।। सुशांत सरीन।।
(रक्षा विशेषज्ञ)
पिछले दिनों ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने हैंडरसन ब्रुक की रिपोर्ट के ऐसे हिस्से को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित किया, जिसमें 1962 के युद्ध में चीन से हार के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेवार माना गया है. उस वेबसाइट को ब्लॉक कर दिया गया है. हमारे देश में समस्या यह है कि हम जल्दी ही किसी चीज को लेकर नकारात्मक हो जाते हैं. यह रिपोर्ट 1963 में ही सौंप दी गयी थी, जिसके आधार पर 1970 में ही मैक्सवेल ने ‘इंडियाज चाइना वार’ किताब लिखी थी. जाहिर है कि इस बात को बहुत से लोग पहले से जानते हैं.
आज गूगल के दौर में ऐसी चीजें जानना आसान है. दुनिया भर में हजारों-लाखों लोग ऐसी रिपोर्टो के जारी होते ही उसे पढ़ लेते हैं और ऐतिहासिक गलतियों को समझ जाते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि 1962 के युद्ध में चीन से पराजय के लिए नेहरू जिम्मेवार थे. लेकिन भारत सरकार अब भी ऐसी बातों के मद्देनजर 19वीं सदी के सोच के तहत काम करती है. उसे लगता है कि किसी वेबसाइट को ब्लॉक कर देने से गोपनीयता बनी रहेगी. यह बेमानी सी बात है और मौजूदा दौर में इसका कोई मतलब नहीं है. अब रिपोर्ट दुनिया के सामने है. जब भी किसी देश में ऐसी घटना होती हैं, तो वहां की सरकार को चाहिए कि इतिहास से सीख लें, बजाय इसके कि रिपोर्ट बैन करे. नीति-निर्धारण में, सुरक्षा-नीति में, प्रशासन में, विदेश नीति में कहां कमी रही, इन बातों को किसी घटना की रिपोर्ट से आसानी से समझा जा सकता है.
हममें एक खूबी यह है कि हम कुछ लोगों की गलतियों को छुपा कर उन्हें देवता बना देते हैं. कुछ ऐसा ही हमने नेहरू के साथ किया है. नेहरू खुद को विदेश मामलों के बड़े जानकार मानते थे, परंतु विदेश नीति के लिहाज से जिस भी चीज में उन्होंने हाथ डाला, नाकामी ही हाथ लगी. पाकिस्तान, चीन और यूएन को लेकर, चाहे वह विदेश नीति की बात हो, या रक्षा-सुरक्षा का मसला हो, देश का जितना नुकसान नेहरू ने किया, उतना शायद ही किसी और नेता ने किया. गुटनिरपेक्ष देशों में पड़ कर नेहरू ने अपनी विदेशी नीति बदल डाली और इसे लेकर दोहरे मानदंड का इस्तेमाल किया. ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनसे हम चाहें तो सीख ले सकते हैं, पर हम व्यक्तित्व की गलतियों को नजरअंदाज कर वही गलती दोहराते रहते हैं. इसीलिए आज हमें मैक्सवेल की वेबसाइट को ब्लॉक करने की नौबत आ पड़ी. यह लोकतंत्र का तकाजा नहीं है.
चीन से हार को हम यह कह कर टाल देते हैं कि उस वक्त हमारे पास हथियारों की कमी थी और हम जंग लगे हथियारों से लड़ रहे थे. उस वक्त यह समस्या थी, लेकिन यहीं सोचनेवाली बात यह है कि आखिर ऐसी समस्या क्यों थी? क्या सेना नहीं चाहती थी कि उसे नये और ज्यादा हथियार मिलें? दरअसल, यह नीतिगत समस्या है. जनरल थापर जैसा बेकार जनरल देश की सेना में और कोई नहीं आया, उसे युद्ध में लगा दिया गया. वह चुप्पी मार कर बैठा रहा और अपनी नौकरी करता रहा. दूसरी चीज यह कि जिस देश के रक्षा मंत्री (तत्कालीन- कृष्ण मेनन) को रक्षा-सुरक्षा के बारे में कुछ पता ही न हो, उस देश का हारना तय है.
सुरक्षा का मुद्दा देश के लिए एक बड़ी राष्ट्रीय समस्या है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीटय़ूट की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत वर्तमान में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है. इसका अर्थ तो यही हुआ कि आपकी सैन्य जरूरतें बढ़ी हैं. फिर भी हम देश में हथियार नहीं बना पा रहे हैं, तो यह एक बड़ी समस्या है, जो नीतिगत है. हम महाशक्ति होने की बात करते हैं, बेहतरीन औद्योगिक विकास की बात करते हैं, लेकिन देश की सुरक्षा के लिए हमें दूसरे देशों से हथियार आयात पर निर्भर होना पड़ता है. हमने एक ढंग की राइफल तक का निर्माण नहीं किया. हमारे पास 20-30 साल पुराने जहाज हैं. यह जो समस्या है- कुछ नीयत में है और कुछ नीति में. नीयत में समस्या यह है कि यदि हिंदुस्तान में हथियार बनते, तो किसी को घूस खाने का मौका नहीं मिलता. रक्षा-सौदों में दलाली और घोटालों से आप समझ सकते हैं कि क्यों हमारे नीति-निर्माता देश में हथियारों के निर्माण के बारे में नहीं सोचते हैं. अगर वे सोचते तो आज देश की तसवीर कुछ और होती. दूसरी समस्या नीति की है. हथियार-निर्माण में हम निजी क्षेत्र को नहीं जोड़ते. अगर निजी क्षेत्रों से हथियार-निर्माण की कोई नीति बने तो देश में हथियारों की कमी नहीं होगी और न ही हमें दूसरे देश पर इसके लिए निर्भर होना पड़ेगा.
बहुत से सामाजिक संगठन और कार्यकर्ता मानते हैं कि हथियारों में वृद्धि के बजाय हमें गरीबी उन्मूलन पर जोर देना चाहिए. वे अपनी जगह पर सही हैं, पर यदि हमारे पास हथियार नहीं होंगे तो हम किसी दूसरे देश के आक्रमण को नहीं ङोल पायेंगे, जैसा कि 1962 में हुआ. फिर नीतियों की ही बात आती है, कि हमें दूसरों से सुरक्षा और खुद की सामाजिक सुरक्षा, दोनों के लिए समानांतर नीति बनानी होगी. सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का तीन प्रतिशत सुरक्षा पर खर्च होना चाहिए, पर हमारे यहां डेढ़ प्रतिशत ही खर्च होता है. दूसरी बात यह कि सामाजिक सुरक्षा के लिए यदि सरकार कोई योजना बनाती है तो उसमें घोटालों से देश का नुकसान होता है. गरीबी-उन्मूलन के नाम पर हजारों करोड़ की नीतियां बनती हैं, पर क्या गरीबी मिटी आज तक? मुद्दा यह नहीं है कि आप सामाजिक सुरक्षा पर ज्यादा खर्च करना चाहते हैं, मुद्दा यह है कि उसका प्रबंधन नहीं कर पाते और घोटाले हो जाते हैं.
जहां तक लोकसभा में राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाने की बात है, तो यह जरूरी तो है, लेकिन हालात इसके विपरीत हैं. चुनावी मुद्दे देश के मौजूदा हालात पर निर्भर करते हैं. वर्तमान में देश में भ्रष्टाचार का मुद्दा सबसे बड़ा है, इसलिए इसी पर आम चुनाव लड़ा जा रहा है. हो सकता है कि कुछ साल बाद भ्रष्टाचार कम हो जाये, तब राष्ट्रीय सुरक्षा भी बड़ा मुद्दा बने. अगर आप इस वक्त दस बड़े मुद्दों की सूची बनाएं और उस पर जनता की राय मांगें, तो राष्ट्रीय सुरक्षा सातवें-आठवें नंबर पर होगा. पहले-दूसरे नंबर पर महंगाई-भ्रष्टाचार ही होंगे. करगिल के युद्ध के समय यदि ऐसी राय मांगी जाती तो राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा चौथे-पांचवें नंबर पर होता. जाहिर है, वर्तमान में जनमानस को जो मुद्दे प्रभावित करते हैं, वही चुनावी मुद्दा बनते हैं. जहां तक राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर नीतियों की बात है तो पहले यह सोचना होगा कि वास्तव में आप करना क्या चाहते हैं? पड़ोसी देशों के साथ कैसा रिश्ता रखना चाहते हैं? इसी आधार पर नीतियों का निर्धारण हो. यदि पहले से यह स्पष्ट नहीं होगा तो वही होता रहेगा, जो एक जमाने में नेहरू ने खुद को विदेश नीति का जानकार मान कर किया था. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)