आठ मार्च को झारखंड के एक नेता की गोली मार कर हत्या कर दी गयी, दूसरे दिन झारखंड में बंदी. करोड़ों के कारोबार का नुकसान, फायदा शून्य. इसके पहले भी आम आदमी से लेकर नेता और प्रशासन के कई लोग मारे जा चुके हैं. ऐसे में मात्र नक्सली वारदातों की निंदा करना, सीबीआइ जांच कराना या बारंबार बंदी कराने के बजाय गंभीर मंथन की आवश्यकता है.
वैसे मेरा मानना है कि उग्रवादी होना एक प्रवृत्ति है, जिसके अनेक रूप हैं. जब एक भाई उग्र होता है तो अपने पिता की हत्या कर देता है. जब परिवार के लोग उग्र होते हैं तो बहू को जला देते हैं. जब भीड़ उग्र होती है तो दंगे फैल जाते हैं. ठीक उसी प्रकार, जब अत्याचार-शोषण बढ़ जाता है, तो 100-200 लोग जुट कर बंदूकें उठा लेते हैं. ऐसे में दोषी कौन है? सरकार? प्रशासन? व्यवस्था? जनता? उग्रवादी? या मानसिकता?
महावीर साहू, ई-मेल से