उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
शब्द ‘पोस्ट-ट्रूथ’ को ‘वर्ड आॅफ द इयर’ यानी ‘साल का शब्द’ चुनने का आॉक्सफोर्ड डिक्शनरी का फैसला मुझे बिल्कुल सटीक लगता है. वैसे तो यह शब्द चलन में पहले से था, लेकिन दुनिया की प्रतिष्ठित डिक्शनरी ने धारणा के स्तर पर इसे सन् 2016 में स्थापित किया. ‘पोस्ट-ट्रूथ’ का मतलब उस प्रक्रिया से है, जिसमें वस्तुगत यथार्थ या बुनियादी तथ्य गौण या गैर-महत्वपूर्ण हो जाते हैं और भावनात्मक अपीलें व व्यक्तिगत आस्थाएं किसी जनधारणा को आकार देने में महत्वपूर्ण या सर्वोपरि हो जाती हैं. मुझे लगता है, यह शब्द यूरोप-अमेरिका से भी ज्यादा अपने भारत के लिए प्रासंगिक है. धारणा और प्रकिया के स्तर पर यह हमारे यहां बहुत पहले से मौजूद है. ऐसे ‘उत्तर-सत्यों’ की उम्र हमारे यहां कभी बहुत ज्यादा, तो कभी बहुत कम होती रही है.
हमने कई साल पहले देखा. एक दिन समूचे उत्तर भारत में गणेश जी दूध पीने लगे. सत्य और तथ्य का संधान करनेवाले मीडिया के एक हिस्से ने भी उसे सत्य के रूप में पेश कर दिया.
कुछ ने उसका पर्दाफाश भी किया. बहरहाल, कुछ समय बाद गणेश जी ने दूध पीना बंद कर दिया. अभी हाल का देखें, देश के कुछ बड़े न्यूज चैनलों ने दिखाना शुरू किया कि नोटबंदी के दौर में 2000 रुपये के जो नये नोट जारी हुए हैं, उनमें एक खास तरह का ‘नैनो चिप’ लगा है, जो अपनी उपस्थिति की जानकारी देता रहेगा. इसी वजह से इन दिनों छापे पड़ रहे हैं. एक झूठ को जिस गंभीरतापूर्वक सच के तौर पर प्रचारित-प्रसारित किया गया, वह भारतीय मीडिया इतिहास के कुछ अभूतपूर्व फर्जीवाड़े में एक है.
किसी बाबा या स्वामी के उपक्रम द्वारा तैयार उत्पादों के सौ फीसदी से भी ज्यादा पवित्र और शुद्ध होने की तर्ज पर पिछले कुछ समय से प्रचारित हुआ कि ‘सारे भ्रष्ट लोगों और दलों’ की भीड़ में सिर्फ ‘एक व्यक्ति और एक दल ईमानदार’ है. मिलावटी और खराब गुणवत्ता वाले उत्पादों के निर्माण के लिए अदालत द्वारा आर्थिक दंड लगाने के बावजूद उनके उत्पादों की ‘उच्च स्वदेशी ब्रांड’ की छवि बरकरार है.
लगभग इसी तर्ज पर एक पार्टी, जिसका सन् 2014 के चुनाव में सर्वाधिक चुनावी-खर्च का आधिकारिक रिकाॅर्ड है, उसकी ‘सबसे ईमानदार पार्टी’ की छवि अब तक कायम है. भारत में कालाधन नकदी में सिर्फ छह फीसदी ही है, शेष रियल एस्टेट, सोना-हीरा, हवाला करोबार आदि में है, लेकिन बड़े पैमाने पर हुई नोटबंदी को कालाधन पर निर्णायक अंकुश का जरिया मान लिया गया! एनपीए, गुजरात पेट्रोकेमिकल्स मामला, ललितगेट, व्यापम् और माल्या सब अचानक फुर्र हो गये!
कुछ उदाहरण सामाजिक जीवन से देखें. एक समय प्रचारित हुआ कि एड्स इतना भयानक और तेजी से फैलनेवाला रोग है कि कुछ समय बाद भारत की काफी आबादी इससे तबाह हो जायेगी. इस प्रचार में कुछ देसी-विदेशी एनजीओ और यहां तक कि कुछ सरकारी एजेंसियां भी सक्रिय दिखीं. अब वह तेज प्रचार कुछ थमा है. बेशक, एड्स एक खतरनाक बीमारी है और उससे बचाव के लिए लोगों को जागरूक बनाया जाना चाहिए. लेकिन, भारत जैसे देश में हृदय रोग, मधुमेह, किडनी-लिवर के रोग और कैंसर आदि सबसे भयावह ढंग से बढ़ रहे हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अपनी सरकार के आकड़ें भी इसकी पुष्टि करते हैं. लोगों के बीच स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता सबसे कम है. यही कारण है कि आयी-गयी सभी सरकारों ने जन-स्वास्थ्य के निजीकरण का सिलसिला लगातार बढ़ाया, लेकिन जनता की तरफ से कहीं भी इसका संगठित प्रतिरोध नहीं हुआ.
हाल के दिनों में तीन खास मुद्दों पर राजनीतिक दलबंदी में ‘पोस्ट-ट्रूथ’ का असर साफ देखा जा सकता है.
पहला मुद्दा हैदराबाद के प्रतिभाशाली छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का है. लंबे समय तक इसे उलझाया गया कि रोहित दलित था या पिछड़ा! दूसरा मुद्दा जेएनयू का. बेहद प्रतिभाशाली छात्रों को ‘देशद्रोही’ साबित करने के लिए क्या-क्या नहीं किया गया? कथित देश-विरोधी नारेबाजी के लिए जिन्हें दोषी बताया गया, वे कुछ ‘रहस्यमय नकाब लगाये चेहरे’ थे, जिनका आज तक पता नहीं. लेकिन, गाज गिराई गयी वाम-धारा के छात्रों पर. झूठ सच हो गया और सच गायब!
तीसरा मुद्दा कश्मीर है. हाल के दिनों में यह बात जम कर प्रचारित की गयी कि नोटबंदी के चलते कश्मीर में जन-विद्रोह खत्म हो गया. जबकि, कौन नहीं जानता कि कश्मीर में बर्फीली ठंड के बीच कभी कोई आंदोलन या जनगोलबंदी संभव नहीं होती. इसके अलावा हर छोटे-बड़े आंदोलन की एक उम्र होती है, कोई भी आंदोलन भारी जुल्मोसितम के बीच अनंतकाल तक नहीं चल सकता. अनेकों उदाहरण 2016 में ‘पोस्ट-ट्रूथ’ का भारतीय संदर्भ सामने लाते हैं. ये उस खतरे की तरफ भी इशारा करते हैं, जो सत्य और तथ्य पर किसी जल्लाद की तरह मंडरा रहे हैं.