मिहिर भोले
सीनियर फैकल्टी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन
पाकिस्तान को लेकर देश इन दिनों एक हैरानगी के दौर से गुजर रहा है. एक ओर उसकी हरकतों पर हम कोई त्वरित कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी ओर देश महसूस कर रहा है कि हम सिर्फ विचार-विमर्श में वक्त जाया कर रहे हैं. नतीजा इस बार भी सिफर ही होगा.
कुछ रक्षा विशेषज्ञों की नजर में यह ‘पैरालिसिस बाय एनालिसिस’ यानी विश्लेषण से उपजा लकवा है. तनाव तो भरपूर है, पर लगता है हम अभी तक पूरी तरह तैयार नहीं हैं. या शायद अभी लड़ने-भिड़ने के मूड में नहीं हैं. और हों भी क्यों? भाई आखिर हम तो सोचने-समझनेवाली कौम हैं, अपने पड़ोसी की तरह जाहिल थोड़े ही हैं.
फारसी का एक शेर है : ‘जवाबे जाहिलां बासद खामोशी। दर-कलामे, बा-कलामे पांवपोशी।।’ इसका शाब्दिक अर्थ है कि जाहिलों की बकवास का जवाब खामोशी है, लेकिन हर बकवास पर उनकी पांवपोशी की जानी चाहिए. लब्बो-लुवाब यह कि जाहिलों की बातों को बेशक खामोशी से सुनिये, पर उनकी हर बकवास का जवाब कठोरता से दीजिये. अब इसे हम अपनी दुर्बलता मानें या समझदारी कि सरहद पार बैठे जाहिलों की बातों और हरकतों का जवाब हम अब तक खामोशी से ही दे रहे हैं!
जाहिल दहशतगर्दों की एक बड़ी जमात सरहद के उस पार बैठी है, जो हमें सताती भी है और एटमी खतरा दिखा कर धमकाती भी है. अब एटमी बम को दिवाली का पटाका समझनेवाले कूढ़-मगज जमात को ‘जाहिल’ नहीं तो और क्या कहें, जो एटमी आतिशबाजी का नजारा देखने को बेचैन हैं. उनकी इस हसरत पर ‘इंशाल्लाह’ भी तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अगर गलती से अल्लाह ने यह हसरत कबूल कर ली, तो यह नजारा देखने को वे क्या बच भी पायेंगे? हम तो खैर उनकी आनेवाली नस्लों के लिए भी फिक्रमंद हैं.
वे समझ नहीं पा रहे हैं कि इस कयामतखेज सोच से न तो उन्हें कश्मीर हासिल होगा और न ही जन्नत की हूरें. अगर कुछ हासिल हुआ भी तो, वह होगा कम-से-कम अगले दो सौ साल की न्यूक्लियर वीरानगी; एक बियाबां जिसमें इनसान तो दूर, एक दूब भी नहीं पनपेगी. इस जेहादी पागलपन का पाकिस्तान के ही लेखक हुसैन हक्कानी ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया वर्सेस पाकिस्तान’ में जो जिक्र किया है, उसे समझना बहुत जरूरी है. विशेषकर उन लोगों के लिए, जो इस खतरनाक छद्म-युद्ध के माहौल में शांति के कबूतर उड़ाने की फिराक में लगे रहते हैं. क्या यह मुमकिन है कि संगदिल जेहादी दहशतगर्द और उनके हुक्मरान आका पिघल जायें?
हक्कानी ने पुस्तक में अमेरिकी पत्रकार पीटर लैंड्समैन और एक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर अमानुल्लाह की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के घर पर हुई एक मुलाकात का जिक्र किया है.
हक्कानी लिखते हैं कि वहां लैंड्समैन ने जिन्ना की एक पेंटिंग देखी, जिसमें वे इसलामाबाद शहर के बाहर एक खाली इलाके की ओर जाते हुए एक राकेट की तरफ इशारा कर रहे थे. जब लैंड्समैन ने ब्रिगेडियर से उसका मतलब पूछा, तो ब्रिगेडियर ने बताया कि एक पाकिस्तानी परमाणु मिसाइल द्वारा भारत पर हमले को दर्शाया गया है. जब लैंड्समैन ने इसके विध्वंसकारी परिणाम की तरफ इशारा किया, तो ब्रिगेडियर ने कहा : ‘ऐसा होना ही चाहिए. हमें भारत के खिलाफ परमाणु बम जरूर इस्तेमाल करना चाहिए.’ ब्रिगेडियर चाहते थे कि पाकिस्तान परमाणु बम गिरा कर दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई जैसे शहरों को बरबाद कर दे.
भले ही जवाबी कार्रवाई में भारत भी लाहौर, कराची को तबाह कर दे. ब्रिगेडियर की नजर में पाकिस्तान की गरीबी और बदहाली का सबब भारत ही है. सवाल है कि परमाणु विध्वंस के बाद जब सब कुछ समाप्त हो ही जायेगा, तो यह सबक कौन सीखेगा और किससे?
उत्तरी कोरिया के साथ पाकिस्तान भी एटमी हथियारों के ‘नो फर्स्ट यूज’ की मर्यादा को मानने से इनकार करता है. वहीं भारत की न्यूक्लिअर डॉक्ट्रिन ग्लोबल ‘नॉन-प्रोलिफेरेशन’ पर आधारित है, जिसके अनुसार, किसी के पास व्यापक जनसंहार का हथियार रखने का अधिकार नहीं होना चाहिए या फिर यह अधिकार सबके पास होना चाहिए, ताकि स्थिति संतुलन में रहे.
दूसरी ओर, पाकिस्तान का पूरा परमाणु कार्यक्रम भारत-लक्षित है. इस खतरे का आभास आप भी कर लें. युद्ध अभी हुआ नहीं है और शायद हो भी नहीं. लेकिन, बार-बार पाक जेहादियों, सियासतदानों और फौजी हुक्मरानों द्वारा एटमी जंग की बात छेड़ना क्या दिखलाता है- उनकी हताशा या खतरनाक इरादे? क्या ऐसे में हमें भी अपने ‘नो फर्स्ट यूज’ यानी पहला प्रयोग नहीं की नीति पर विचार नहीं करना चाहिए? हमारी लड़ाई एक ऐसे देश के साथ है, जिसे अब तक मुल्ला, आर्मी और अमेरिका चला रहे थे. अब उसमें चीन भी शामिल हो गया है.
पाक रक्षा विश्लेषक आयशा सिद्दीका के अनुसार, ‘चीन, सीओएएस और कश्मीर’ अब पाक की नयी रणनीति का हिस्सा हैं. सब जानते हैं- युद्ध कोई विकल्प नहीं होता, लेकिन जब कोई विकल्प नहीं होता, तभी युद्ध होता है. जंग की फिजा में शांति के कबूतर उड़ानेवाले इस सच को भी समझ लें, तो अच्छा हो.