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लो, घर की मुर्गी हो गयी दाल बराबर!

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार बढ़ती महंगाई देख आदमी तो आदमी, मुहावरे भी उलट-पुलट हो रहे हैं. एक मुहावरे के अनुसार, पहले जहां घर का जोगी जोगड़ा होता था, वहीं एक अन्य मुहावरे के मुताबिक घर की मुर्गी दाल बराबर होती थी. इन दोनों ही मुहावरों का अर्थ मुङो पहले कभी पल्ले नहीं पड़ा. पहले मुहावरे […]

सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
बढ़ती महंगाई देख आदमी तो आदमी, मुहावरे भी उलट-पुलट हो रहे हैं. एक मुहावरे के अनुसार, पहले जहां घर का जोगी जोगड़ा होता था, वहीं एक अन्य मुहावरे के मुताबिक घर की मुर्गी दाल बराबर होती थी. इन दोनों ही मुहावरों का अर्थ मुङो पहले कभी पल्ले नहीं पड़ा.
पहले मुहावरे के संदर्भ में मैं हमेशा यह सोचा करता
कि बंदा अगर घर का है, तो फिर जोगी कैसा और जोगी है, तो फिर अब तक घर में क्या कर रहा है? कहीं घुमक्कड़लाल वाला मामला तो नहीं?
घुमक्कड़लाल अकसर कहीं घूम कर आता और अपने पड़ोसी को उसके बारे में बताते हुए उसे घूमने का शौक न रखने के लिए ताने देता. जैसे यह कि-आज तो भई, सुखना झील देख कर आये. तुम जानते हो, सुखना झील कहां है? पड़ोसी कहता-नहीं. इस पर घुमक्कड़लाल कहता-अरे, हमेशा घर में ही घुसे रहते हो, कभी बाहर भी निकला करो! किसी और दिन कहता-आज तो भई, हुमायूं का मकबरा देखा? तुम जानते हो, हुमायूं का मकबरा कहां है?
पड़ोसी कहता-नहीं. घुमक्कड़लाल फिर ताना देता-अरे, कभी घर से बाहर भी निकला करो! जब कई बार ऐसा हुआ, तो एक दिन पड़ोसी ने घुमक्कड़लाल के कुछ पूछने से पहले उलटे उसी से पूछ लिया-तुम रामलाल को जानते हो? घुमक्कड़लाल ने अचकचाते हुए कहा-नहीं. इस पर पड़ोसी ने कहा-हमेशा बाहर ही घूमते रहते हो, कभी घर भी रहा करो!
कहीं ऐसा तो नहीं कि जोगी होने के बाद भी घर में बने रहने के कारण ही जोगी को जोगड़ा कहा जाता रहा हो. कुछ-कुछ कबीर वाली बात कि मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा. अरे, जब जोगी हो ही गये तो अब जाओ घर छोड़ कर, ताकि तुम्हारी घरवाली ऊपरी मन से ही सही, यह गा सके कि जोगी मत जा, मत जा, जोगी पांव पड़ूं मैं तोरे.दूसरे मुहावरे का भी सिर-पैर पहले समझ नहीं आता था.
कहां दाल, कहां मुर्गी! दोनों में किसी भी तरह से कोई संबंध दिखाई नहीं देता, सिवाय इसके कि मुर्गी दाल के दाने चुग लिया करती है, जबकि दाल को कभी मुर्गी के दाने मतलब अंडे चुगते नहीं देखा गया.
दाल की बड़ी से बड़ी किस्म, माह यानी उड़द का राजा राजमाह, जो बोलचाल में घिस-पिट कर राजमा हो गया है, भी छोटी से छोटी मुर्गी, यहां तक कि चूजे से भी मुकाबला नहीं कर सकता. लेकिन अब महंगाई ने सब समझा दिया है. अब समझ आ गया है कि वह सस्ताई का जमाना था, जब यह मुहावरा बना था. तब मुर्गी इतनी सस्ती होती थी कि उसकी कीमत दाल की कीमत के बराबर होती थी.
फिर धीरे-धीरे जमाना बदला और मुर्गी की कीमत बढ़ती चली गई, जिससे संत-महात्मा गरीबों को मुर्गी का खयाल छोड़ दाल-रोटी खाने और प्रभु के गुण गाने का उपदेश देने लगे. लेकिन अब मामला फिर उलट गया है. जनता के अच्छे दिन आने के साथ ही फिर से दालों के भी दिन फिरे हैं और वे इतनी महंगी हो गयी हैं कि घर की दाल मुर्गी बराबर हो गयी है.
फलत: अब हालत यह है कि न आदमी को दाल सुलभ है न मुर्गी, वह रोटी खाये, तो किसके साथ खाये? और न खाये, तो प्रभु के गुण भी कैसे गाये, क्योंकि भूखे भजन भी तो न होय गोपाला!

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