‘पंच न किसी के दोस्त होते हैं, न दुश्मन. पंच के दिल में खुदा बसता है. पंचों के मुंह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है.’ मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ की ये पंक्तियां बताती हैं कि भारतीय समाज में पंचों का स्थान कितना सम्माननीय रहा है. लेकिन पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में एक गांव की सामुदायिक पंचायत ने इस ईश्वरीय सत्ता का इस्तेमाल कर जिस तरह की हैवानियत भरी सजा मुकर्रर की, उसे सुन कर मानवता शर्मसार है.
अपने समुदाय से बाहर के लड़के से प्रेम करने की ‘दोषी’ एक 20 वर्षीय आदिवासी लड़की के साथ पंचायत के तालिबानी फरमान पर मुखिया और उसके एक दर्जन समर्थकों ने सबके सामने सामूहिक बलात्कार किया. यह सही है कि राज्यव्यापी जनाक्रोश के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीरभूम जिले के पुलिस प्रमुख को बदल दिया है और पुलिस ने सभी 13 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है, जिन्हें छह फरवरी तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है.
लेकिन, जिस तरह से पूरा गांव पंचायत के फरमान को सही ठहरा रहा है, बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार और प्रशासन दोषियों को कड़ी सजा और पीड़िता को न्याय दिलाने की ईमानदार पहल कर पायेगा? यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि इसी इलाके में 2010 में एक किशोरी को अपने समुदाय से बाहर संबंध रखने पर चार गांवों में नंगा घुमाया गया था. घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश उभरा था, लेकिन आरोपी कुछ समय बाद जमानत पर रिहा हो गये. दरअसल, राज्य के आदिवासी बहुल इलाकों में सामुदायिक पंचायत की परंपरा पुरानी है.
बिजली और स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर ऐसे गांवों में आदिवासियों के मामले में हस्तक्षेप करने से प्रशासन बचता रहा है और लोगों को अपनी शर्तो पर जीने के लिए छोड़ दिया गया है. पश्चिम बंगाल का यह बीरभूम जिला कभी ‘बाउल’ गीत और समृद्ध लोकशिल्प के लिए जाना जाता था, लेकिन हाल के वर्षो में ऐसी नकारात्मक खबरों के बीच उसकी असली पहचान कहीं खो गयी है. इसलिए सवाल यह भी है कि क्या इस घटना के बाद ममता सरकार बीरभूम को उसकी पहचान वापस दिलाने और आदिवासियों के गांवों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करेगी?