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यूक्रेन के संकट में नाटो कहां है

ऊर्जा निर्यात रूस के कुल निर्यात का साठ प्रतिशत से ज्यादा है. क्या उस पर पाबंदी लगाये बिना पुतिन को पीछे हटने को मजबूर किया जा सकता है?

रूसी सेनाएं लगातार यूक्रेन की राजधानी कीव की तरफ बढ़ रही हैं. हमले के खौफनाक मंजर को दो तस्वीरों में समेटा जा सकता है. पहली तस्वीर एक निहत्थे यूक्रेनी नागरिक की है, जो राजधानी कीव की तरफ आ रहे रूसी टैंकों के काफिले वापस खदेड़ने की कोशिश करता है और उसके सामने बैठ जाता है. दूसरी तस्वीर में रूस की एक बख्तरबंद गाड़ी एक सूनी सड़क पर बगल से गुजर रही कार की तरफ मुड़ती है और उसे कुचल कर आगे बढ़ जाती है.

ये तस्वीरें रूसी सेना के खिलाफ यूक्रेनी नागरिकों के रोष व हताशा और रूसी सेना की बर्बरता का नमूना पेश करती हैं. हताशा के ऐसे ही स्वर अब रूसी सीमा से लगनेवाले नाटो देशों के नेताओं से भी सुनने को मिल रहे हैं.

मसलन, बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में लातविया के उपप्रधानमंत्री आर्तिस पाबरिक ने लताड़ लगाते हुए पूछा, ‘यूक्रेन के संकट की इस घड़ी में नाटो के बड़े-बड़े देश कहां हैं?’ पोलैंड के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड टुस्क ने ट्वीट कर कहा, ‘जर्मनी, हंगरी और इटली जैसे देशों ने कड़े कदमों में रुकावट डाल कर खुद को शर्मिन्दा किया है.’

बढ़ते रोष और हताशा को देख फ्रांस और जर्मनी ने यूक्रेन के बचाव के लिए टैंक भेदी और जमीन से हवा में मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र भेजने का ऐलान किया है. अमेरिका, कनाडा और जर्मनी जैसे बड़े देशों ने रूस के प्रमुख बैंकों को पैसे के लेन-देन की स्विफ्ट प्रणाली से बाहर करने की घोषणा भी की है. इस पाबंदी में रूस का केंद्रीय बैंक अभी तक शामिल नहीं है.

यूरोपीय अखबारों में नाटो देशों की टालमटोल और तमाशा देखने की नीति की कड़ी आलोचना हो रही है. गार्डियन में यूरोपीय विषयों के विशेषज्ञ साइमन टिस्डल ने पश्चिमी देशों को आड़े हाथों लेते हुए लिखा है, ‘पश्चिमी देश अपनी बुजदिली, लालच और सुस्ती की वजह से हमेशा पुतिन से हार जाते हैं.’

यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमिर जेलेंस्की पिछले कई हफ्तों से रूसी सेना का मुकाबला करने के लिए हथियारों और रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाने की गुहार लगा रहे थे. अब हथियार भेजने और प्रतिबंध लगाने से क्या फायदा? मान लिया जाए कि नाटो देश अपनी सेना रूस से सीधी टक्कर के लिए नहीं भेजना चाहते थे, पर वे यूक्रेन की सेना के लिए सीमाओं पर शस्त्रास्त्र तो तैनात कर ही सकते थे! वे अपने लड़ाकू विमानों और पोतों के जरिये यूक्रेन के आसमान को उड़ान निषिद्ध क्षेत्र भी घोषित कर सकते थे.

वरिष्ठ पश्चिमी राजनीतिज्ञों का मानना है कि यह संकट 1939 के बाद पूर्वी यूरोप का सबसे बड़ा संकट है. दुर्योग से पोलैंड पर हमले के लिए हिटलर की दलीलें और भाषा भी लगभग वैसी ही थी, जिनका प्रयोग पुतिन कर रहे हैं. इस हमले की तुलना कुवैत पर अगस्त, 1990 के सद्दाम हुसैन के हमले से भी की जा रही है, जिसके जवाब में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र का समर्थन जुटा कर इराक पर हमला कर कुवैत को आजाद करा लिया था.

लेकिन रूस को यूक्रेन से खदेड़ने के लिए न अमेरिका और न ही नाटो अपने सैनिक उतारने को तैयार हैं. कूटनीतिक प्रेक्षक तो यहां तक कह रहे हैं कि उन्होंने सेनाएं न भेजने की बातें सरे-आम कर एक तरह से पुतिन को यूक्रेन पर चढ़ाई करने का न्योता दिया है. इसमें दो राय नहीं कि यूक्रेन पर चढ़ाई कर पुतिन ने नाटो के समक्ष उसकी स्थापना के बाद की सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है.

पुतिन द्वारा 2014 में हथियाये गये प्रायद्वीप क्रीमिया के शहर याल्ता में स्तालिन, रूजवेल्ट और चर्चिल के बीच हुई 1945 की संधि में यह तय हुआ था कि पूर्वी यूरोप के लोगों को अपनी सरकारें लोकतांत्रिक तरीके से चुनने की आजादी दी जायेगी. पर उसके तीन साल के भीतर ही पूर्वी यूरोप के सभी देशों में क्रांतियां और तख्ता पलट करा कर कम्युनिस्ट सरकारें बना दी गयीं और वे सब सोवियत संघ में शामिल हो गयीं.

नाटो की स्थापना ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और पश्चिमी जर्मनी जैसे देशों को साम्यवाद की इस आंधी से बचाने के लिए हुई थी. सामरिक सुरक्षा के इस कवच ने शीतयुद्ध के दौर में भी शांति बनाये रखी और सोवियत संघ के बिखराव के बाद साम्यवादी तानाशाही से आजाद हुए देशों के लिए भी यह आकर्षण का केंद्र बना और वे इसमें शामिल होते गये.

नाटो के सामने अब तीन बड़ी चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं. पहली, रूसी सेना को यूक्रेन से वापस कैसे खदेड़ा जाए. दूसरी, पुतिन को पड़ोस के कई देशों में अराजकता फैलाने और घुसने से कैसे रोका जाए. मॉलदोवा-यूक्रेन सीमा पर 1992 से ही ट्रांसनिस्ट्रिया नामक अलगाववादी राज्य बना हुआ है, जिसकी रक्षा के लिए रूस की एक सैनिक टुकड़ी तैनात है.

पिछले तीस सालों से नाटो और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के बावजूद उसे नहीं हटाया गया है. तीसरी और तात्कालिक चुनौती यूक्रेन से भाग कर पड़ोसी देशों में आनेवाले शरणार्थियों की है. इसी से जुड़ी समस्या यूक्रेन में पढ़ने गये लगभग बीस हजार भारतीय विद्यार्थियों के भविष्य की है.

पुतिन के लिए भी यह लड़ाई कांटों का ताज साबित हो सकती है. अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया में छपे कई लेखों के अनुसार लड़ाई को लेकर पुतिन का आकलन गड़बड़ा रहा है. उन्हें यूक्रेनी सेना और लोगों से ऐसे प्रतिरोध की उम्मीद नहीं थी. वे नाटो से भी वैसी एकता की उम्मीद नहीं कर रहे थे, जैसी बनती दिख रही है. इसलिए वे बातचीत के संकेत भी देते जा रहे हैं.

यदि युद्धविराम हो भी जाता है, तो भी पुतिन की अंतरराष्ट्रीय छवि को जो बट्टा लगा है, वह शायद अब कभी दूर नहीं हो पायेगा. आर्थिक प्रतिबंधों की मार रूसी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ेगी और हो सकता है जन असंतोष को भी हवा दे. चीनी नेता शी जिनपिंग को भी साथ लेने की बातें होने लगी हैं.

नाटो देशों की रूसी ऊर्जा पर निर्भरता को लेकर भी गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं. नाटो में यह पहले क्यों नहीं सोचा गया कि दुश्मन देश पर ऊर्जा की निर्भरता एक दिन उन्हें महंगी पड़ सकती है? पर्यावरण संकट से जुड़ा रूस से सुरक्षा का संकट तेल और गैस पर निर्भरता को समाप्त कर स्वच्छ ऊर्जा के विकल्प को युद्ध स्तर पर अपनाने की मांग कर रहा है. पर अमेरिका अब भी तेल की कीमतों को लेकर चिंतित है. ऊर्जा निर्यात रूस के कुल निर्यात का साठ प्रतिशत से ज्यादा है. क्या उस पर पाबंदी लगाये बिना पुतिन को पीछे हटने को मजबूर किया जा सकता है?

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