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तालिबान का सियासी पाखंड

अरब वसंत की लहर ने यह साबित कर दिया कि यदि लोगों का बस चले, तो वे खालिस इस्लामी तानाशाही की तुलना में खुली और आधुनिकता वाली इस्लामी लोकशाही को स्वीकार करेंगे.

सत्ता पर काबिज होने के कई दिनों के बाद घोषित अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की बातें सुनकर अंदाजा होता है कि राजनीति में पाखंड का बोलबाला किस कदर हो चला है. दुनिया के सबसे खालिस शरीयत पर चलनेवाली इस्लामी अमीरी का दम भरनेवाले तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने चीन को अपना ‘सबसे अहम साथी’ बताते हुए कहा कि चीन की दोस्ती हमारे लिए एक बुनियादी और असाधारण अवसर की तरह है.

यह बयान देते वक्त कथित तौर पर दुनिया की सबसे खालिस इस्लामी अमीरी को चीन की सरकार के वे जोर-जुल्म कतई नजर नहीं आये, जो शिनजियांग के वीगर मुसलमानों को बरसों से झेलने पड़ रहे हैं. यह जगजाहिर सच्चाई है कि चीन ने लाखों की तादाद में वीगर मुसलमानों को कथित सुधारघरों में कैद कर रखा है. उन पर चौबीसों घंटे कड़ी निगाह रखी जाती है तथा मजहबी पहनावे और रहन-सहन को बदलने के लिए मजबूर किया जा रहा है. असल में एक आबादी के सांस्कृतिक सफाये की प्रक्रिया चल रही है. यहां तक कि लोगों की नसबंदी भी की जा रही है, ताकि आबादी की बढ़त को रोका जा सके.

तालिबान के रवैये से यह साफ जाहिर है कि मजहबी जिहाद का असली मकसद सत्ता हासिल करना ही है. न्यूयॉर्क में दो दशक पहले हुए 9/11 के हमले का असली मकसद अमरीका को खाड़ी और अरब जगत की उन बनावटी इस्लामी तानाशाहियों की हिमायत करने की सजा देना था, जिन्हें हटा कर जिहाद करनेवाले मजहबी तानाशाहियां कायम करना चाहते थे.

उनका मानना था कि ईरान को छोड़ कर बाकी के अर्द्ध-लोकतांत्रिक और तानाशाही इस्लामी देशों की हुकूमतें शरीयत पर चलनेवाली खालिस इस्लामी हुकूमतें नहीं हैं. जिस प्रकार ईरान में 1979 में शाह की हुकूमत को हटा कर अयातुल्लाह खुमैनी ने शिया तानाशाही कायम की, वैसे ही ओसामा बिन लादेन और उनके जिहादी आतंकी सऊदी अरब, मिस्र, जॉर्डन, इराक, सीरिया और अफगानिस्तान जैसे इस्लामी देशों में खालिस सुन्नी तानाशाहियां कायम करना चाहते थे.

बाद में इस मुहिम को पाकिस्तान, इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्की और भारत जैसे देशों में भी चलाने की मंशा थी. इसका मतलब यह हुआ कि फिलहाल की लड़ाई इस्लाम और पश्चिम की संस्कृतियों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि इस्लाम के भीतर ही बिगड़े या भटके हुए इस्लामियों और खालिस इस्लामियों के बीच सत्ता की लड़ाई थी. यह लड़ाई जीत लेने के बाद जिहादियों के निशाने पर भारत, इस्राइल और रूस जैसे वे देश आनेवाले थे, जहां बड़ी इस्लामी आबादी है. इन देशों के बाद अंत में पश्चिम के ईसाई देश भी आनेवाले थे.

दुनियाभर में खालिस इस्लामी हुकूमतों का जाल बिछाने का सपना देखनेवाले जिहादी कट्टरपंथियों के इस सपने को सबसे बड़ी नाकामी अपने उम्मा या अवाम के हाथों मिली. अमरीका का अरब जगत पर लोकशाही थोपने का सपना भले पूरा न हुआ हो, लेकिन मिस्र से लेकर लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, जॉर्डन और सीरिया में इस्लामी तानाशाहियों के खिलाफ 2010 के बाद से जन-विरोध की एक लहर चली थी, जिसे अरब वसंत के नाम से पुकारा जाता है. इस लहर ने ट्यूनीशिया, लीबिया, मिस्र और अल्जीरिया में कुछ बरस के लिए खुलेपन की हिमायत करनेवाली लोकतांत्रिक सरकारों को जगह भी दी.

लेकिन सत्ता की आपसी लड़ाई, लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुभव की कमी और भ्रष्टाचार ने उन्हें ज्यादा दिनों तक नहीं टिकने दिया. अरब वसंत की वजह से ही सीरिया की तानाशाही हुकूमत की जड़ें हिलीं और जॉर्डन की राजशाही को अपने यहां अनेक राजनीतिक सुधार करने पड़े. सऊदी अरब और ईरान तक भी उस वसंत की कुछ आंच पहुंची, लेकिन इनकी हुकूमतें सुधारों की मामूली बातें करते हुए अपने-आप को बचा ले गयीं.

सामाजिक खुलेपन, आधुनिकता और लोकशाही की मांग में उठी अरब वसंत की लहर भले ही अरब, उत्तरी अफ्रीका और खाड़ी के देशों में दशकों से जड़ें जमाये बैठी इस्लामी तानाशाहियों को हटा न पायी हो, लेकिन उसने यह साबित कर दिया कि यदि लोगों का बस चले, तो वे कट्टरपंथी मदरसों और मुल्लाओं वाली किसी खालिस इस्लामी तानाशाही की तुलना में खुली और आधुनिकता वाली इस्लामी लोकशाही को स्वीकार करेंगे.

उल्लेखनीय है कि खालिस इस्लामी अमीरी कायम करने की इस लड़ाई के लिए पैसा तेल के पैसे से अमीर बने सऊदी अरब, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों से आ रहा था. अमेरिका में हुए 9/11 के हमलों और अरब वसंत की लहर ने इन देशों की आंखें भी खोलीं और उन्हें समझ आ गया कि जिस पैसे, मदरसों और कट्टर मौलवियों का निर्यात वे कर रहे हैं, उनका इस्तेमाल कर उन्हीं के तख्तों को पलटने की तैयारी हो चुकी है.

इसलिए अब तालिबान की खालिस इस्लामी हुकूमत को चीन इतना बड़ा दोस्त नजर आ रहा है, क्योंकि अब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात अपने ही तख्ते पलटवाने के लिए पैसा देने को कतई तैयार नहीं हैं. चीन ने भी अभी पैसा दिया नहीं है, लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है.

चीन फिलहाल खनिज संपदा के बदले निवेश करने की बातें कर रहा है. इसीलिए इस्लाम की सबसे खालिस हुकूमत को इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन भी सबसे बड़ा दोस्त नजर आने लगा है. यदि इतिहास के पन्नों को पलटा जाए, तो मजहबों, खासकर इस्लाम, का सोवियत रूस और माओवादी चीन की कम्युनिस्ट हुकूमतों से बड़ा दुश्मन न आज तक हुआ है और न ही शायद आगे हो सकेगा.

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