झारखंड में लोकायुक्त बेहद कमजोर है. गठन के नौ साल बाद भी अगर यह संस्था इतनी कमजोर है कि जांच एजेंसियां भी इसकी बात नहीं सुनतीं, तो यह बेहद शर्मनाक है. यही वजह है कि राज्य में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में मुश्किल पेश आ रही है. बार-बार प्रशासन को दुरुस्त करने की तो बात तो होती है, पर यह समझ में नहीं आता कि आखिर राज्य सरकार की लोकायुक्त को सशक्त बनाने के प्रति कोई दिलचस्पी क्यों नहीं दिख रही है.
झारखंड लोकायुक्त को अन्य राज्यों की तरह कारगर बनाने के लिए कई बार सरकार को पत्र लिखा गया. पत्र में अधिनियम में संशोधन कर लोकायुक्त के अधीन एक जांच एजेंसी की मांग की गयी थी, ताकि बिना विलंब के निष्पक्ष जांच करायी जा सके, लेकिन इस दिशा में सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की गयी. झारखंड लोकायुक्त अधिनियम के तहत दोषियों पर कार्रवाई करने का कोई अधिकार उसे नहीं दिया गया है. लोकायुक्त को सरकारी जांच एजेंसियों पर जांच के लिए निर्भर रहना पड़ रहा है. अधिकार नहीं होने के कारण यह संस्था केवल नाम की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी रह गयी है.
लोकायुक्त को जांच एजेंसियों (निगरानी, सीआइडी और पुलिस) पर निर्भर रहना पड़ता है जो पहले से ही काम के बोझ तले दबी हैं. इतना कमजोर लोकायुक्त भला किस काम का? मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के लिए यह सही वक्त है कि वे लोकायुक्त को और अधिक सशक्त बनायें, ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके. दूसरे राज्यों के मुकाबले झारखंड में भ्रष्टाचार के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई की गति धीमी होने की एक वजह यह भी है. एक आंकड़े के अनुसार प्रति वर्ष लोकायुक्त के पास 800 से अधिक मामले आते हैं. इसे देखते हुए यह बात तो साबित होती है कि लोगों का सरकारी संस्थाओं के प्रति विश्वास अभी बरकरार है.
पर इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि अगर सरकारी संस्थाएं ईमानदारी से काम नहीं करेंगी तो फिर यह विश्वास अधिक दिनों तक बरकरार रह नहीं पायेगा. अगले लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार एक अहम मुद्दा होगा. अब देखना यह है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मुद्दे को लेकर कितने गंभीर हैं? उन्हें मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से सीखना चाहिए जहां लोकायुक्त ने बड़े-बड़े भ्रष्टाचारियों को पकड़ कर जेल पहुंचाया है.