हमें आजाद हुए करीब 65 वर्ष हो चुके हैं लेकिन हम आज भी गुलाम हैं. हम गुलाम हैं अपनी बुरी आदतों के, हम गुलाम हैं अपने स्वार्थ के, हम गुलाम हैं निरंकुशता के, भ्रष्टाचार के, निंदा, ईष्र्या आदि के. आज भी हम इसका उदाहरण एक योद्धा के रूप में देख सकते हैं जो क्रांतिकारी सोच के साथ देश को बदल देने कि लिए चल पड़ा है. लेकिन सत्ता के लोभियों ने आपसी दुश्मनी भुला कर जैसे उस क्रांतिकारी को मिल कर मिटाने की ठान ली है. बुराई को साफ करने की सोच रखनेवाले को ही साफ करने चल पड़े हैं.
देश की उन्नति और सफलता के लिए हमें अपने स्वार्थ से बाहर निकलना होगा. यहां तो पक्ष-विपक्ष हरदम एक दूसरे की टांग खींचते हैं. जब खुद सत्ता में होते हैं तब वही करते हैं, पर जब दूसरा सत्ता में बैठता है तो उस पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर देश को चलाने में बाधा डालते रहते हैं. अक्सर छोटी-बड़ी जायज-नाजायज मांगों को लेकर शहर, राज्य और देशव्यापी बंद बुला कर देश को अरबों रुपये की हानि कराते हैं. फिर अव्यवस्था व महंगाई के लिए सरकार को दोष देते हैं. कोढ़ में खाज तो यह कि अराजकता की स्थिति में भी पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है और हमारे वकील सच को झूठ बनाने के लिए हमेशा तत्पर.
हमारा देश विकसित नहीं, विकासशील है. इसे आज जहां होना चाहिए, यह वहां नहीं है. इसकी जिम्मेदार केवल सरकार नहीं, हम सब हैं. कई बार हम अपने कामों में ढिलाई करते हैं अपने फर्ज से बेईमानी करते हैं. अशिक्षा से बेरोजगारी और गरीबी को बढ़ावा मिलता है. योजनाएं कई हैं, पर कागजों से बाहर नहीं निकलतीं. और, लिंगभेद, जातीयता, क्षेत्रीयता जैसी कुप्रथाएं तो हैं ही, क्योंकि हम उन्हें छोड़ना ही नहीं चाहते. इनसे हम कब आजाद होंगे?
शांता राय, रांची