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जलवायु परिवर्तन पर समझौते का अर्थ

इस साल सितंबर में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने अपनी एक रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला था कि अगर वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सजर्न वर्तमान दर से जारी रहे, तो अगले दो-तीन दशकों में दुनिया का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा. यह स्थिति प्रलय से कम खतरनाक नहीं होगी. […]

इस साल सितंबर में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने अपनी एक रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला था कि अगर वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सजर्न वर्तमान दर से जारी रहे, तो अगले दो-तीन दशकों में दुनिया का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा. यह स्थिति प्रलय से कम खतरनाक नहीं होगी.

एक राहत देनेवाली बात है कि जलवायु परिवर्तन पर पोलैंड की राजनधानी वॉरसॉ में हुई बैठक के बाद दुनिया के पास कहने को कम से कम भविष्य के जलवायु समझौते का एक कच्च ही सही, लेकिन नक्शा है. जलवायु वार्ता की पिछली असफलताओं को देखते हुए इसे एक बड़ी कामयाबी माना जा सकता है कि वॉरसॉ में 195 देशों के वार्ताकार 2015 की पेरिस बैठक तक क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेनेवाले नये समझौते को अंतिम रूप देने पर सहमत हो गये. लेकिन, इन आश्वस्तकारी शब्दों के परे वॉरसॉ के नतीजों में खुशी मनाने लायक ज्यादा कुछ नहीं है.

भारत और चीन जैसे विकासशील देश लंबे समय से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सजर्न कम करने को लेकर किसी बाध्यकारी सीमा का विरोध करते रहे हैं. यह जलवायु वार्ता के आगे न बढ़ पाने का एक बड़ा कारण रहा है. विकासशील देशों का यह तर्क वाजिब है कि जब भूमंडलीय तापन (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? इस गतिरोध को दूर करने के लिए वॉरसॉ सहमति के अंतिम मसौदे में ‘अनिवार्य कटौती’ की जगह, ‘देश की इच्छा से योगदान’ शब्द को शामिल किया गया है.

वास्तव में इस सहमति में विवादास्पद मसलों को सुलझाने की जगह, उनकी जगह स्वीकार्य शब्दों के इस्तेमाल या उन मसलों को छोड़ने का रास्ता अपनाया गया है. 2013 से 2019 तक जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए विकसित देशों द्वारा दी जानेवाली वित्तीय मदद का कोई लक्ष्य न निर्धारित करना, इसका एक उदाहरण है. शब्दों की इस बाजीगरी ने फौरी तौर पर थोड़ी राहत जरूर दी हो, लेकिन किसी अर्थवान समझौते तक पहुंचने में यह शायद ही मददगार हो. दुनिया को प्रलय से बचाने के लिए ज्यादा ठोस कदम की दरकार है.

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