।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
दिल्ली में आप की सरकार बन रही है. पहले आपकी थी, पर इस बार आप की है. आपकी और आप की में फर्क है एक स्पेस का. एक खाली जगह, जिसे आम आदमी पार्टी ने भर दिया. जबसे आम आदमी राजनीति करने लगा, राजनीति में एक खास बात आ गयी है. एक प्रकार के विश्लेषक बताते हैं भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया इसलिए जीते, दूसरे किस्म के विश्लेषक कहते हैं कि बिजली-पानी-रोजगार के मुद्दे पर जीते हैं. दोनों को है खुशफहमी, दोनों ही हैं गुम. सच तो ये है कि दिल के जीते जीत है. मुद्दों से प्रचार होता है. वोट तो दिल का मामला है.
जब से नुक्कड़ सभाएं रैलियों में तब्दील हुई, रैलियां रैला बन गयीं. लाउडस्पीकर शोर लाया, इंटरनेट व एसएमएस नयी क्रांति लाये. साथ में ये भ्रांति लाये कि लोगों तक पहुंचने के रास्ते बहुत हैं. सब एक गणित का खेल हो गया. नेता कैलकुलेशन करने लगे कि हम किस माध्यम से कितने लोगों को कवर कर चुके हैं. कहीं जाति का, कहीं धर्म का, कहीं झुग्गी का, कहीं बंगले का. आदमी टारगेट ऑडिएंस हो गया. बस यहीं सब नॉनसेंस हो गया. जब कौन कितनी बड़ी रैली कर सकता है, इसका कम्पीटीशन चल रहा था, तब आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार दरवाजे खटखटा रहा था. जब रैली के रंगबाज मंच से हाथ हिला रहे थे, अरविंद केजरीवाल लोगों से हाथ मिला रहे थे. दो दिल मिल रहे थे, मगर चुपके चुपके. नतीजे ने परदा उठा दिया. आम आदमी को बिठा दिया.
वोट किसको दें, ये बड़ा फैसला है. बड़े इन्वेस्टमेंट करने जैसा, बड़ी इंडस्ट्री लगाने जैसा, कुछ नया कर दिखाने जैसा, जिंदगी बदल देनेवाला फैसला. लोग ये समझते हैं कि बड़े फैसले लेना बहुत समझदारी की बात है. उसमें दिमाग लगाना पड़ता है. नफा-नुकसान तौलना पड़ता है. आगे की सोचना पड़ता है. हकीकत अलग है, दिमाग लगाना दिखावा है. मनुष्य भावनात्मक प्राणी है. जब मामला बड़ा हो तो पासवान-ए-अक्ल फेल हो जाता है. मनुष्य जीवन के बड़े फैसले दिल से करता है. बताना-बतियाना, कानों में फुसफुसाना, कह कर छूना, छू कर कहना दिल तक जाता है. आम आदमी पार्टी के लोग घर-घर गये, दर-दर गये, कुछ अपनी कही, कुछ उनकी सुनी. इतने करीब से जब कोई तुम कहता है, तो आप से ज्यादा अपना लगता है. दूर से कोई आप भी पुकारे तो क्या लगता हैं. कुछ बता गये, कुछ छुपा गये. आप ने लोगों से पूछा कि दर्द कहां होता है. इक जगह हो तो बताये कि यहां होता है. फिर भी गरीब आदमी कुप्पा था कि उसे ट्रकों में भर कर रैली ग्राउंड तक ले नहीं जा रहे. खुद आ रहे हैं. मिजाज पूछ रहे हैं. इतने में ही खुश. चाहे कितनी तकलीफ हो, अगर मुस्कुराकर पूछो तो जवाब में ‘अच्छा हूं’ ही आता है, मुस्कराहट के साथ. दुआएं दीजिये बीमार के तबस्सुम को, मिजाज पूछने वाले की आबरू रख ली!
केजरीवाल शपथ लेने जाएंगे मेट्रो रेल में. सुरक्षा का घेरा नहीं होगा. फ्लैट में रहेंगे तो चारदीवारी और लंबी लॉन की दूरियां नहीं होंगी. वह लोगों से बोल पाएंगे, बतिया पाएंगे, छू पाएंगे और मिल पाएंगे. मुख्यमंत्री बन जाने के बाद कुछ बदलेगा, सुरक्षा शायद मजबूरी बन जाये. पर दूरी कभी मजबूरी नहीं होती. फासले की चाहत होती है तभी स्पेस घर बनाता है रिश्तों में. जब तक केजरीवाल गुरबत से कुरबत बनाये रखेंगे, अमीर-ए-शहर होंगे. नये कद का मद हद के अंदर रहेगा तो दिल्ली ही नहीं पूरा देश दुआ करेगा कि ये बीमारी संक्रमणकारी हो जाये.
बात निकली है तो बेहतर है दूर तलक जाये. दिल्ली से कन्याकुमारी तक, जामनगर से ईटानगर तक. नेताओं को इतना तो करना ही चाहिए कि अहंकार के केंचुल छोड़ दें. अभी कर्नाटक के कुछ विधायकगण विदेश-भ्रमण पर निकलनेवाले थे, आम लोगों के गुस्से ने उनकी योजनाओं पर पानी फेर दिया. पानी कमर तक था तो ‘अमर रहे’ के नारे बहुत लगे, अब जल स्तर नाक तक आ गया है, तो अच्छा है नेताजी अपनी नहीं कटाएं. अब मामला पीछे रह जाने का, विकसित और पिछड़े राज्य का, गबरू और बीमारू का नहीं रहा. अब बात सम्मान पर आयी है. ये दिल का मामला है, कुछ तो करो सजन. तौबा कर लो. क्योंकि तौबा पर माफी का प्रावधान है. जो अकड़ते हैं, उनके लिए अलग प्रावधान है.
जब सरकारें उपलब्धियां गिनाती हैं, तो हम इस गणित पर सिर्फ सिर हिलाते हैं. सड़कें, विकास दर और सॉफ्टवेअर क्रांति आदि के बारे में गंभीरता से सोचते हैं. सारे आंकड़ों पर कड़ी नजर डालते हैं. पर फैसला लेने के व़क्त इन्हें किनारे कर देते हैं, दिल की कही सुनते हैं. इसमें कभी नफा है, कभी नुकसान भी है. फिर भी बड़े फैसले दिमाग से नहीं लिये जाते. यह मनुष्य की प्रकृति में है. ये नहीं बदलेगा. और नेताओं को निशाना वहीं लगाना चाहिए. और लग जाये तो लगे रहना चाहिए.