।। गजेंद्र प्रसाद हिमांशु।।
(पूर्व मंत्री, बिहार)
मजबूत एवं स्वस्थ संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक और राजनेताओं की मर्यादा, शुचिता एवं विश्वसनीयता की जितनी अहम भूमिका है, उतनी ही जरूरी है जनता की राजनीतिक चेतना. इसके बिना सफल लोकतंत्र की परिकल्पना अधूरी है. जैसे मस्तिष्क से सारा शरीर संचालित होता है, उसी प्रकार राजनीति से देश और समाज संचालित होता है. अगर मस्तिष्क ठीक से काम नहीं करता है तो शरीर का कोई उपयोग नहीं रह जाता. गांधीजी ने आजादी के बाद देशवासियों को राजनीतिक प्रशिक्षण देने की बात कही थी. मगर आज देश में राजनीतिक प्रशिक्षण की बात तो दूर; जनता को जाति, धर्म, वर्ग और समुदाय में बांट कर उसे गुमराह करने की ही प्रवृत्ति राजनेताओं व राजनीतिक दलों में बढ़ी है. ऐसे में राजनीतिक प्रशिक्षण कौन देगा?
2014 के आम चुनाव की घोषणा हो चुकी है. सभी राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में जुट गये हैं. वोट के लिए तरह-तरह से लोगों के बीच नये-नये नारे तैयार किये जा रहे हैं. मगर, 130 करोड़ लोगों के देश में 22 रुपये और 30 रुपये प्रतिदिन की आमदनी पर जीनेवाले 15 करोड़ लोगों, भूखे पेट सो जानेवाले ढाई लाख किसानों, आत्महत्या कर चुके लाखों किसानों, खेती का लागत मूल्य नहीं पानेवाले करोड़ों किसानों की समस्या के बारे में राजनेता कुछ बता नहीं रहे. डीजल, पेट्रोल और गैस के रोज बढ़ते दामों के बारे में वे चुप हैं. भ्रष्टाचार-महंगाई देश को निगल रही है, उसकी चिंता राजनीति पार्टियों को नहीं है. आज देश के नौजवानों की फौज सड़क पर है. स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई-लिखाई समाप्त है. इन सभी समस्याओं का निराकरण कैसे होगा? यह वर्तमान लोकसभा के चुनाव में जनता को जानने का हक है और उसे बताया भी जाना चाहिए.
समस्याओं का समाधन राजनीतिक दलों को ही बताना होगा. लोकतंत्र में सबसे बड़ी भूमिका इन्हीं की होती है. लेकिन आज ज्यादातर दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह हो गये हैं. साथ ही इन पर कंपनी एवं बाजार का प्रभाव हावी है. किसी-किसी दल की स्थिति तो यह है कि वह परिवार को लेकर ही चल रहा है. विडंबना यह है कि देश का कोई गरीब या आम आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता है. हाल ही में चुनाव आयोग ने फैसला लिया कि संसदीय चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी 70 लाख रुपये खर्च कर सकता है. चुनाव अब बड़े पूंजीपतियों और प्राइवेट लिमिटेड कंपनी वाली पार्टियों के हाथों में जा चुका है.
आज राजनीति बेईमान और भ्रष्टों के हाथ में है. राजनीति से नैतिकता, ईमानदारी, सिद्धांत मर्यादाएं, मानवीयता आदि लुप्त हो चुके हैं. देश में अराजकता और अशांति का कारण; सिद्धांतों और नैतिकता का राजनीति से विदा हो जाना है. डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था- ‘बिना सिद्धांत की राजनीति बांझ होती है.’ लोहिया नास्तिक थे. मगर देश में राजनीति को प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने कहा- ‘हे भारतमाता, मुङो राम की भुजा, कृष्ण का हृदय और शिव का मस्तिष्क दो.’ लोहिया राजनीति के लिए नैतिकता, सिद्धांत और मर्यादा को बहुत महत्व देते थे.
आजादी के लिए कुर्बान होनेवाले हमारे महान नेताओं ने भी बताया है कि राजनीति जनता की सेवा करना और बुराइयों से लड़ने का औजार है. मगर चुनाव में पार्टियों का एकमात्र लक्ष्य सत्ता पाना होता है. मर्यादित भाषा की भी कमी से जूझ रहे हैं देश के राजनेता. लगता है अब राजनीति भले लोगों का कार्य नहीं रह गयी है. आज राजनीतिक अराजकता के कारण ही समाज में अराजकता, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, लूट और धन संग्रह के तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं.
‘महाजनो येन गत: स पंथा:’ अर्थात् देश-समाज को चलानेवाले जैसा आचरण करते हैं; देश-समाज उसी की नकल करता है. इसलिए हमारी नयी पीढ़ी को अपने नेताओं के आचरण से कोई आदर्श या प्रेरणा नहीं मिल रही है. देश के करोड़ों मतदाताओं, आम नागरिकों के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि इस सिद्धांतहीनता और समस्याओं के समाधान के बिना लोकतंत्र कैसे बचेगा? ऐसे में जनता को सोच-समझ कर निर्णय लेना होगा और चुनाव में भ्रष्ट उम्मीदवारों को सबक सिखाना ही होगा.
चौधरी चरण सिंह जनता से अपील करते थे कि ‘अगर भूल से मेरी पार्टी के भी गलत उम्मीदवार खड़े कर दिये गये हों, तो उन्हें हरगिज वोट नहीं देना.’ जनता को इस बार जागना होगा, वरना राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा से जनता को रूबरू होना ही पड़ेगा. जो लोग यह समझते हैं कि देश में अब राजनीति नहीं सुधरेगी; वे वहम के शिकार हैं. कार्ल मार्क्स ने कहा है, ‘समाज में या तो समाजवाद आयेगा या अराजकता फैल जायेगी.’ सामाजिक विषमता, अराजकता और असमानता को देख कर महान कवि रामधरी सिंह ‘दिनकर’ की पंक्तियां याद आती हैं-
‘शांति नहीं तब तक, जब तक; सुख भोग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो.’