विश्वप्रसिद्ध लेखक जोनाथन स्विफ्ट ने कभी कहा था कि कानून एक मकड़जाल है, जो छोटे मक्खी-मच्छरों को तो पकड़ सकता है, लेकिन डंक मारनेवाले ततैयों और बर्रो को कानून तोड़ते हुए गुजर जाने देता है. यह बात भारतीय कानून-व्यवस्था पर भी काफी हद तक लागू होती है. देश में विद्वेष फैलानेवाले बयानों पर लगाम के लिए अनेक कानून हैं, लेकिन प्रभावशाली राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक नेताओं को ऐसा करने से रोक पाने में उन कानूनों की अक्षमता का ही परिणाम है कि अब सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग से घृणा और द्वेष फैलानेवाले बयानों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार को सुझाव देने को कहा है.
मुंबई में राज ठाकरे और हैदराबाद में अकबरुद्दीन ओवैसी के भड़कानेवाले बयानों पर कार्रवाई की मांग वाली एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया है. देश में जाति, धर्म, नस्ल, संप्रदाय, भाषा आदि के आधार पर भेद पैदा करने या उन्माद फैलानेवाले बयान देना तो अपराध है ही, सोशल मीडिया पर भी ऐसे क्रियाकलापों को रोकने की व्यवस्थाएं की गयी हैं. इनके बावजूद हमारी पुलिस और अदालतें अगर सामाजिक ताना-बाना तोड़नेवालों को नहीं रोक पा रही हैं, तो क्या विधि आयोग के नये सुझाव और नयी व्यवस्थाएं कारगर हो सकेंगी? ऐसा नहीं है कि देश में किसी ठाकरे, ओवैसी या तोगड़िया ने पहली बार ऐसा अपराध किया हो. ऐसा भी नहीं है कि ऐसे लोग सार्वजनिक जीवन में पहली बार दखल दे रहे हों.
यह भी नहीं है कि ऐसे लोग गिनती के हैं. क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर जनभावनाएं भड़का कर भय और हिंसा का वातावरण बनाना राजनीति की स्थायी विशेषता बनती जा रही है. ठाकरे, ओवैसी और तोगड़िया जैसे नेता सिर्फ उसके कुछ प्रतिनिधि चेहरे हैं, ऐसे अनेक चेहरे और प्रवृत्तियों की पैठ हमारे सार्वजनिक जीवन में गहरे तक हो चुकी है. इनके विरुद्ध अगर किसी नये कानून की जरूरत है तो उसे बनाया जाये, लेकिन इन पर लगाम के लिए ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है. ऐसी ताकतों का साथ देनेवालों को भी इस अपराध में शामिल माना जाना चाहिए. यह जिम्मेवारी शासन की तो है ही, लोकतांत्रिक संगठनों और आम बुद्धिजीवियों को भी इनके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए.