।। एमजे अकबर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
राजनीति को ठीक से समझने के लिए सतह के भीतर झांकना जरूरी होता है. स्पष्ट नजर आनेवाले तथ्यों के साथ धारणाओं का मिलान करके देखिए. तसवीर पूरी तरह बदल जायेगी. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में 28 सीटें जीत कर अपनी राजनीतिक पारी का आगाज जिस तरह से किया है, वह स्वप्न-कथा जैसा है. लेकिन, उस समय के बारे में सोचिए, जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ था.
धारणा और तथ्यों के बीच की जंग में अकसर धारणा की विजय होती देखी गयी है. मसलन, परंपरागत सोच यह कहती है कि पार्टी के भीतर एकता जीत का स्वाद चखाती है. लेकिन, यथार्थ यह है कि जीत की सुगंध एकता का उत्प्रेरक बनती है. जब चुनाव प्रचार के दौरान भीड़ कम होने लगती है, तब नेतागण आपस में हाथापाई करते हैं और एक-दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ने की कोशिश करते हैं. परिणाम के बाद तनाव संक्रामक हो जाता है. उदाहरण के लिए दिग्विजय सिंह पर कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता के जोरदार हमले को देखिए.
अगर बहानेबाजी की बात हो, तो राजस्थान कांग्रेस के उस नेता को सबसे ज्यादा अंक मिलने चाहिए, जिन्होंने हार के लिए चुनाव आयोग को मत प्रतिशत को बढ़ावा देने के कारण कसूरवार ठहराया. यानी अगर लोगों ने वोट नहीं किया होता, तो कांग्रेस सत्ता में बनी रहती. बिल्कुल ठीक बात. राजनीति को ठीक से समझने के लिए सतह के भीतर झांकना जरूरी होता है. स्पष्ट नजर आनेवाले तथ्यों के साथ धारणाओं का मिलान करके देखिए. तसवीर पूरी तरह बदल जायेगी. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में 28 सीटें जीत कर अपनी राजनीतिक पारी का आगाज जिस तरह से किया है, वह स्वप्न-कथा जैसा है. लेकिन, उस समय के बारे में सोचिए, जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ था.
केजरीवाल ने अपने सहयोगी योगेंद्र यादव द्वारा कराये गये चुनाव सर्वेक्षण के परिणामों को खूब उछाला था. इसमें केजरीवाल की पार्टी के 47 सीटों पर विजयी रहने की भविष्यवाणी की गयी थी. केजरीवाल लोगों के सामने शपथ ग्रहण समारोह के बारे में बात किया करते थे. उनका संदेश साफ था. वे सरकार बनाने और शासन चलाने के खेल में शामिल हैं, न कि सिर्फ उत्तेजना पैदा करने के. और मतदाताओं ने भी उन्हें गंभीरतापूर्वक लिया. क्या वे जनमत सर्वेक्षण केजरीवाल के दिमाग की उपज थे? नहीं. केजरीवाल एक सम्मानित व्यक्ति हैं और योगेंद्र यादव उनसे भी ज्यादा सम्माननीय. जनमत सर्वेक्षण के व्यापार में उनकी साख साबित है. यादव ने मनगढ़ंत दावे नहीं किये. इस हिसाब से देखें, तो जिस दिन चुनाव प्रचार शुरू हुआ था और मतदान के दिन के बीच केजरीवाल के समर्थन में 19 सीटों की कमी आयी. परेशानियों से जूझ रही भाजपा उठ खड़ी हुई और पहले स्थान पर पहुंचने में कामयाब हुई. भले ही वह राहत की जगह तक न पहुंच पायी हो. तो क्या केजरीवाल एक आसानी से जीत रहा चुनाव हार गये? यह सवाल चुनाव परिणामों के बाद के उठे ज्वार में खो गया लगता है.
भाजपा और केजरीवाल दोनों ही दोबारा चुनाव के लिए अपना-अपना वृत्तांत गढ़ रहे हैं. लेकिन शासन न करने का केजरीवाल का फैसला उन्हें कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचायेगा, क्योंकि वे कहीं बड़ी आशा का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे आश्वस्तिकारक ढंग से यह तर्क नहीं दे सकते कि विधानसभा में उनके पास सरकार बनाने लायक समर्थन नहीं था. कांग्रेस ने उन्हें बिना शर्त समर्थन दिया है और भाजपा कहीं से भी उनकी पीठ में छुरा घोंपने की स्थिति में नहीं है. लेकिन, मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें मुफ्त बिजली, सस्ते पानी, वहनीय आवास और बेहतर सुरक्षा सुनिश्चित करनी पड़ेगी, जिनका वादा करना तो आसान है, पूरा करना कठिन.दिल्ली से सामने आ रही एक बेहद अहम राष्ट्रीय कहानी, मुसलिमों की कांग्रेस से लगातार बढ़ रही दूरी है. राजधानी में मुसलमान वोटों का एक बड़ा हिस्सा आम आदमी पार्टी के खाते में गया.
मध्य प्रदेश और राजस्थान में मुसलमानों ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए भाजपा को वोट दिया. हालांकि, यह संख्या बहुत बड़ी नहीं है. लेकिन ऐसा हुआ, यही अपने आप में उल्लेखनीय है. भाजपा की संभावित जीत को प्रचंड जीत में बदलने में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है. मुसलमानों ने अनुभव को तरजीह दी. उनके कारण तार्किक थे, भावुक नहीं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कन्यादान या लाडली लक्ष्मी जैसी अपनी बहुचर्चित योजनाओं में मुसलमानों के साथ किसी किस्म का भेदभाव नहीं किया. वे अपने कुशल प्रशासन से दंगों को रोकने में कामयाब रहे. राजस्थान के मुसलमान वसुंधरा राजे से परिचित हैं और उनकी नजरों में वे अन्याय करनेवाली नहीं हैं. इन परिणामों से निकल कर आनेवाला संदेश स्पष्ट और आसान है. मुसलिम समुदाय रेवड़ियों से ऊब गया है. उन्हें समानता की ख्वाहिश है. वे दोहरे रवैये से आजिज आ चुके हैं.
भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के बावजूद यह बदलाव कैसे आया? बदलाव, बदलाव को बुलावा देता है. हालांकि, हर बार इसका अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं होता है. अगर इस बदलाव की शुरुआत के क्षण को पकड़ना हो, तो संभवत: यह पटना में आया. हर राजनेता एक महत्वपूर्ण भाषण की तैयारी करता है. लेकिन, कोई भी आपातकालीन क्षण के लिए इसकी तैयारी नहीं कर सकता. पटना के गांधी मैदान में नरेंद्र मोदी के भाषण के बीच में हुआ बम धमाका, उनका एसिड टेस्ट था. वे दबाव में उन्मादी हो सकते थे. लेकिन, इसके उलट उन्होंने अपनी सर्वोत्तम पंक्तियां कहीं. उन्होंने कहा, गरीब हिंदू के पास एक विकल्प है. वे या तो गरीबी से लड़ सकते हैं, या मुसलमानों से. उन्होंने आगे जोड़ा, गरीब मुसलमान या तो गरीबी से लड़ सकते हैं या हिंदुओं से. इसने एक राष्ट्र के मिजाज को व्यक्त कर दिया. इसने उन मुसलमानों को भी शांत करने का काम किया, जो अपने सुने गये पर यकीन नहीं करना चाहते थे.
इसी के समानांतर, कुछ मुसलिम नेताओं ने भय की उस राजनीति के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया है, जो वोटिंग के दिन मुसलमानों के एक झुंड में, एक दिशा में चलने का आधार बनती रही है. देवबंद के मौलाना महमूद मदनी, जो कि एक प्रमुख सुन्नी नेता हैं, ने मोदी के जयपुर दौरे का स्वागत तो नहीं किया, लेकिन उन्होंने कांग्रेस को मुसलमानों को डराने की अपनी रणनीति से बाज आने को जरूर कहा. शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद चुनाव के दिन लखनऊ से दिल्ली आये और उन्होंने मुसलमानों को यह सलाह दी कि उन्हें न ही कांग्रेस, न भाजपा को वोट देना चाहिए.
साधारण आंकड़े तथ्यों की जटिलता को हमेशा बयान नहीं कर पाते. आंकड़ों से कारण का पता नहीं चलता. जब हर भारतीय गुस्से में हो, तो भारत उबलता है. हमने इसकी एक झलक, 2013 में देखी है. हम इस गुस्से का पूरा चेहरा 2014 में देखेंगे.