अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीन लेगार्द ने एक अहम भाषण में दुनिया में तेजी से बढ़ रही आर्थिक असमानता को रेखांकित किया है. जिन देशों में यह प्रवृत्ति सबसे खतरनाक है, उनमें भारत भी शामिल है. लेगार्द के मुताबिक बीते 15 सालों में भारत में अरबपतियों की संपत्ति बारह गुना बढ़ी है और यह देश की गरीबी को दो बार मिटाने के लिए पर्याप्त है. ध्यान रहे, 2010 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया के एक-तिहाई गरीब हमारे देश में ही हैं.
देश की कुल आबादी का 32.7 प्रतिशत सवा डॉलर प्रतिदिन आय की अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे और 68.7 प्रतिशत दो डॉलर प्रतिदिन आय से कम पर जीने के लिए अभिशप्त है. अपने देश के हालात पर कभी दुष्यंत ने कहा था, ‘कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए, कहां चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए.’ चार दशक बाद भी यह गैर-बराबरी यदि बढ़ती ही जा रही है, तो इसकी सबसे बड़ी वजह हमारी आर्थिक नीतियां हैं. गरीबी हटाने, रोजगार बढ़ाने और औद्योगिक विकास के नाम पर लागू की गयी नीतियां असल में उद्योगपतियों के हितों को साधती रही हैं.
इन नीतियों ने संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है. शहरीकरण की आपाधापी ने लोगों को रोजगार की तलाश में गांवों से पलायन के लिए मजबूर किया है, जिससे खेती और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था के विकास की संभावनाओं को जबरदस्त नुकसान हुआ. दूसरी ओर अवसरों की असमानता से शहरी गरीबी में भी इजाफा हुआ है. इस दौरान केंद्र में बनी सरकारों- चाहे वे किसी भी गंठबंधन की रही हों- ने इन्हीं आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया है.
अब जबकि यह आईने की तरह साफ है कि गरीबी, बेरोजगारी, असमानता और भ्रष्टाचार पर भ्रमित करनेवाली नीतियों/ योजनाओं या राजनीतिक लफ्फाजियों के जरिये लगाम नहीं लगाया जा सकता, जरूरत इस बात की है कि इन नीतियों की खामियों व असफलताओं का ईमानदार आकलन हो तथा देश की जमीनी हकीकत को ध्यान में रख कर वैकल्पिक आर्थिक नीतियां लागू की जायें, जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के विकास को सुनिश्चित कर सकें. असमानता को कम करनेवाले आर्थिक विकास के बिना देश का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास भी संभव नहीं है.