पर ब्याज की नीतिगत दरों की घोषणा करता है. इसके साथ ही अर्थव्यवस्था में ऋण की मांग और आपूर्ति पर भी इसे नजर रखनी होती है. इस मामले में रिजर्व बैंक का मुख्य उद्देश्य मुद्रास्फीति को सीमा के बाहर जाने से रोकना है. वर्ष 2014 से पहले रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लिए थोक मूल्य सूचकांक का उपयोग कर रहा था. वर्ष 2014 में जब रघुराम राजन रिजर्व बैंक के गवर्नर थे, तब तत्कालीन डिप्टी गवर्नर उर्जित पटेल की अध्यक्षता में एक समिति ने मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लिए थोक मूल्य सूचकांक के बजाय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के उपयोग की सिफारिश की थी.
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य उत्पादों का भार 46 प्रतिशत होता है, जबकि थोक मूल्य सूचकांक में खाद्य उत्पादों (निर्मित खाद्य उत्पादों सहित) का भार केवल 30 फीसदी ही होता है. वर्ष 2016 में सरकार ने फैसला लिया कि ब्याज दर का निर्धारण मौद्रिक नीति समिति करेगी. जून, 2016 में मौद्रिक नीति समिति अस्तित्व में आयी. इसमें रिजर्व बैंक के गवर्नर के अलावा छह सदस्य होते हैं. बराबर के वोट होने पर गवर्नर का वोट निर्णायक होता है.
देश में महंगाई की दर को ध्यान में रखते हुए ब्याज दर निर्धारित करना इस समिति का काम है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार को विरासत में ही ऊंची मुद्रास्फीति मिली थी. विरासत में मिली 8.00 प्रतिशत रेपो रेट को एनडीए सरकार के शुरुआती वर्षों, महंगाई के थमने के साथ अगस्त 2017 तक 6.00 फीसदी तक लाया गया. थोड़ा बढ़ते-घटते यह जून, 2019 में 6.00 से 6.5 प्रतिशत तक उच्च स्तर पर बनी रही. बाद के वर्षों में, सीपीआई में भी काफी गिरावट आयी और यह तीन फीसदी से भी कम पर बनी रही. मई, 2020 और मई, 2022 के बीच लंबी अवधि में रेपो दर मात्र 4.00 फीसदी के निम्न स्तर पर बनी रही. पर उसके बाद मुद्रास्फीति और खास तौर पर सीपीआई मुद्रास्फीति की ऊंची दर के चलते रेपो दर लगातार बढ़ते हुए फरवरी, 2023 तक 6.5 प्रतिशत तक पहुंच गयी और पिछली मौद्रिक नीति समिति की बैठक तक इसी स्तर पर बनी रही.
हालांकि इस दौरान थोक मुद्रास्फीति कई बार नीचे भी आयी, पर सीपीआई मुद्रास्फीति लक्षित मौद्रिक नीति के चलते रेपो रेट को मौद्रिक नीति समिति ने नहीं घटाया. कई अर्थशास्त्रियों ने अब सीपीआई आधारित मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. हालांकि, मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखना महत्वपूर्ण है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आम जनता मुद्रास्फीति से परेशान न हो, क्योंकि इसका सबसे अधिक असर गरीबों पर पड़ता है; लेकिन मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण के आधार के रूप में सीपीआई या यहां तक कि डब्ल्यूपीआई की उपयुक्तता पर सवाल उठाए जा रहे हैं. ध्यान रखना चाहिए कि मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण का विचार पश्चिम से आयातित है. हमारा मानना है कि भारत जैसे विकासशील देश में मौद्रिक नीति के उद्देश्यों में विकास, रोजगार और गरीबों और वंचितों का उत्थान शामिल है. इन उद्देश्यों को संबोधित किए बिना कोई भी मौद्रिक नीति पूरी नहीं होती. विकास के लक्ष्य का ध्यान रखे बिना मौद्रिक नीति अपूर्ण है.
ऐसे कई मौके आए हैं, जब मौद्रिक नीति समिति द्वारा सीपीआई आधारित मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण का पूर्णरूपेन पालन करने के बावजूद मुद्रास्फीति न केवल नियंत्रित नहीं हुई, बल्कि कई मौकों पर छह प्रतिशत के लाल निशान को भी पार कर गयी. यह इस तथ्य को साबित करता है कि डब्ल्यूपीआई की तुलना में सीपीआई सही लक्ष्य नहीं है. हम समझते हैं कि सीपीआई खाद्य कीमतों से काफी प्रभावित होता है. खाद्य पदार्थों की कीमतें मौसमी कारकों के कारण अधिक बढ़ती हैं, न कि आम तौर पर अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांतों के कारण. ऐसे कई मौके आये हैं, जब प्याज और टमाटर की कीमतें मुद्रास्फीति के प्रमुख चालक रही हैं.
ऐसे मामलों से प्रत्यक्ष उपायों से निपटा जाता है, न कि मौद्रिक नीति जैसे अप्रत्यक्ष उपायों से. इसलिए, अगर हम मौसमी कारकों के आधार पर मुद्रास्फीति को लक्षित करने और उसके अनुसार ब्याज दरों की नीति तय करने की कोशिश करते हैं, तो गलती ही करेंगे. इस बीच विकासशील देश न केवल मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण की अनिवार्यता के बारे में, बल्कि विकासशील देशों के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा सीपीआई लक्षित मौद्रिक नीति हेतु दबाव डालने पर भी, जो आपत्तिजनक है, बहस कर रहे हैं. जाहिर है, अकेले सीपीआई मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण के लिए उपयुक्त नहीं लगता. थोक मूल्य सूचकांक भी सर्वथा उचित लक्ष्य नहीं है. इसलिए, कुछ अर्थशास्त्री सुझाव देते हैं कि इन दो सूचकांकों का संयोजन या मिश्रण होना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)