राजनीति दुर्जनों की अंतिम शरणस्थली है. यह बात चाहे जिस संदर्भ में कही गयी हो, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर बिलकुल सही बैठती है. यह तथ्य सर्वविदित है कि हमारी संसद और विधानसभाओं में बड़ी संख्या में ऐसे जनप्रतिनिधि हैं, जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं. एक ताजा शोध के अनुसार, भाजपा और कांग्रेस द्वारा 8 मार्च तक जारी सूची में लगभग एक-तिहाई प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं.
दूरसंचार घोटाले में जेल जा चुके पूर्व मंत्री ए राजा और कई आरोपों से घिरे एक अन्य पूर्व मंत्री दयानिधि मारन को उनके दल डीएमके ने, तथा रेल घूस कांड में चरचा में रहे पवन बंसल को कांग्रेस ने फिर से अपना उम्मीदवार बनाया है. भाजपा से पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को टिकट मिला है. उत्तर प्रदेश में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, बृजभूषण सिंह, मित्रसेन यादव जैसे कुख्यात बाहुबली मैदान में हैं. राजनीति के अपराधीकरण को नियंत्रित करने की कोशिश में पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों से सजायाफ्ता लोगों की सदस्यता तुरंत खारिज करने का निर्देश दिया था.
अभी उसने यह निर्देश दिया है कि सांसदों और विधायकों पर चल रहे मुकदमों का निपटारा एक साल के भीतर किया जाये. ध्यान रहे कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा होने के बावजूद दागियों को पार्टियां मैदान में उतार रही हैं. यह किसी एक या दो दल का नहीं, बल्कि लगभग हर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल का यही हाल है. एक ओर पार्टियां भ्रष्टाचार और अपराध को नियंत्रित करने के बड़े-बड़े वायदे कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसे लोगों को संसद में भेजने की कोशिश भी कर रही हैं. जब उम्मीदवार तय करने के स्तर पर ही यह स्थिति है, तो चुनाव के बाद सरकार और सदन में भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या लड़ाई लड़ी जायेगी!
राजनीति में शुचिता का महत्वपूर्ण स्थान है. पैसे और बाहुबल के दखल से लोकतंत्र कुछ लोगों के लोभ-लालच की पूर्ति का औजार बन जाता है. अगर विभिन्न संस्थाएं और पार्टियां इनकी पैठ को रोकने में नाकामयाब रहती हैं, तो यह जिम्मेवारी मतदाता की है. मतदाताओं ने अपने विवेक से सही फैसला नहीं लिया, तो देश की भलाई के लिए समर्पित किसी ईमानदार सरकार की उम्मीद धरी की धरी रह जायेगी.