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धर्म से राजनीति दूर रहे

जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने के चलन को अनुचित ठहरा कर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर याद दिलाने की कोशिश की है कि हमारे राष्ट्र-निर्माताओं की मंशा भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र को धर्मनिरपेक्ष बनाने की थी. इस फैसले में हमारे उन महापुरुषों की आकांक्षा अभिव्यक्त हुई है. जन-प्रतिनिधित्व […]

जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने के चलन को अनुचित ठहरा कर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर याद दिलाने की कोशिश की है कि हमारे राष्ट्र-निर्माताओं की मंशा भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र को धर्मनिरपेक्ष बनाने की थी. इस फैसले में हमारे उन महापुरुषों की आकांक्षा अभिव्यक्त हुई है.
जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में यह प्रावधान पहले से ही है कि चुनाव में कोई उम्मीदवार या उसका कोई एजेंट धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट नहीं मांग सकता है. संविधान की प्रस्तावना भी एक राष्ट्र के रूप में भारत के धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा करती है. प्रस्तावना संविधान के बुनियादी ढांचे में शुमार है और सर्वोच्च न्यायालय 1970 के दशक के मशहूर केशवानंद भारती मामले में कह चुका है कि बुनियादी ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता है. जाति, धर्म, नस्ल, भाषा आदि के नाम पर वोट मांगने को ‘भ्रष्ट आचरण’ करार देकर अदालत ने जन-प्रतिनिधित्व कानून और संविधान की प्रस्तावना में निहित भारतीय राजनीति के मान-मूल्यों की नये सिरे से पुष्टि की है. अदालत के लिए इस फैसले तक पहुंचना आसान नहीं था.
चुनावी राजनीति में धर्म के दुरुपयोग को रोकने के एक मामले की सुनवाई कर रहे सात न्यायाधीशों की खंडपीठ में तीन की राय है कि धर्म और जाति के प्रश्न को चुनावी राजनीति के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि ऐसा करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहलायेगा. दूसरे, सर्वोच्च न्यायालय एक अन्य मामले में ‘हिंदुत्व’ को धर्म की जगह ‘जीवन शैली’ बता चुका है. अदालत के सामने एक चुनौती इस फैसले पर पुनर्विचार की थी. तीसरी बात स्वतंत्र भारत के चुनावी राजनीति के इतिहास से जुड़ती है.
इस देश के मौजूदा स्वरूप को भाषा के आंदोलनों, जाति और धर्म के आंदोलनों ने एक खास ढंग में ढाला है. भाषा और नृजातीय पहचान के आधार पर नये राज्य बनाने के आंदोलन हों या फिर स्वयं को जातिगत गोलबंदियों में व्यक्त करनेवाली सामाजिक सशक्तीकरण की राजनीति. सबने भारतीय लोकतंत्र को नये अनुभव दिये हैं और देश के संघीय ढांचे को पहले से ज्यादा मजबूत बनाया है. ऐसे में लग सकता है कि न्यायालय का यह फैसला सिद्धांत की रक्षा करता है, व्यवहार की नहीं. लेकिन, ऐसा सोचना ठीक नहीं है.
21वीं सदी के भारत में लोकतांत्रिक राजनीति का सबसे प्रभावी मुहावरा तेजतर विकास और इसमें सर्वजन की भागीदारी का है. जाति या धर्म के मोर्चे से चलनेवाली राजनीति ने बड़ी तेजी से इस मुहावरे को अपनाया है. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय देश की लोकतांत्रिक राजनीति के विकासपरक रुझान के अनुकूल और मददगार है.

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