वैश्विक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) तथा विश्व बाजार पूंजी में भारत की हिस्सेदारी में अंतर का 13 सालों में सर्वाधिक होने की खबर नोटबंदी के असर और बजट की संभावनाओं पर चर्चा के बीच बड़ी चिंता का विषय है. फिलहाल दुनिया की जीडीपी में यह हिस्सेदारी 2.99 फीसदी और बाजार पूंजी में 2.26 फीसदी है. जानकारों के अनुसार, पूंजी में कमी का तात्कालिक कारण नोटबंदी और डॉलर की मजबूती के कारण पूंजी का पलायन है. नोटबंदी से पैदा हुई नकदी की कमी ने उपभोग में उछाल की संभावनाओं को कुंद कर दिया है.
हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि की तेज दर बरकरार है, लेकिन पूंजी बाजार में विकसित और विकासशील बाजारों की तुलना में भारत का प्रदर्शन कमजोर रहा है. अभी नोटबंदी के सीधे परिणामों के बारे में ठोस आंकड़े आने बाकी हैं, लेकिन नवंबर और दिसंबर में मुख्य उद्योगों में गिरावट, बड़े पैमाने पर छंटनी, असंगठित क्षेत्र का लगभग ठप हो जाना, सूचना-तकनीक से संबद्ध कंपनियों की कमाई में तीन फीसदी तक की कमी के आसार जैसी खबरें अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी के अवरुद्ध होने का संकेत देती हैं. वैश्विक और घरेलू कारकों के कारण निर्यात और निवेश के मोर्चे पर पहले से ही अनिश्चितता बनी हुई है. बैंकों द्वारा ब्याज दरों में कुछ कमी से मांग बढ़ने की उम्मीद तो बढ़ी है, पर बैंकों पर नुकसान और फंसे हुए कर्ज का बोझ भी बना हुआ है. नवंबर तक बैंक ऋण में वृद्धि की दर 5.8 फीसदी तक आ गयी है, जो कि 1992 के बाद सबसे कम दर है. तेज विकास दर के बावजूद रोजगार के अवसरों की बढ़ने की दर बीते सात सालों में सबसे निचले स्तर पर है. वर्ष 2015 में महज 1.35 लाख नये रोजगार पैदा हो पाये थे. लगातार दो साल के सूखे के बाद अब कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है, पर किसानों की कमाई में खास बढ़ोतरी नहीं हुई है. इंफ्रास्ट्रक्चर की लंबित परियोजनाओं के कारण उनका लक्षित लाभ समय से नहीं मिल पा रहा है.
जानकारों की मानें, तो 2017 में भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल बनी रह सकती है. यूरोप की मंदी, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का संभावित संरक्षणवाद, तेल की कीमतों में उछाल, मध्य-पूर्व में अशांति, जलवायु परिवर्तन और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से भी आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर पड़ेगा. ऐसे में भारत को आसन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए ठोस तैयारी करने की जरूरत है, ताकि अर्थव्यवस्था का निर्बाध विकास सुनिश्चित किया जा सके.