विश्वास और पारदर्शिता के बीच क्या संबंध है? भारत की राजनीतिक पार्टियों का मानना है कि उनकी नेकनीयती और ईमानदारी पर विश्वास करते हुए, जनता को उनसे पारदर्शिता की मांग नहीं करनी चाहिए. यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि उन्हें मिलनेवाले पैसे का स्नेत क्या है, वह कहां और कैसे खर्च हो रहा है? दूसरी ओर, सिविल सोसाइटी के सदस्यों का कहना है कि पारदर्शिता ही विश्वास का आधार हो सकता है.
अगर राजनीतिक पार्टियों का वित्तीय लेन-देन पाक-साफ है, तो इसे सार्वजनिक करने में उन्हें डर क्यों है? इस साल जून माह में जब केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) ने यह निर्णय दिया कि राजनीतिक पार्टियां सूचना के अधिकार (आरटीआइ) कानून के तहत सार्वजनिक संस्थाएं हैं और उन्हें अपने बही-खाते को जनता के साथ साझा करना चाहिए, तब राजनीतिक पार्टियां एक सुर में आयोग के इस फैसले का विरोध करती दिखीं. यूपीए सरकार ने सूचना आयोग के फैसले को प्रभावहीन करने के लिए संसद में एक विधेयक भी पेश किया.
हालांकि, भाजपा के विरोध के कारण इसे संसद की स्थायी समिति के पास विचारार्थ भेज दिया गया. अब एक प्रमुख अंगरेजी अखबार की खबर के मुताबिक इस समिति के सामने केंद्र सरकार के शीर्ष कानून अधिकारी महान्यायवादी जीइ वाहनवती ने कहा है कि राजनीतिक पार्टियों को सूचना आयोग के फैसले का सम्मान करना चाहिए. वाहनवती के वक्तव्य को सरकार के सोच में आ रहे बदलाव का संकेत माना जाना चाहिए. वैसे, इसके पीछे नैतिकता बोध से ज्यादा राजनीतिक दलों में बढ़ रही इस समझ का हाथ दिखता है कि पारदर्शिता विरोधी स्टैंड उन्हें चुनाव में नुकसान पहुंचा सकता है.
इसी समझ के चलते कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दागी जनप्रतिनिधियों की हिफाजत करनेवाले अध्यादेश का विरोध किया था. कयास लगाया जा रहा था कि राहुल इस विधेयक पर भी वैसा ही हमला कर सकते हैं. निजी हैसियत में मानव संसाधन राज्य मंत्री शशि थरूर ने भी इस विधेयक का विरोध किया था. अब यदि सरकार इस विधेयक को वापस लेती है, तो यह सिविल सोसाइटी की बड़ी जीत कहलायेगी. यह इस बात का सबूत होगा कि अगर जनता सक्रिय दबाव बनाये, तो सरकारों को खुद में बदलाव लाने पर मजबूर होना पड़ता है.