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ग्रीटिंग कार्ड का गुजरा जमाना
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान फिर एक नया साल आ गया और हम-आप इसके साथ कदम ताल करने लगे. शायद यही है जिंदगी, जहां हम उम्मीद वाली धूप में चहकने की ख्वाहिश पाले रखते हैं. उम्मीद पर ही दुनिया कायम है. हम सब बेहतर कल की उम्मीद करते हैं. नये साल में हम सब […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
फिर एक नया साल आ गया और हम-आप इसके साथ कदम ताल करने लगे. शायद यही है जिंदगी, जहां हम उम्मीद वाली धूप में चहकने की ख्वाहिश पाले रखते हैं. उम्मीद पर ही दुनिया कायम है. हम सब बेहतर कल की उम्मीद करते हैं. नये साल में हम सब इन्हीं उम्मीदों को लेकर संदेशों का आदान-प्रदान करते हैं. सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफाॅर्म के जरिये उम्मीद भरी शुभकामनाएं हम सब भेजते रहे, लेकिन इस बीच ग्रीटिंग कार्ड्स को समेटे लिफाफे कहीं खो गये. याद कीजिये उन पुराने दिनों को, जब नये साल में हम डाकिये का इंतजार किया करते थे. लाल-पीले-गुलाबी लिफाफों में डाक टिकट चिपकाये जब वह आता, तो दूर बैठे लोगों की याद ताजा हो जाती थी. स्कूली दिनों में हॉस्टल से घर भेजा करते थे ग्रीटिंग कार्ड्स. उसकी अपनी भाषा हुआ करती थी. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कहने का अलग अंदाज हुआ करता था.
हमारे-आपके घर में आज भी ऐसे कई ग्रीटिंग कार्ड्स होंगे, जिसे हमने नव वर्ष पर प्राप्त किया था. यदि कोई कार्ड आपके पास आज भी सुरक्षित है, तो याद कीजिये उन पुरानी यादों को, उन अनुभवों को, शायद आगे चल कर ये बातें फोटो एलबम की तरह हो जायेंगी. तब आप कहेंगे कि फलां वर्ष में मेरे एक दोस्त ने मुझे यह कार्ड भेजा था.
यह सच है कि इलेक्ट्रॉनिक युग में इमेल, मोबाइल, फेसबुक, व्हाॅट्सएप आदि एक सुविधाजनक साधन बन कर सामने आये हैं, लेकिन इस बीच कागज के पन्नों पर उकेरे शुभकामना संदेशों को भी भूलना ठीक नहीं है. इस बार जब पहली जनवरी की सुबह आपने किसी को शुभकामना संदेश भेजा था, तो वह पलक झपकते ही आपके मित्र तक पहुंच गयी होगी, लेकिन डाक से कार्ड भेजने के लिए आप कम-से-कम पांच दिन पहले उस मित्र, भाई-बहन या अन्य रिश्तेदारों को याद करते थे.
कागज, चिट्ठी, लिफाफा, पोस्टकार्ड, नव वर्ष की मंगलकामना वाले खत और उन पर सुंदर लिखावट से उकेरे गये मोती जैसे शब्द. जब पाती लिखी जाती, तो जतन से सहेजी भी जाती कि कहीं पानी से भीग ना जाये. रोशनाई तैयार की जाती. पहले किरची-कलम के नोक पैने किये जाते, फिर गोटी वाली स्याही को गरम पानी में भिगोया जाता. जब कार्ड लिख लिया जाता, तो किताब के पन्नों के बीच संभाल कर रख लेते, जब तक वह लिफाफा लाल रंग के सरकारी डब्बे में नहीं गुम हो जाता.
इन सबके बावजूद सोशल नेटवर्क पर नये साल के मौके पर जो कुछ लिखा गया, उसे भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. एक से बढ़ कर एक फेसबुक स्टेटस और अलहदा किस्म के ट्वीट किये जाते हैं. मुझे फेसबुक के स्टेटस उम्मीद वाली धूप ही लगती है और इसी बीच हमारे सुशील भाई का एक पुराना स्टेटस याद आ जाता है- ‘साल बदले तो बदले, ईमान न बदले.’
यह सब लिखते हुए अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के पात्र भिम्मल मामा याद आने लगते हैं, जिसे बार-बार दौरा पड़ता है, लेकिन इसके बावजूद उसका ईमान नहीं डोलता है. वहीं बावनदास भी याद आते हैं, जिसने दो ही डग में इंसानियत को नाप लिया था.
खैर, आइये हम सभी 2017 में उम्मीदों के धूप सेकते हैं. अपने मन के खाली डिब्बे को भरते हैं. लेकिन, साथ ही अपने ईमान को भी बचाये रखना है. सोशल मीडिया युग में मुखौटा लगाये हम सबको रेणु का लिखा याद रखना होगा- ‘नये साल में ‘मुखौटा’ उतार कर ताजा हवा फेफड़ों में भरें…’
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