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वादे, नारे और वास्तविक स्थिति
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सामान्यतः तीन चीजों के बारे में बातें करते हैं- वे वाशिंगटन को बदल देंगे, अमेरिका को पहले तरजीह देंगे और अमेरिकी नागरिकों के लिए काम के अवसर उपलब्ध करायेंगे. उनका पहला वादा कभी पूरा नहीं होता है, क्योंकि वाशिंगटन विश्व के एक महान […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सामान्यतः तीन चीजों के बारे में बातें करते हैं- वे वाशिंगटन को बदल देंगे, अमेरिका को पहले तरजीह देंगे और अमेरिकी नागरिकों के लिए काम के अवसर उपलब्ध करायेंगे. उनका पहला वादा कभी पूरा नहीं होता है, क्योंकि वाशिंगटन विश्व के एक महान गणतंत्र की राजधानी है, जो 200 वर्ष पुराना है. यह वह शहर है, जहां से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे शक्तिशाली सैन्य बल को नियंत्रित किया जाता है. यह कोई ऐसा-वैसा शहर नहीं है, जो किसी उद्धारक की बाट जोह रहा है. अगर यहां बदलाव हुआ भी, तो यह बहुत संभव है कि वह इस शहर के बुरे के लिए ही होगा.
जहां तक अमेरिका को पहले स्थान पर रखने की बात है, तो यह एक निरर्थक नारा है, क्योंकि इसका मतलब यह हुआ कि पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों ने अमेरिका को दूसरे या तीसरे स्थान पर रखा है, जो कि उन्होंने नहीं किया है. रिचर्ड निक्सन के विदेश सचिव रहे हेनरी किसिंगर ने कहा है कि सभी विदेश नीतियां वस्तुत: गृह नीतियां होती हैं. उनके कहने का अर्थ यह था कि अमेरिका घरेलू मांग की वजह से विदेशों के युद्ध में शामिल होता है. और इसलिए इस बात की कोई संभावना नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप इस संदर्भ में भी बहुत ज्यादा बदलाव कर पायेंगे. वे दूसरे देशों में युद्धरत अमेरिकी सैन्य बलों को वापस बुला सकते हैं, क्योंकि वे युद्ध नहीं जीते जा सकते हैं. और, ऐसा करनेवाले वे पहले राष्ट्रपति नहीं होंगे.
तीसरा वादा सबसे दिलचस्प है, क्योंकि अक्सर हमें बताया जाता है कि अमेरिकी चुनाव का वास्तविक मुद्दा नौकरी और अर्थव्यवस्था ही है. डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में पड़े मतों का आधार कामकाजी गोरे लोग हैं, जो शारीरिक श्रम करते हैं. हेनरी फोर्ड ने अपनी सस्ती कारों के जरिये ऐसे कामकाजी अमेरिकियों को मध्य वर्ग का हिस्सा बनाने की परंपरा की शुरुआत की थी. जो लोग कारों के कल-पुर्जे जोड़ते थे, वे भी कारें खरीद सकते थे.
तीस वर्ष पूर्व अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान मैं विस्कोंसिन के जेनसविले में रहता था. जोनेसविले में मैं जॉनसन परिवार के साथ रहता था. इस परिवार के मुखिया दशकों से कार के पहिये जोड़ने का काम करते थे. केवल यही एक हुनर था, जिसमें जॉनसन प्रशिक्षित थे. अपने श्रम द्वारा कमाये हुए पैसे से उन्होंने एक अच्छा मकान बनाया था और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी थी. वह संयंत्र 1919 में शुरू हुआ था और उसमें 5,000 से अधिक कर्मचारी काम करते थे. वह संयंत्र 2009 में बंद हो गया, क्योंकि चीन और दक्षिण अमेरिका में कार उत्पादन ज्यादा सस्ता है, क्योंकि वहां कम दाम पर कामगार मिल जाते हैं.
आज चीन और दक्षिण अमेरिका सहित भारत में भी मशीनीकरण और ऑटोमेशन के कारण ऐसी नौकरियां कम होनी शुरू हो गयी हैं, क्योंकि ये तकनीक इतने दक्ष हैं कि इनसे काम लेना सस्ता होता जा रहा है. नतीजतन, ये तकनीक सस्ते श्रम की जगह लेते जा रहे हैं. मैनुफैक्चरिंग वापस अमेरिका का रुख कर रहा है, हालांकि यह श्रम-रहित विनिर्माण है.
अमेरिका में कामकाजी लोगों के पास ऊंचे वेतन का लाभ लेने के लिए काफी मौका है. कुछ हद तक यह बात चीन के संदर्भ में भी सत्य है, जहां प्रति व्यक्ति आय हमारे यहां से पांच गुना ज्यादा है. बेरोजगारी और लोकतांत्रिक नीतियों से जुड़ी समस्याएं मुख्य हैं, जिनका सामना भारत को करना पड़ रहा है. और अभी के दौर में ठीक हमारे सामने यह सब घटित हो रहा है. कुछ दिनों पहले ही यह खबर आयी है कि ऑटोमेशन के कारण इंफोसिस ने अपने 8,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया है. यह असामान्य सूचना थी, क्योंकि बीते दो दशक से भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां बड़ी संख्या में पेशेवराें को नौकरी उपलब्ध करा रही थीं. कंपनियों के अनुसार, अब इस चलन का अंत हो चुका है और उन्होंने अपने कर्मचारियों की संख्या कम करके छोटे, लेकिन ज्यादा कुशल कार्यबल तैयार करना शुरू कर दिया है. और अब ये कंपनियां पहले की तरह बहुत ज्यादा लोगों को नौकरी पर नहीं रखेंगी.
अगर इस समस्या का सामना बड़े शहरों के बड़ी नौकरियोंवाले और शिक्षित लोग कर रहे हैं, तो जरा सोचिये कि छोटे शहरों और गांवों में रहनेवाले लाखों लोगाें को किन हालात से गुजरना पड़ रहा होगा. वे लोग भारी परेशानी में हैं.
यहां हमें पूरे भारत में विभिन्न मुद्दों को लेकर होनेवाले विरोध प्रदर्शनों की प्रकृति को जानने-समझने की जरूरत है, जो मुख्य तौर पर इसी बेचैनी की वजह से उभर रहे हैं- चाहे वह गुजरात का पाटीदार आंदोलन हो, हरियाणा का जाट आंदोलन हो या महाराष्ट्र का मराठा आंदोलन हो, इन सभी आंदोलनों के पीछे प्रमुख मांग सम्मानजनक वेतन वाले काम ही हैं. आज की तारीख में ऐसा होना असंभव ही है और ऐसे रोजगार अब भारत या विश्व के किसी भी देश में बड़े पैमाने पर लोगों को उपलब्ध होनेवाले नहीं हैं.
आर्थिक विकास तब होता है, जब या तो कर्मचारियों की ज्यादा संख्या हो या फिर कार्यकुशलता में सुधार हो और उनके जरिये उत्पादन में वृद्धि हो. भारत की समस्या यह है कि यहां बड़ी संख्या में अकुशल मजदूर हैं, जो अल्पशिक्षित हैं, किसी भी चीज को उत्पादित करने की योग्यता नहीं रखते हैं. मात्र सस्ते श्रम के उपलब्ध होने भर से ही फायदा नहीं हो सकता है, और न ही कोई जादुई नीति या नारा या चिह्न इस स्थित में बदलाव ला सकते हैं.
हमें उन बड़े-बड़े वादे करनेवाले पॉपुलिस्ट नेताओं से सावधान रहना चाहिए, जो इन समस्याओं के आसान हल का भरोसा देते हैं. यह बात भारत के लिए उतनी ही सच है, जितनी कि अमेरिका के लिए. यह दुनिया जटिल है और इसकी अर्थव्यवस्था खास तरीके से विकसित हुई है, जिसे असाधारण प्रतिभाशाली व्यक्ति द्वारा नहीं बदला जा सकता है.
यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रंप का यह वादा कि वह अमरीकियों के लिए नौकरी के अवसर उत्पन्न करेंगे, आखिरकार एक खोखला वादा है.
यहां एक सच यह भी है कि इस खोखले वादे के बावजूद अमेरिका के अगले राष्ट्रपति भी इन वादों को करनेे, इस बात को पूरे-जोर शोर से प्रचारित करने से पीछे नहीं हटेंगे कि वाशिंगटन बदलेगा, अमेरिका प्रथम स्थान पर रहेगा और अमरिकियों के लिए नौकरी के अवसर उपलब्ध होंगे.
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