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बस, एक मिसाल है अलौली का मामला

जन प्रतिनिधियों के आचरण पर सवाल पहले भी उठते रहे हैं. ताजा मामला है अलौली के विधायक द्वारा सामुदायिक भवन पर कब्जे का. आम जनता के माल पर गुलर्छे उड़ाने की घटनाओं के सिलसिले का न तो यह आरंभ है और ना ही अंत. हाल में ही ऐसी और कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं, […]

जन प्रतिनिधियों के आचरण पर सवाल पहले भी उठते रहे हैं. ताजा मामला है अलौली के विधायक द्वारा सामुदायिक भवन पर कब्जे का. आम जनता के माल पर गुलर्छे उड़ाने की घटनाओं के सिलसिले का न तो यह आरंभ है और ना ही अंत. हाल में ही ऐसी और कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि कैसे जनप्रतिनिधि बिना मेहनत के धन की हवस मिटाने के लिए जनता के माल को अपनी निजी संपत्ति मान कर उस पर काबिज हो जाते हैं.

दरअसल, ऐसे मामलों को व्यक्ति विशेष से जोड़ कर देखने से इनकी गंभीरता को ठीक से नहीं समझा जा सकता. अलौली में वहां के विधायक ने सामुदायिक भवन पर काबिज होने के लिए जो कुछ किया होगा, उसकी गंभीरता को समझने के लिए सिस्टम पर पैनी नजर डालनी होगी. अलौली की बहादुरपुर पंचायत स्थित सोनिहार गांव के जिस सामुदायिक भवन पर सवाल उठा है, उसे सांसद के फंड से बनवाया गया. निश्चित तौर पर सामुदायिक भवन की जानकारी बहादुरपुर के अन्य स्थानीय जन प्रतिनिधियों को भी रही होगी.

पर, कमाल देखिए. जनता के पैसे से बने इस भवन के उपयोग को लेकर विधायक को तो कोई चिंता थी ही नहीं, सांसद महोदय भी बेफिक्र रहे. स्थानीय जन प्रतिनिधि भी आंखें बंद किये रहे. पर, क्यों? वजह? अब तक इस देश-समाज में जो कुछ होता रहा है, दिखता रहा है, उससे स्पष्ट है कि माल अगर जनता का हो, तो चिंता भी वही करे. जन प्रतिनिधि तो अपना काम कर ही रहे हैं. कोई जनता की जमीन पर काबिज हो रहा है, तो कोई मकान पर. यह तो अपने राजनीतिक सिस्टम की एक झलक मात्र है. जहां तक प्रशासनिक तंत्र का सवाल है, तो उसके बखान के लिए भी ‘सात समंद की मसि करौं, लेखन सब बनराई’ जैसी स्थिति ही जरूरी होगी.

सोचने की बात है कि उपरोक्त सामुदायिक भवन के लिए प्रस्ताव से लेकर निर्माण कार्य तक में जिन प्रशासनिक अधिकारियों की भागीदारी रही होगी, क्या उनमें से किसी को पता नहीं चला कि जनता के पैसे से जो निर्माण कार्य हुआ, उसका उपयोग क्या हो रहा है? ऐसा क्यों हो रहा है? पर, माल तो जनता का है न? उन्हें क्या मतलब? यह तो बस एक मिसाल भर है. बेहतरी के इरादे से नेता व अफसर ध्यान दें, तो चप्पे-चप्पे पर ऐसे मामले मिल जायेंगे.

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