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जनगणना में देरी और इसके नतीजे

चूंकि ठीक से जनगणना करने में 10 से 12 महीने लगते हैं, तो इस बार यह प्रक्रिया अप्रैल या मई 2024 में होने वाले आम चुनाव से टकरा सकती है.

एक सदी से अधिक समय से भारत में हर दस साल पर जनगणना करने की परंपरा रही है. यह दुनिया के उन कुछ देशों में है, जिन्होंने इस पवित्र परंपरा को बरकरार रखा है. जनगणना में जुटाये गये आंकड़े कुल मिला कर सही होते हैं और इस पूरी प्रक्रिया में बहुत ईमानदारी बरती जाती है. भारत के जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल कर हजारों लोगों ने पीएचडी की है, ऐतिहासिक नीतियों के बारे में नयी समझदारियां बनी हैं, विभिन्न क्षेत्रों में आंकड़ों का उपयोग हुआ है.

इन आंकड़ों से देश का एक भरोसेमंद आर्थिक इतिहास भी तैयार हुआ है. एक दशक में होने वाली जनगणना से आबादी, परिवारों, परिवार इकाई आदि की वृद्धि का ही पता नहीं चलता है, बल्कि आयु वर्ग, साक्षरता, प्रजनन और आप्रवासन के बारे में भी विस्तृत आंकड़े प्राप्त होते हैं. जनगणना रोजगार और आमदनी जैसी आर्थिक स्थिति के संकेतकों पर भी प्रकाश डाल सकता है. हालांकि आमदनी के बारे में जानकारी जुटाना राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की जिम्मेदारी है.

जनगणना कराना भारत के महापंजीयक का दायित्व है, जो गृह मंत्रालय के अधीन हैं, जबकि नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत आता है. वर्ष 2021 की जनगणना दो चरणों में होनी थी- पहले चरण में घरों और आवासों की गिनती तथा दूसरे चरण में आबादी की गिनती. सरकार ने मार्च, 2019 में राजपत्र के जरिये इस जनगणना को कराने का अपना इरादा जाहिर कर दिया था.

जनगणना शुरू करने से पहले अधिकार क्षेत्र की सीमा, जैसे- शहर, कस्बा, गांव, जिला आदि, को यथास्थिति में रोक दिया जाता है. पहला चरण 2020 में अप्रैल से सितंबर के बीच और दूसरा चरण उसके बाद संपन्न होना था. वर्ष 2021 के मध्य तक प्रारंभिक आंकड़े प्रकाशित होने के लिए तैयार हो जाते. महामारी ने इस समय-सारणी को बेमतलब कर दिया. सीमाओं के स्थगन की प्रक्रिया को पहले 2020 के अंत तक और फिर 2021 के अंत तक बढ़ाया गया.

तब से तीन बार ऐसा हो चुका है और महापंजीयक द्वारा जारी हालिया सूचना में इसे जून, 2023 तक बढ़ा दिया गया है. चूंकि ठीक से जनगणना करने में 10 से 12 महीने लगते हैं, तो यह प्रक्रिया अप्रैल या मई 2024 में होने वाले चुनाव से टकरा सकती है. इस प्रकार 2021 की जनगणना में महामारी और टीकाकरण के बहाने चार साल की देरी हो चुकी है. अपूर्ण तरीके को अपनाये बिना जुलाई, 2023 व मार्च, 2024 के बीच जनगणना करना मुश्किल है. लेकिन ऐसा होने की संभावना नहीं है.

इसके बड़े परिणाम हैं. पहला, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के प्रावधान के अनुसार इसके तहत 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी परिवारों को खाद्य सुरक्षा मिलनी चाहिए. एक जनवरी से सरकार ने इस कानून के तहत 81 करोड़ लोगों को दिये जाने वाले राशन को मुफ्त कर दिया है, लेकिन यह संख्या 2011 की जनगणना पर आधारित है. वर्ष 2022 तक के आकलनों का संकेत है कि इस संख्या में कम-से-कम 10 करोड़ लोग और जोड़े जाने चाहिए.

ऐसे में बड़ी संख्या में परिवारों, विशेषकर बच्चों, की खाद्य सुरक्षा और पोषण पर गंभीर असर पड़ सकता है. दूसरा नतीजा यह है कि विभिन्न सरकारी योजनाओं, जैसे- बुजुर्गों के लिए सामाजिक सहायता कार्यक्रम, के लक्ष्य में बड़ी कमी आ सकती है, क्योंकि जनगणना के सही आकलन उपलब्ध नहीं हैं. इन कार्यक्रमों के लिए आवंटन निर्धारण के लिए लाभार्थियों का सही आकलन जरूरी है.

तीसरा, भारत को प्रवासियों के सटीक सूचना की बड़ी आवश्यकता है. जनगणना में प्रवासी उस व्यक्ति को कहा जाता है, जो अपने जन्म स्थान की जगह कहीं अन्यत्र काम करता है. कोविड लॉकडाउन के दौरान इंगित हुआ कि लाखों (या शायद करोड़ों) लोग शहरों में काम करते हैं, जो लंबा पैदल चल कर अपने गांव लौटे थे. सही और ताजा जनगणना से ही इस स्थिति पर प्रकाश पड़ सकता है.

चौथा परिणाम सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की समीक्षा से जुड़ा है. प्रधानमंत्री आवास योजना की क्या स्थिति है? स्वच्छ भारत अभियान के तहत बने कितने शौचालय काम कर रहे हैं. नल से जल पहुंचाने की क्या स्थिति है? ऐसे हजारों सवालों के जवाब दिये जा सकते हैं, जब हम जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण करेंगे. जनगणना सरकारी ऑडिट या सामाजिक ऑडिट का विकल्प नहीं है, लेकिन इसके आंकड़े सटीक होते हैं और उनका सत्यापन किया जा सकता है, इसलिए इससे स्थिति को समझा जा सकता है तथा यह सरकार से जवाबदेही सुनिश्चित करने का एक औजार हो सकता है.

इसीलिए देश के सांख्यिकी प्रणाली में ठोस बदलाव से जुड़ी 2001 की डॉ रंगराजन कमीशन की रिपोर्ट बहुत अहम है. उसमें सांख्यिकी के लिए एक स्थायी आयोग स्थापित करने की सिफारिश है, जो शक्तिसंपन्न हो तथा संसद के प्रति उत्तरदायी हो, सरकार के प्रति नहीं. यह एक अधूरा काम है. ऐसा राष्ट्रीय आयोग भारत के महापंजीयक के साथ मिल कर काम करेगा, जो जनगणना के लिए उत्तरदायी है और जो गृह मंत्रालय के अंतर्गत आता है.

भरोसेमंद और सटीक आंकड़ा एक सार्वजनिक हित की तरह होता है. इसलिए इसको जुटाने में बहुत ईमानदारी के साथ नियमितता और संभाव्यता की भी आवश्यकता होती है. जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पादन, उपभोग, प्रवासियों का आना-जाना, आमदनी और संपत्ति का वितरण आदि जैसे सार्वजनिक डाटा पर ढेरों सरकारी और निजी क्षेत्र की योजनाओं को बनाने की प्रक्रिया के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियां निर्भर करती हैं.

कुछ साल पहले राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के तहत कराये गये विस्तृत सर्वेक्षण के आंकड़ों को दबा दिया गया था. इसकी प्रतिक्रिया में आयोग के सभी सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था. अब इस आयोग का पुनर्गठन किया जा रहा है, लेकिन यह असंतोष का कारण है. सार्वजनिक डाटा की सटीकता और उसमें भरोसे का आधार , चाहे वह जनगणना के हों या अर्थव्यवस्था के, वह विश्वास है, जो लोग उस संस्था में रखते हैं, जिसका जिम्मा डाटा का संग्रह करना है.

देरी करना या दबा देना अविश्वास का कारण बनता है. भले ही उसमें कमियां हों, पर डाटा को सार्वजनिक करना चाहिए तथा विश्लेषकों को उनका अध्ययन करना चाहिए. जनगणना में हो रही देरी, वह भी तब, जब हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसियों ने कोविड की कठिनाइयों के बावजूद इसे पूरा कर लिया है, चिंताजनक है. यह अच्छा होगा कि सरकार डिजिटल तकनीक की मदद से प्रक्रिया की अवधि घटाने के रास्ते जल्दी निकाले तथा डाटा का सत्यापन कर प्रारंभिक आंकड़ों को यथासंभव शीघ्र सार्वजनिक करे.

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