।। प्रमोद जोशी।।
वरिष्ठ पत्रकार
व्यावहारिक सच यह है कि राजनेता की दिलचस्पी अपने वोट में है. वह राजनीति में व्यस्त रहता है. ब्यूरोक्रेसी फाइलों पर सोयी रहती है. जब हादसा होता है, तब सेना के अधिकारी याद आते हैं.. क्या आपने किसी सचिव को जिम्मेवारी लेकर इस्तीफा देते सुना है?
पिछले शुक्रवार और शनिवार को नौसेना के दो उत्पादन केंद्रों में दो बड़ी दुर्घटनाएं होने के बाद मीडिया में उफान आ गया. अभी तक कहा जा रहा था कि हमारे उपकरण पुराने पड़ चुके हैं. उन्हें समय से बदला नहीं गया है. इस कारण दुर्घटनाएं हो रहीं हैं. सबसे ताजा दुर्घटनाएं दो प्रतिष्ठित उत्पादन केंद्रों से जुड़ी हैं. परमाणु पनडुब्बी अरिहंत और कोलकाता वर्ग के विध्वंसक पोत सबसे आधुनिक तकनीक से लैस हैं. हालांकि दुर्घटना का कारण जहाज निर्माण केंद्र के रखरखाव से जुड़ा है, पर सवाल पूरी रक्षा-व्यवस्था को लेकर है.
उससे पहले प्रश्न है कि हमारा मीडिया और सामान्य-जन रक्षा तंत्र से कितने वाकिफ हैं? क्या कारण है कि हमने इस तरफ तभी ध्यान दिया, जब दुर्घटनाएं हुईं? पिछले महीने संसद ने दो लाख चौबीस हजार करोड़ का अंतरिम रक्षा-बजट पास किया. यह बगैर किसी गंभीर विचार-विमर्श के पास हो गया. राजनीतिक व्यवस्था में भी खोट है.
भारत अपनी रक्षा-व्यवस्था के आधुनिकीकरण की योजना बना रहा है. इसके लिए अगले कुछ वर्षो में साढ़े सात लाख करोड़ रुपये के अस्त्र-शस्त्र का आयात किया जायेगा. हमारी रक्षा व्यवस्था 20 लाख से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष और एक करोड़ से ज्यादा लोगों को परोक्ष रूप से रोजगार देती है. इसके अलावा 20-25 लाख रिटायर्ड फौजी देश में हैं. पर क्या हमारा मीडिया सुरक्षा व्यवस्था के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर कभी बात करता है? उपरोक्त दो दुर्घटनाओं के तकरीबन दस दिन पहले मुंबई के नजदीक किलो क्लास पनडुब्बी आइएनएस सिंधुरत्न हादसे की शिकार हुई थी, जिसमें दो अधिकारियों की मौत हो गयी.
इसके बाद नौसेना प्रमुख एडमिरल डीके जोशी ने इस्तीफा दे दिया था. पिछले कुछ महीनों में नौसेना में छोटे-बड़े एक दर्जन हादसे हो चुके हैं. इसकी शुरुआत पिछले साल अगस्त में मुंबई हार्बर में आइएनएस सिंधुरक्षक पनडुब्बी के साथ हुई थी. देर रात हुए कई धमाकों के बाद पनडुब्बी डूब गयी और 18 अफसरों की मौत हो गयी. इसके पहले लगभग एक दशक तक मिग-21 की दुर्घटनाओं को लेकर इसी किस्म की सनसनी फैली रही. दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि मिग-21 की जगह भरने के लिए हम जिस तेजस विमान को तैयार कर रहे थे, उसमें काफी विलंब हो गया.
हादसे और मौतें हृदय-विदारक होती हैं. इनमें सनसनी का तत्व होता है. हर हादसे का कारण होता है, उसे खोजा भी जा सकता है, खासतौर से नौसेना जैसे विशेषज्ञ संगठनों के पास कारणों का पता लगाने की बेहतरीन मशीनरी होती है. दुनिया की तमाम सेनाओं के भीतर हादसे होते रहते हैं. वे हमेशा बड़ी खबर नहीं बनते. भारतीय नौसेना की जिन एक दर्जन दुर्घटनाओं को गिनाया जा रहा है, उनमें आपसी रिश्ता नहीं है. जिस तरीके से मीडिया ने सिंधुरक्षक हादसे को टाइटैनिक से जोड़ा, वह भी सनसनीखेज है. इन मसलों पर गंभीर पड़ताल के बजाय अल्लम-गल्लम बातें करना कम-से-कम सुरक्षा व्यवस्था के लिए अनुचित है.
नौसेना अध्यक्ष ने इस्तीफा क्यों दिया? यदि दिया भी, तो इतनी तेजी से स्वीकार क्यों किया गया? बताया जाता है कि सिंधुरक्षक की दुर्घटना के बाद सरकार दबाव में आ गयी थी. पिछले साल नवंबर में रक्षामंत्री ने नौसेना पर सीधे टिप्पणी कर दी थी. कहा जाता है कि रक्षा मंत्री और नौसेनाध्यक्ष के बीच पर्याप्त संवाद नहीं था. इस इस्तीफे के पहले भारत के सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया ने 1959 में जब इस्तीफा दिया था, तो उसके राजनीतिक कारण थे, जो 1962 के चीन-युद्ध में सामने आये. इससे पहले 1998 में राजग सरकार ने एडमिरल विष्णु भागवत को बर्खास्त किया था. उसमें राजनीतिक प्रशासन और सेना के बीच कुछ असहमतियां थीं. पिछले दो साल से जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच मतभेद के कारण कुछ कड़वी बातें सामने आयी हैं. इन बातों ने राजनीतिक शक्ल ले ली है, जो ठीक नहीं. पर रक्षा प्रतिष्ठान व नागरिक प्रशासन के रिश्तों को लेकर कुछ तल्ख बातों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए.
भारतीय सेना के बारे आम सहमति है कि इसे गैर-राजनीतिक होना चाहिए. भारतीय राष्ट्र-राज्य की दो बड़ी उपलब्धियां हैं. एक, हमारा लोकतंत्र और दूसरे हमारी गैर-राजनीतिक सेना. अपने आसपास के देशों पर नजर डालें, तो इन उपलब्धियों पर हमें नाज होगा. इन दोनों बातों का आपसी रिश्ता है, जिसे और बेहतर बनाया जाना चाहिए. पर ऐसा लगता है कि इस मामले में कहीं नादानी हो रही है. हाल में सरकार ने पूर्व सैनिकों के लिए एक रैंक-एक पेंशन की मांग मानी, पर सच यह है कि पिछले कुछ साल से फौजियों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट तक से फैसला होने के बावजूद उन्हें न्याय नहीं मिला था. अप्रैल, 2008 से ये फौजी धरना-प्रदर्शन के रास्ते पर चले गये. ऐसा क्यों हुआ?
दुनिया भर में सैनिक मुख्यालय सरकार का हिस्सा होते हैं. केवल भारत में वह सरकार से बाहर की संस्था है. वह सरकार के विचारार्थ रिपोर्ट पेश करती है. देश में राजनीतिक प्रशासन बहुत ताकतवर है, लेकिन उससे भी ज्यादा ताकतवर है ब्यूरोक्रेसी. ब्यूरोक्रेसी के पास अधिकार असीमित हैं और जिम्मेवारी शून्य. रक्षा मंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच एक और मशीनरी होती है.
पनडुब्बी डूबे तो नौसेनाध्यक्ष का जिम्मेदारी लेना ठीक है, पर क्या यह जिम्मेवारी का अंत है? व्यावहारिक सच यह है कि राजनेता की दिलचस्पी अपने वोट में है. वह राजनीति में व्यस्त रहता है. ब्यूरोक्रेसी फाइलों पर सोयी रहती है. जब हादसा होता है, तब सेना के अधिकारी याद आते हैं. पुराने उपकरणों को बदले जाने, नये उपकरण लाने, रक्षा-नीति, विदेश-नीति और आर्थिक-प्रबंधन का गहरा रिश्ता है. ये बातें राजनीति-प्रशासनिक दरवाजों से होकर गुजरती हैं. क्या आपने किसी सचिव को जिम्मेवारी लेकर इस्तीफा देते सुना है?
हमारी सेनाओं के पास पुराने उपकरण हैं. अगस्त और फरवरी में जिन पनडुब्बियों के हादसे हुए वे क्रमश: 1988 और 1997 में कमीशन की गयी थीं. इनमें से एक की उम्र पूरी हो गयी थी. पर यह अंतिम सच नहीं है. पुरानी पनडुब्बियां दुनिया भर की सेनाओं के पास हैं. उन्हें अपग्रेड किया जाता है और समय रहते नयी पनडुब्बियों-जहाजों तथा उपकरणों की व्यवस्था भी की जाती है. 2005 में भारत ने फ्रांस-स्पेन की स्कोर्पीन पनडुब्बी का करार किया था. इसके छह पनडुब्बी खरीदी जानी थीं और छह का निर्माण भारत में होना था. पहली पनडुब्बी 2012 में मिलनी थी, लेकिन अब तक नहीं मिली है. इससे एक ओर सेना दिक्कत में आती है, दूसरी और लागत बढ़ती जाती है. इस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है. पर सुरक्षा और उससे जुड़े सवालों पर गंभीर विमर्श करें. सावधानी और सही तथ्यों के साथ. इसमें सनसनी न घोलें तो बेहतर.