नरेंद्र मोदी को दिल्ली फतह करनी है, तो समान विचारधारा वाले दलों से नजदीकियां बढ़ानी होंगी. बदलाव की जबरदस्त चाह रखनेवाली जनता दुविधा में है. उन्हें मोदी की व्यक्तिगत काबिलीयत पर भरोसा तो है, पर संशय इस बात पर है कि आखिरकार वे भी तो उसी कुनबे का मुखौटा हैं जो अब तक की परंपरागत राजनीति का पोषण करता रहा है. दूसरी तरफ, केजरीवाल की पार्टी है, जो न केवल बदलाव की ही पक्षधर है, बल्कि इसके सूत्रधारों में भी शुमार है.
यह तो तय है कि राजनीतिक दल बनना इनकी चाहत नहीं, बल्कि मजबूरी थी. जिस प्रकार रामदेव के अहिंसक आंदोलन को बेरहमी से कुचला गया, अन्ना को सब्जबाग दिखा कर उलझाया गया, उससे अमूमन लोग घर बैठ जाते हैं या बहती धारा में शामिल हो जाते हैं. केजरीवाल ने ऐसा नहीं किया, बल्कि वह कर दिखाया जिसकी लोगों ने कल्पना नहीं की थी. सत्ता में बैठे लोग आंदोलनकारियों को ठेंगा दिखाते हुए सदन में आने की चुनौती दे रहे थे.
ये ऐसे आये कि दूसरों का बोरिया-बिस्तर ही समेट दिया. ऐसा साहस दिखा कर उन्होंने न केवल देशवासियों का दिल जीता, बल्कि सत्ता को जागीर समझनेवालों को सबक सिखाते हुए लोकतंत्र में प्राणवायु का संचार कर दिया. बाद के हालात पर चर्चा करना इसलिए बेकार है क्योंकि सभी जानते हैं कि केजरीवाल राजनीति के मंजे खिलाड़ी नहीं हैं. देश के दो ध्रुवों के राजनीतिक तीरों की बौछार ङोलने के बाद भी अब तक ये साबुत बचे हैं, यही बड़ी बात है. समय कम है. इन दोनों के बीच जनता दुविधा में है. शंका यह है कि यदि दोनों का मकसद एक है, तो ताल अलग क्यों ठोक रहे हैं? कोई छिपा एजेंडा तो नहीं! देश आप दोनों को हसरत भरी नजरों से देख रहा है. अत: हमारे संशय को दूर करें या मंच साझा करें.
डी कृष्णमोहन, गिरिडीह