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राज्य की रचना के सूत्र : एक पांव रखता हूं, हजार राहें फूट पड़ती हैं

– हरिवंश – यह एक नागरिक की पीड़ा है. एक पत्रकार की बेचैनी भी. इस समाचारपत्र की वेदना भी, जिसने लगातार अकेले अलग राज्य झारखंड की बात की. तब जब झारखंड गठन के दूर-दूर तक आसार नहीं थे. झारखंड की जरूरत के सैद्धांतिकतर्कों को आगे बढ़ाया, झारखंड के अनेक जाने-माने बौद्धिकों-पत्रकारों वगैरह के प्रयास-सहयोग से. […]

– हरिवंश –
यह एक नागरिक की पीड़ा है. एक पत्रकार की बेचैनी भी. इस समाचारपत्र की वेदना भी, जिसने लगातार अकेले अलग राज्य झारखंड की बात की. तब जब झारखंड गठन के दूर-दूर तक आसार नहीं थे. झारखंड की जरूरत के सैद्धांतिकतर्कों को आगे बढ़ाया, झारखंड के अनेक जाने-माने बौद्धिकों-पत्रकारों वगैरह के प्रयास-सहयोग से. अलग झारखंड के लिए कई झारखंडी राजनीतिक दल, नेता उधर लंबी लड़ाई लड़ रहे थे.
पर आज झारखंड की राजनीति, सरकार, विधानसभा की स्थिति देख कर लगता है कि आंदोलन, विरोध, विद्रोह, क्रांति से कहीं अधिक कठिन काम है, रचना का, निर्माण का, सृजन का, चरित्रवान बने रहने का, ! किसी भी समाज, देश, या राज्य को नये सिरे से गढ़ने, रचना करने के लिए एक उपयुक्त-सही और ईमानदार माहौल चाहिए. क्या झारखंड राज्य में यह माहौल है ? बगैर सकारात्मक माहौल के नये झारखंड का निर्माण संभव है ? नवंबर में झारखंड बने पांच वर्ष होंगे, पर कहां पहुंचे हैं, हम ? अब तो कई बार मुख्यमंत्री पद के साथ सहानुभूति होती है, मुख्यमंत्री चाहे कोई रहे (अर्जुन मुंडा या बाबूलाल मरांडी या शिबू सोरेन) क्या वह अकेले कार्य को मंजिल तक ले जा सकता है ?
यहां तो विरोध पक्ष की जरूरत ही नहीं है, सत्ता पक्ष में ही इतना कारगर विपक्ष है कि वह चौबीस घंटे गुपचुप इस योजना में है कि कैसे अपने मुख्यमंत्री को नाकाम कर दें ? शिबू सोरेन जब मुख्यमंत्री थे, तो अपने उपमुख्यमंत्री स्टीफन मरांडी से उनका संवाद नहीं था. बातचीत नहीं होती थी. बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री थे, तो उन्हें उनके मंत्रियों ने ही अपदस्थ कर दिया. अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री हैं, तो सत्ता पक्ष के लोग ही सदन में कमीशनखोरी की बात कहर कर कारगर विपक्ष की भूमिका में दिखाई दे रहे हैं. ऐसा लगता हैं कि राज्य का विकास सिर्फ सरकार का काम है.
उधर सरकार में हर मंत्री अपनी योग्यता-अयोग्यता के अनुसार लाभ-हानि के लिए काम कर रहा है. न सरकार के पास ‘विजन’ है, न मंत्री के पास. झारखंड के भविष्य के लिए झारखंड मंत्रिमंडल के पास एक विजन होना चाहिए. वह विजन विधानसभा में गंभीर चर्चा के बाद, राज्य के ‘विकास विजन’ के डॉक्यूमेंट के रूप में मान्य होना चाहिए. लोकतंत्र में विपक्ष भी सरकार का हिस्सा है.
विपक्ष के विधायक, सरकारी कोष से ही वेतन, भत्ता, सुविधाएं लेते हैं, विधानसभा की विभिन्न समितियों में रहते हैं. जिन पर करोड़ों खर्च हो रहे हैं. सरकार को सुझाव देते हैं. इसलिए सरकार हो या विपक्ष दोनों को अपनी जिम्मेवादी-सीमा का एहसास होना चाहिए, जो झारखंड में नहीं हैं.
एक दूसरे पर सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप, छींटाकशी की राजनीति जिस राज्य में चलेगी, वह विकास का मार्ग क्या समझेगा ?
क्या झारखंड की सरकार, विधानसभा, सांसद, विधायक यह जानते हैं कि हाल में छत्तीसगढ़ में टाटा उद्योग के लोग जब स्टील प्लांट लगाने के लिए गये, तो वहां राज्य के मुख्यमंत्री रमण सिंह और विपक्ष के नेता दोनों ने एक ही मंच से उनका स्वागत किया. सत्ता पक्ष में जो अलग-अलग खेमे थे, वे भी इस मुद्दे पर साथ थे. कुछ बड़े मुद्दों पर यह आम सहमति, रचना का धर्म है.
आप जानते हैं, छत्तीसगढ़ में टाटा घराना कहां उद्योग लगाने जा रहा है, बस्तर में, जो नक्सली लोगों का गढ़ है. अंतत: रोजगार, काम धंधा और कल-कारखाने के बिना प्रगति कैसे होगी? पर झारखंड में विकास का कोई सपना, सरकार या विपक्ष के पास है? सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करना, डींग हांकना और भ्रष्ट व्यवस्था को मजबूत करने का काम ही झारखंड के पक्ष-विपक्ष कर रहे हैं.
दो दिन पहले जिस दिन झारखंड विधानसभा में तू-तू, मैं-मैं हो रहा था, उस दिन पड़ोस के दो राज्यों से दो खबरें आयीं. उड़ीसा से खबर आयी कि कोरिया के मशहूर स्टील प्लांट पोस्को से 44000 करोड़ के निवेश पर लगभग सहमति हो गयी है और केंद्रीय इस्पात मंत्री की मौजूदगी में समझौता होगा. पड़ोस के बंगाल से खबर आयी कि बंगाल सरकार 8000 एकड़ में एक दूसरा बड़ा एयरपोर्ट बनवाने के लिए केंद्र सरकार से पहल कर चुकी है.
क्या झारखंड के विधायक आसपास के राज्यों में (छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल) हो रहे बदलावों के बारे में जानते हैं? झारखंड अगर प्रगति नहीं कर रहा, तो रास्ते में कौन से शिखर पर्वत या दुर्गम घाटियां हैं, यह पक्ष-विपक्ष के विधायक जानते हैं ? अगर गंभीरता से इन विषयों पर विधानसभा में बहस हो, विधायक पहल करें, तो राज्य का माहौल बदल सकता है. प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हम आस्था बनाने, बदलाव के उपयुक्त माहौल बनाने का काम तो कर ही सकते हैं.
झारखंड में रचना का माहौल बनाने का यह एजेंडा है. यह एजेंडा बनाते समय यह मान लिया गया है कि यही राजनेता, विधायक, नौकरशाह रहनेवाले हैं. तत्काल विकास, बदलाव के लिए कोई आदर्श माहौल नहीं मिलनेवाला. तो क्या अच्छे-अनुकूल वक्त के लिए चुपचाप प्रतीक्षा में बैठना होगा या इसी प्रतिकूल माहौल में अच्छे माहौल के लिए बंद दरवाजे पर दस्तक देने का काम होगा. फिलहाल इस दस्तक देने के अलावा कोई विकप्ल नहीं है. यदि पक्ष-विपक्ष सजग हो जायें तो इस राज्य का माहौल बदल जायेगा. डॉ राममनोहर लोहिया ने निराशा के कर्त्तव्य पर बड़ा प्रभावी भाषण दिया था. 1953 में.
निराशा के माहौल को भी नये संकल्प, नयी शुरूआत, आस्था के एक कदम से तोड़ा जा सकता है. हमारे यही विधायक, यही विधानसभा, यही राजनेता, यही सरकार, सार्थक कार्य कर सकती है, बशर्ते हर एक अपने को बदले. आचरण में, मानस में, संयम में, सीखने में, संकल्प में और विनम्र बनने में. इसी पृष्ठभूमि में ‘राज्य की रचना’ का सूत्र लिखा गया है.
मुख्य संपादक –
सूत्र-एक : राजनीति का स्तर सुधरे
झारखंड के विधायकों के सामूहिक प्रयास से झारखंड की राजनीति की गुणवत्ता बदल सकती है. इस तरह पहली प्राथमिकता हो कि क्वालिटी ऑफ पॉलिटिक्स (राजनीति का स्तर) सुधरे.
कम से कम दिखाने के लिए ही सही. विधानसभा में गंभीर ‘डिबेट हो. यह शर्म की बात नहीं है कि मंत्री सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे. शर्मनाक यह है कि न मंत्री, न विधायक सीखने या अपनी योग्यता बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं. मसलन कानून-व्यवस्था पर बहस होती है, तो विपक्ष महज एक ही आरोप लगाता है. कानून व्यवस्था बहुत खराब हो गयी है. तर्कपूर्ण आंकड़ों के साथ, पूरी तैयारी से बहस नहीं होती. मंत्री जी कहते हैं कि विपक्ष के आरोपों से हम सहमत हैं. यह पक्ष-विपक्ष संवाद अद्भुत है. सत्तापक्ष विपक्ष के आगे हाथ उठा दे. समर्पण कर दे.
इसके बाद दोनों चुप. प्रसंग खत्म. दुनिया के लोकतंत्र के इतिहास में झारखंड विधायिका का यह मंच, नयी भूमिका में दिख रहा है. होना क्या चाहिए ? विपक्ष पूरी तैयारी से आंकड़ेवार, कानून-व्यवस्था की विफलता का आरोप लगाये, साथ ही विकल्प भी सुझाये. दुनिया के बड़े लोकतांत्रिक देशों में विपक्ष के पास ‘सरकार चलाने का वैकल्पिक एजेंडा’ तैयार रहता है.(पर यहां जैसा पक्ष है, वैसा विपक्ष. विपक्ष, विचारों में, जानकारी में, सार्थक भूमिका में उतना ही दरिद्र-कमजोर है, जितना पक्ष) विपक्ष के वैकल्पिक शासन एजेंडा, पर सरकार के मंत्री पूरी तैयारी के साथ अपना पक्ष रखते, तो कानून-व्यवस्था की स्थिति, विकल्प पर विधानसभा में एक सार्थक संवाद होता. जनता भी तथ्यों को जानती. कहती कि सरकार के पास कुशासन को सुशासन में बदलने का एजेंडा नहीं है, पर विपक्ष के पास है.
लोगों को लगता कि सरकार के पास बेहतर शासन के लिए कोई एजेंडा ही नहीं है. इसलिए झारखंड में राजनीति-माहौल ठीक करने का पहला कदम होगा, हर विषय उद्योग, कानून-व्यवस्था……पर विधानसभा में गंभीर बहस हो, बहस का स्तर सुधरे. काम नहीं हो रहे, या अपराध बढ़ रहे हैं, तो उनसे जुड़े सभी पहलुओं पर विस्तृत चर्चा कर, देश के बेहतर राज्यों में इन दिशाओं में हो रहे प्रयोगों से सीख कर ‘मुकम्मल बहस’ हो.
विधानसभा में आरोप-प्रत्यारोप, गाली-गलौज, गलाफाड़ प्रतियोगिता के बीच महज सार्थक और गंभीर बहस होने लगे, तो झारखंड में सकारात्मक एक सार्थक हवा बहेगी. विधायक, वाणी पर संयम रखें. हास्यास्पद मजाक, घटिया टिप्पणियां, निर्जज्ज तर्क से लोकतांत्रिक राजनीति से ही लोगों का विश्वास उठ जायेगा. वैसे ही राजनीति-राजनेताओं से नफरत बढ़ रही है, यह विधायकों को समझना चाहिए.
सूत्र-दो : विधायक होम वर्क करें.
आमतौर से पक्ष-विपक्ष के विधायक रोते रहतें हैं कि नौकरशाही सुन नहीं रही. राज्य की प्रगति में वही सबसे बड़ा रोड़ा है. अवरोध है. दरअसल नौकरशाही घुड़सवार पहचानती है. वह अज्ञानी व लालची नेताओं का मानस समझती है और उन्हें अपने अनुसार ढाल लेती है.
विधानसभा में ‘गवनस’ पर सार्थक-गंभीर संवाद होने लगे, तो यही नौकरशाही राज्य को आगे ले जाने में सक्रिय होगी. सिर्फ एक ताजा मुद्दे लें. राज्य में लगभग 100 बिजली के बड़े टावर चुरा लिये गये हैं. बिजली बोर्ड ने एफआइआर दर्ज कराया है. विपक्ष का कोई सदस्य, पिछले चार वषा में कितने ऐसे टॉवर चोरी गये हैं, इसमें बिजली बोर्ड की क्या भूमिका रही है, पुलिस क्या करती रही है, पूरे आंकड़े- तथ्य (जो आसानी से मिल जायेंगे) लेकर सरकार को बहस में विधानसभा में घेरे.
बताये कि इस तरह के एक बिजली टॉवर की कीमत 7.50 लाख है, तो 100 की चोरी यानि 7.50 करोड़ का नुकसान. यह पैसा जनता का है, सरकार का है, इसे चुरानेवाले क्यों नहीं पकड़े गये? सरकार गंभीर है, तो उसे चोर न पकड़नेवाले पुलिस अफसरों को ऊपर से लेकर नीचे तक दंडित करना चाहिए. सरकार और सख्त कदम उठा सकती है, दोषियों से 7.50 करोड़ वसूलने की. बिजली बोर्ड के लोग रख-रखाव में लापरवाह हैं या इस चोरी में शरीक हैं, तो वे भी जुरमाना दें. फिलहाल लगता है कि ‘स्टेट’ (राज्य), या सरकार नामक चीज ही नहीं हैं.
चोरों, कमीशनखोरों और घूसखोरों के लिए राम राज्य है. सरकार के सामानों की ऐसी चोरी के लिए मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा एक ऐसा कठोर कदम उठा लें, सामूहिक दंड से सरकारी पैसे वसूलें, संबंधित अफसरों पर कार्रवाई कर दें, भले ही अदालत से ऐसे लोग स्थगन’ पा जायें, पर एक सकारात्मक माहौल तो बनेगा, राज्यसत्ता, असहाय नहीं दिखेगी. ‘राज्य’ का प्रताप, कानून-व्यवस्था का जो भय खत्म हो गया है, लौटेगा. सरकार की बेचारगी-लाचारगी दूर होगी.
अगर सरकार ऐसे आवश्यक कठोर कदम नहीं उठाती, तो विपक्ष पहल करे, दबाव डाले, अपनी बहस – बातों से सरकार को घेरे. फिर भी सरकार अगर ऐसा नहीं करती है, कानून-व्यवस्था ठीक रखने का अपना फर्ज पूरा नहीं करती है, तो उसे निकम्मा साबित कर विपक्ष अपना फर्ज पूरा कर सकता है. पर हकीकत तो यह है कि राजकाज कैसे चल रहा है, यह न विपक्ष की रुचि का विषय है, न सरकार की. निजी लाभ-हानि कि एजेंडा से राजनीति चल रही है.
इसी तरह विभिन्न विभागों की कार्यशैली-कार्यसंस्कृति पर गंभीर बहस हो सकती है और नये रास्ते-विकल्प ढूंढे जा सकते हैं. नौकरशाही पर सब खफा रहते हैं, क्योंकि हर विधायक-मंत्री-सरकार में बैठे लोगों को अपने मनोनुकूल नौकरशाह चाहिए. फिर तबादले में पैरवी होगी. ट्रांसफर को उद्योग बनाया जायेगा.
किसी विधायक को मालूम है कि झारखंड बनने के बाद हर जिले में उपायुक्तों-पुलिस अधीक्षकों का कार्यकाल कितना समय रहा है ? यह सूची तैयार करा कर एक-एक फाइल कहां और कितने समय अटकी रहती है ? विलंब कहां होता है ? विलंब के कारण योजनाओं का लागत खर्च बढ़ने का जिम्मेवार कौन होता है ? इनका लेखा-जोखा विधायक रखें, सरकार-नौकरशाह स्वत: रास्ते पर आयेंगे.
विधानसभा में कब-कब, किस मंत्री ने बिजली के बारे में क्या-क्या बयान दिया और सरकार की उपलब्धि क्या रही? इसका लेखा-जोखा विधायक विधानसभा में पेश करें. सरकार निरूत्तर हो जायेगी. इसी तरह हर विभाग में सरकार के कामकाज को आंका जा सकता है.
सिंचाई मंत्री ने कब क्या कहा, कितनी उपलब्धि हुई, इससे सरकार का झूठ उजागर हो सकता है, पर कोई चाहता ही नहीं कि कार्य संस्कृति सुधरे? झारखंड का माहौल बदले? बेहतर गवर्नेस के लिए सरकार को ‘ट्रांसफरपालिसी’ तार्किक ढंग से अपनाने के लिए बाध्य किया जा सकता है. एक-एक विधायक को अपनी ताकत-क्षमता का एहसास होना चाहिए. मधुलिमये अकेले सांसद थे. श्रीमती इंदिरा गांधी दो-तिहाई बहुमत से केंद्र में सरकार चला रही थीं. अकेले मधुलिमये के बौछारों से वह इतना घिर जाती थीं – असहाय महसूस करती थीं कि कांग्रेस संसदीय दल में कहती थी कि एक मधुलिमये का जवाब हमारे पास नहीं है.
यह श्रीमती गांधी जैसी ताकतवर राजनेता की स्थिति थी. यही लोकतंत्र की महिमा और गरिमा है. यहां तो अर्जुनमुंडा की सरकार खुद ही असहाय स्थिति में है. जागरूक विपक्ष कदम-कदम पर सरकार को घेर सकता है. बात रही, मधुलिमये की, तो मधुलिमये बनने की क्षमता इंसान में ही है. विधायक अपना होम वर्क करें, पढ़ें, एक-एक चीज की गहराई में जायें, तो उनमें स्वत: मधुलिमये जैसी तेजस्वी संसदीय क्षमता विकसित होगी. यहां अधिसंख्य विधायक अमूमन ठेकेदारों, चापलूसों, कमीशनखोरों, और दलालों से घिरे रहते हैं. वे खुद न अपना स्वविकास चाहते हैं, न राज्य का. अधिकांश विधायकों का समय निरर्थक कामों में गुजरता है.
विधायकों का ऐसा मानस बने, तो आप पायेंगे, एक-एक क्षेत्र में कैसे विकास होता है? फिर नौकरशाह आड़े नहीं आयेंगे. राजनीतिक इच्छाशक्ति सर्वोपरि है, इसका अभाव झारखंड के पक्ष-विपक्ष दोनों में हैं.
सूत्र-तीन : विधायक सरकारी योजनाओं-अवसरों को जानें
झारखंड सरकार की पहली प्राथमिकता गरीब होने चाहिए. किसान और गांव के लोग प्राथमिकता सूची में हों. आदिवासियों, गरीब अल्पसंख्यकों को मदद मिलनी चाहिए. जहां से पलायन होता है, उन इलाकों के लिए विशेष योजनाएं चलनी चाहिए.
क्या झारखंड विधानसभा में कभी समाज के इस सबसे कमजोर गरीब वर्ग को लेकर बहस हुई है? आज नाबार्ड, भारत सरकार के ग्रामीण मंत्रालय से लेकर खुद राज्य सरकार की सैकड़ों योजनाएं चल रही हैं, गरीबों के लिए. पर कितने गरीब इन योजनाओं को जानते-लाभ लेते हैं. इस गरीबों को ‘इंटरपेनोयर’ (उद्यमी) बनाने के पहले उन्हें हुनर देने-कौशल देने का काम सरकार कराती है? ‘रूरल इंटरपेनोयर’ (गांव के उद्यमी) के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था है? कोई नहीं जानता. आज सरकार नाबार्ड, बैंको को कह कर कई ग्रामीण इलाकों में नये-नये कार्य शुरू करा सकती है.
इन वित्तीय संस्थानों से बड़े पैमाने पर ॠण उपलब्ध करा सकती है. अपने बजट पर बोझ डाले बगैर. इसकी मानिटरिग करा सकती है. पर ऐसे सारे काम जो राज्य की तकदीर बदल सकते हैं, नौकरशाहों के जिम्मे हैं. इसकी प्रगति मानिटर करनेवाला कोई नहीं. विलंब की जिम्मेवारी किसी की नहीं है. केंद्र से परियोजनाओं के पैसे आते हैं, सरेंडर होते हैं. इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए, किसके कारण विलंब हुआ, क्यों पैसा लौटा? जिस दिन नौकरशाहों की जवाबदेही विधायक तय कराने लगेंगे, कामकाज की गति स्वत: बढ़ जायेगी.
दुनिया स्तर पर विकास की धारा में एक नयी ताकत जुड़ी है, स्वयंसेवी संस्थाओं की. झारखंड में भी स्वयंसेवी संस्थाओं की बहुतायत है. कुछ बहुत अच्छे एनजीओ भी हैं. इन सबको एक मंच पर लाकर सरकार इनसे सहयोग ले सकती है. विकास के काम में लगा यह एक ताकतवर वैकल्पिक समूह है. इनकी अपनी फंडिंग एजेंसियां भी हैं. सभी एनजीओ द्वारा झारखंड में प्रतिवर्ष होनेवाले खर्च को जोड़ा जाये, तो पता चलेगा, यह भारी निवेश है.
इस निवेश का रिटर्न समाज-राज्य को मिले यानी जो शिक्षा में काम कर रहे हैं, वहां शिक्षा का स्तर सुधरे, यह मापने की स्वैच्छिक पहल हो. जो एनजीओ, जहां सबसे अच्छा विकास मॉडल खड़ा करता है, उसे पुरस्कृत किया जाये और उस मॉडल को राज्य में हर जगह लागू करने की सहमति बने. इस तरह विकास की नयी अवधरणाओं-विकल्पों पर विधानसभा में बहस-चर्चा हो, तो झारखंड को एक रास्ता मिलेगा. अच्छे एनजीओ द्वारा चल रहे कामों को सरकारी मदद-समर्थन मिलने से विकास की गति बदलेगी.
सूत्र-चार : प्रशिक्षण और सीखने की भूख
1991 के उदारीकरण का एक सकारात्मक पहलू है, ‘ह्यूमन रिसोर्स’ (मानव संसाधन) को बेहतर बनाने पर जोर. कंपनियों में, कारखानों में, कारपारेट हाउसों में, सरकारों में, बैंकों में, बड़ी संस्थाओं में कार्यरत लोगों को लगातार प्रशिक्षण. ताकि वे अपना स्किल (हुनर-कौशल) बढ़ा सकें. दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को जान सकें. गवर्नेस की बदलती चीजों को समझ सके. इ-गवर्नेंस समझ कर आवश्यक क्षेत्रों में लागू कर सकें. अपनी इफीशियंसी (कार्यक्षमता) बढ़ा सकें. इथिक्स और वेल्यूज अपना सकें. दुनिया के बड़े-बड़े संस्थान अपना प्रशिक्षण केंद्र चलाते हैं. 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने सिंगापुर के प्रधानमंत्री लीयूआन क्यू को भारत बुलाया. ली, जिन्होंने मछुआरों के गांव को वर्ल्ड क्लास देश ‘सिंगापुर’ बना दिया था. उस बैठक में भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी बुलाये गये.
ली ने दो खंडों में अपनी आत्मकथा लिखी है. हर भारतीय जो परिवर्तन चाहता है, उसे यह पढ़ना चाहिए. उसमें भारत के पिछड़ेपन के कारण भी बताये हैं. ली को बुलाने का कारण था ‘नौकरशाही के सबसे प्रभावी स्तर पर माइंडसेट बदलने की शुरूआत. प्रशिक्षण सीखाने, बताने, दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से रू-ब-रू कराने का मंच है.
इसके बाद भारत सरकार ने आइआइएम बंगलोर से बात कर वहां ‘सेंटर फॉर पॉलिसी’ केंद्र बनवाया, जहां आइएएस, आइपीएस अफसरों के वर्ल्ड क्लास प्रशिक्षण होते हैं. हार्वर्ड विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिसी के तर्ज पर. झारखंड सरकार अगर मंत्रियों के लिए 15 करोड़ की लक्जरी गाड़ी खरीदने के बदले अपने यहां प्रशिक्षण केंद्र बनवाती, तो इससे एक बेहतर भविष्य की बुनियाद पड़ती. आज जरूरत है कि सरकारी क्लर्क से लेकर बीडीओ, सीओ, मजिस्ट्रेड से मुख्य सचिव तक का, बदलती दुनिया के अनुरूप प्रशिक्षण हो नया माइंडसेट बने, तो झारखंड में बिहार से भिन्न कार्यसंस्कृति विकसित हो सकती है.
आज एक बीडीओ को 50 से 80 करोड़ तक खर्च करने की जिम्मेदारी दी जाती है. वह न आर्किटेक्ट है, न इंजीनियर, न वित्त विशेषज्ञ, न विकास विशेषज्ञ. वह सिर्फ ठेकेदारों, बाहुबलियों और अपराधियों से घिरा है. वह कैसे विकास का काम ठीक तरीके से कर यह करा सकता है? क्या हमारे पक्ष या विपक्ष के किसी विधायक के पास इसका जवाब है? क्या विधानसभा में कभी ऐसे गंभीर सवालों के विकल्प ढूंढने की कोशिश हुई.
नौकरशाही में सबसे बड़ा मानस परिवर्तन यह चाहिए कि वे समझें कि अब उनकी भूमिका शासक की नहीं, जनसेवकों की है. उन्हें यह महसूस करना होगा कि उनके एक-एक काम से क्या लाभ-हानि समाज-राज्य को हो रहे हैं? एक-एक निर्णय में देरी से लागत खर्च कैसे बढ़ता है और उसकी कीमत अंतत: कौन चुकाता है? यह सूचना विस्फोट का युग है, अर्थ का युग है.
तकनीक का युग है. इसलिए इसके अनुसार राजनीतिज्ञों-नौकरशाही को ढलना होगा. सरकार से लैपटॉप खरीदवाकर विधायक दुनिया को न जानें, तो वे झारखंड में क्या करा सकते हैं? इस अर्थ युग में सरकार के एक-एक पैसे के नुकसान के प्रति नौकरशाह और राजनेता सजग और जवाबदेह नहीं होंगे, तो वे राज्य को कर्ज में ही डुबोयेंगे. इसलिए एक नये मानस (माइंडसेट) के लिए प्रशिक्षण आज सबसे जरूरी काम है.
अफसरों-नौकरशाहों-प्रध्यापकों (जो सरकार के वेतनभोगी है) के वेतन सुविधाओं के अनुरूप परफारमेंस (उपलब्धि) का मूल्यांकन होना चाहिए. एक प्राइवेट कंपनी में किसी कर्मचारी को जो तनख्वाह मिलती है, उसके काम-उपलब्धि के अनुरूप होता है. ‘परफारमेंस लिंक्ड वेज एंड इवेलुएशन’ (तनख्वाह के अनुरूप काम, उसी तर्ज पर मूल्यांकन) यह नये युग का सूत्र है.
बहुत पहले डॉ राममनोहर लोहिया ने लोकसभा में प्रधानमंत्री पर रोजाना 11 हजार का खर्च बताये एक गरीब भारतीय पर तीन आने खर्च का सवाल लोकसभा में उठाया था. पूरी राजनीति में वह सवाल छा गया. आज झारखंड में एक आइएएस, आइपीएस, मंत्री पर रोज क्या खर्च हो रहा है? उसे गाड़ी, घर, अर्दली, सुरक्षा क्या-क्या ‘स्टेट’ से मिला है, इन सबकी कीमत क्या है, यह सब जोड़ कर विधायक विधायक झारखंड विधानसभा में बहस करने लगें, सवाल उठाने लगें, तो जनता में एक नयी चेतना पैदा हुई है. पर विधायक यह सब नहीं पूछेंगे, क्योंकि यह परिश्रम का काम है. रचना का माहौल बनाने का काम है. अंतत: विधायक चाहे पक्ष के हों या विपक्ष के, उन्हें भी बॉडीगार्ड, सुविधाएं, सरकारी फेवर तो चाहिए ही. फिर नयी राजनीति कहां से पैदा होगी?
इसी तर्ज पर झारखंड में पुलिस विभाग का प्रशिक्षण आवश्यक है. और यह प्रशिक्षण सिर्फ अफसरों तक ही सीमित न हो, यह विधायकों के लिए सबसे जरूरी है. राजीव गांधी, जब देश के प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने एक सार्थक पहल की. सांसदों को प्रशिक्षित करने, दुनिया में हो रहे बदलावों की जानकारी देने के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलवाया. झारखंड सरकार को चाहिए कि वह विधायकों और मंत्रियों को प्रशिक्षित करने के लिए बीच-बीच में वर्कशॉप आयोजित करे. विधानसभाध्यक्ष ऐसे सार्थक आयोजन करा सकते हैं. इस वर्कशॉप में लेˆक्चर देने के लिए देश के जाने-माने वरिष्ठ लोगों को बुलाया जा सकता है.
मसलन विधायिका के काम के लिए संविधान विशेषज्ञ को आमंत्रित कर सकते हैं. नयी टेक्नोलॉजी कैसे अर्थव्यवस्था को बदल रही है, इसके लिए नारायणमूर्ति, अजीम प्रेमजी को आमंत्रित किया जा सकते हैं, सर्वश्रेष्ठ डेयरी हमारे राज्य में कैसे लग सके, यह जानने के लिए गुजरात से कुरियन को न्योता जा सकता है. इसी तरह हॉर्टिकल्चर, उद्योग, नगर विकास, पर्यावरण वगैरह के विशेषज्ञ बुलाये जा सकते हैं. इससे हमारे विधायकों – सरकार में बेठे लोगों का मानस बदलेगा और वे राज्य को एक बेहतर दिशा दे सकेंगे.
इस राज्य में केंद्र सरकार की एक इकाई पलांडू में हैं, जो हॉर्टिकल्चर की दिशा में झारखंड की तसवीर बदल सकती है. राज्य में लाह का विख्यात संस्थान है, जो लाह उत्पादन में बेहतर काम कर सकता है.
झारखंड इस अर्थ में सौभाग्यशाली रहा कि सीसीएल, बीसीसीएल, एचइसी, सेल, बोकारो, सीएमपीडीआइ, मेकन जैसे पब्लिक अंडरटेकिंग विरासत में मिले हैं. निजी क्षेत्र में टाटा, उषा मार्टिन जैसे घराने मौजूद थे. इन सभी कंपनियों-संस्थानों में ‘बेस्ट ह्यूमन रिसोर्स’ (विशेषज्ञ मानव संसाधन) उपलब्ध हैं, इनसे सहयोग संबंध बना कर सरकार बहुत कुछ कर-करा सकती है. यह सौभाग्य छत्तीसगढ़ या उत्तराखंड को नहीं मिला है. पर राज्यहित में इसका इस्तेमाल कैसे हो? यह सरकार के विजन-एप्रोच पर निर्भर है.
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय है, जो किसानों के लिए अपने नये प्रयोगों-सुझावों से स्तब्धकारी बदलाव ला सकता है. बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी है, जिससे ई-गवर्नेस से लेकर, रिमोट सेंसिंग से पूरे झारखंड का नक्शा बनवाने में मदद दे सकता है. रिमोट सेसिंग के इस इमेंजिंग (नक्शा) से हजारों हजार वाटरशेड बन सकते हैं, इनसे किसानों का भाग्य पलट सकता है. पर ऐसे नये पहल हों, यह विधानसभा में विधायक क्यों नहीं पूछते?
हैदराबाद में गवर्नेस पर अध्ययन करनेवाली एक संस्था चंद्रबाबू नायडू ने बनायी. उस संस्था का काम है कि गवर्नेस के क्षेत्र में जहां-जहां सर्वश्रेष्ठ काम हो रहे हैं, उनकी जानकारी लेना और उन्हें अपने परिवेश में ढालने के लिए अध्ययन करना. क्या ऐसे काम झारखंड में नहीं हो सकते? हमारे विधायक चाहें तो इस तरह के कामों के लिए राज्य में पृष्ठभूमि बना सकते हैं, नया माहौल बना सकते हैं, सरकार को बाध्य कर सकते हैं.
सूत्र – पांच : शिक्षा पर पहल
जो देश या भारत के राज्य या समाज आगे बढ़ गये हैं, उनकी नींव, शिक्षा में प्रगति पर ही टिकी है. भारत के गांवों में भी बदलाव के सशक्त संकेत दिखाई दे रहें हैं. वह है – शिक्षा का प्रसार और स्त्री शक्ति का उदय. सुदूर गांवों में स्कूली ड्रेस पहन कर लंबी कतारों में जाते बच्चों और शिक्षिकाओं को आप देंखें, तो आप बदलते भारत की इस तसवीर की आहट पा सकते हैं.
सरकार का सबसे पवित्र काम है, शिक्षा के दीप को घर-घर जलाना. प्राइमरी शिक्षा संस्थाओं को हम कैसे और बेहतर बना सकें. अधिक से अधिक निजी उद्यमियों को स्कूल खोलने के लिए प्रेरित कर सकें, यह कोशिश हो. वोकेशनल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खुलें, इसके लिए पहल हो. शिक्षा कैसे समाज को बदला करती है, इसका जीवंत उदाहरण देखना हो, तो चेन्नई और बेंगलोर हैं.
विद्यार्थी जीवन में एनसीसी कैडेट के रूप में सबसे पहले चेन्नई और बेंगलोर महानगरों को ही देखा था. आज उन्हें देखने से लगता है कि वे कैसे हिंदी इलाकों से 50 वर्ष आगे निकल चुके हैं? अकेले एक चेन्नई या बेंगलोर में लगभग 96-100 इंजीनियरिग कॉलेज हैं, मेडिकल-प्रबंधन वगैरह की वर्ल्ड क्लास संस्थाएं वहां हैं. झारखंड बने पांच वर्ष होने को हैं, क्या हम कोई एक नयी संस्था या कॉलेज खोल सकें हैं? सूचना क्रांति की नयी अर्थव्यवस्था में चेन्नई-बेंगलोर-हैदराबाद की इन शैक्षणिक संस्थाओं ने इन तीनों राज्यों की अर्थव्यवस्था को अद्भुत ढंग से आगे बढ़ाया है.
इन राज्यों को सीधे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विकसित देशों से जोड़ दिया है. आज अगर चीन के प्रधानमंत्री या दुनिया के बड़े राष्ट्राध्यक्ष भारत में पहले, दिल्ली नहीं, बेंगलोर, हैदराबाद या चेन्नई पहुं चते हैं, तो क्या हमारे झारखंड के विधायक इस राज्य को सर्वश्रेष्ठ बनाने का सपना नहीं पाल सकते? कभी विधानसभा में इस बात पर बहस हुई कि हमारे पास सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओं को लाने के क्या ब्ल्यूप्रिंट हैं.
किसी ने सरकार से पूछा कि इस राज्य में पहले राज्यपाल और पहले मुख्य न्यायाधीश के प्रयास से एक लॉ यूनिवर्सिटी बनवाने का फैसला हो गया था, पर आज तक वह क्यों नहीं बना? अगर इन बुनियादी सवालों पर विधानसभा में चर्चा नहीं होगी, तो क्या कोई रास्ता निकलेगा? अच्छे इंजीनियरिग कॉलेजों की संख्या बढ़े तो यहां भी सूचना-तकनीक के उद्योग आयेंगे. आज बंगाल, अजीम प्रेमजी और नारायणमूर्ति को पलक पावड़े बिछा कर बुला रहा हैं ताकि उनके यहां रोजगार की संख्या बढ़ सके. झारखंड में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की स्थिति बेहतर है. अगर अच्छे इंजीनियरिंग और प्रबंधन की संस्थाएं खुलें, तो यहां युवकों को रोजगार मिलेगा. आज प्रगति की बुनियादी शर्त है, संचार का सर्वश्रेष्ठ इंफ्रास्ट्रˆर होना. पर झारखंड में कनेक्टिविटी नेटवर्क की क्या स्थिति है, कितने समय में इंटरनेट लिंक मिलता है.
बीएसएनएल से लेकर देश के प्राइवेट टेलीफोन सेवाएं कितनी फैली हैं और क्वालिटी सर्विस दे रहीं है या नहीं. इस बारे में क्या कभी विधानसभा में बहस हुई और राज्य सरकार ने दूरसंचार के क्षेत्र में अपनी स्थिति का आकलन किया? अगर दूरसंचार की स्थिति बेहतर हो, और सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थाएं हो जायें, तो आज ‘बिजनेस प्रोसेसिंग आउटसोर्सिंग (बीपीओ) का काम, बड़े शहरों से निकल करके झारखंड के शहरों और गांवों तक पहुंचने लगेगा.
बिना बड़े निवेश के झारखंड दुनिया के नक्शे पर आ जायेगा. सवाल उठ सकता है कि विधानसभा में दूरसंचार वगैरह विषय जो केंद्र सरकार के मातहत है, पर बहस नहीं हो सकती. पर यहां आशय बहस से नहीं, अपने राज्य की इन बुनियादी क्षेत्रों में स्थिति से अवगत होने कहा है, ताकि अन्य राज्यों की बराबरी हम कर सकें. राज्य सरकार, राज्य हित में झारखंड के सांसदों (चाहे वे जिस भी पाट से हों) का दिल्ली में फोरम बना सकती है, उनसे लगातार संपर्क में रह सकती है, ताकि वे दिल्ली में झारखंड के हित में ‘प्रेशर ग्रुप’ के रूप में वे काम कर सकें. सांसद मजबूरन राज्य सरकार की मदद करेंगे अन्यथा राज्य की जनता की नजर में वे विलेन हो जायेंगे. पर यह पहल तो अर्जुन मुंडा और उनकी सरकार ही कर सकती है. बहुत पहले एक कविता पढ़ी थी ‘एक पांव रखता हूं, हजार राहें फूट पड़ती हैं’ .
झारखंड में इस तरह का एक सार्थक कदम उठे, तो आज हजार नयी संभावनाएं खुल जायेंगीं. हॉर्टिकल्चर की दृष्टि से झारखंड देश का सर्वश्रेष्ठ राज्य बन सकता है, अगर यहां और बड़ा और बेहतर एयरपोर्ट बन जाये, तो किसानों की चीजें विदेशी बाजारों में जा सकती हैं. क्या हमारे विधायकों को इस तरह की योजनाओं में दिलचस्पी है? उन्होंने कभी विशेषज्ञों से राय लेकर इसके ब्लूप्रिंट बनवाये हैं.
ऐसे ही शिक्षा के क्षेत्र में अनेक नये (इनोवेटिब) कदम उठाये जा सकते हैं. एक नेतरहाट, डीएवी श्यामली या डीपीएस जैसे स्कूलों में दाखिले के लिए हर संभव कोशिश होती है. क्यों नहीं चौबीसों जिलों में ऐसी अनेक शिक्षा संस्थाएं खड़ी की जाती. आज अनेक उद्यमी इन क्षेत्रों में पैसा लगाने को मिल जायेंगे, पर सरकार अपनी ओर से आवश्यक मदद को तैयार रहे और कानून-व्यवस्था की स्थति बेहतर बनाये.
सूत्र-छह : इंफ्रास्ट्रक्चर में दिलचस्पी लें
राज्य के विकास के लिए कृषि, खेतिहर मजदूर, शहरी मजदूर, गरीब व निम्न मध्यवर्ग पहली प्राथमिकताएं हैं, तो लगभग समान महत्व उद्योगों को बढ़ावा देना भी है. साथ ही शिक्षा और बुनियादी ढांचे को एक साथ ही ठीक करना जरूरी है.
झारखंड के राजनीतिज्ञ, बदलती दुनिया का मानस जितना जल्द समझ लें उतना ही बेहतर. उन्हें सोचना चाहिए कि क्या वजह है कि आज बंगाल में मार्क्सवादी सरकार बड़े उद्योग घरानों को निमंत्रित करने के लिए बेचैन है.
उनकी अगवानी में सीनियर आइएएस लगे रहते हैं. उनके काम प्राथमिकता के आधार पर हो रहे हैं. सरकारें उनके स्वागत में प्रतीक्षारत हैं. छत्तीसगढ़ में जब टाटा घराने का स्वागत वहां के मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता मिल कर करते हैं, तो यही मानस दिखता है.
यही हाल दक्षिण के राज्यों का है. चंद्रबाबू नायडू भले बदल गये हों पर आंध्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रोज देशी-विदेशी निवेशकों के साथ बातचीत करते हैं, उद्योग या निवेश के समझौते पर दस्तखत करते नजर आते हैं. यही हाल कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात वगैरह का है. इन राज्यों में प्रतिस्पर्धा है कि कौन अधिकाधिक बाहरी पूंजी और निवेश अपने यहां आमंत्रित कर रहा है. इसके कारण स्पष्ट हैं. अंतत: पूंजी नहीं लगेगी, नये उद्योग नहीं लगेंगे, तो रोजगार कहां से मिलेंगे? राज्य की आर्थिक स्थिति कैसे समृद्ध होगी? अंतत: तो समृद्धि का ही बंटवारा होगा, पूंजी निर्माण का ही बंटवारा होगा, गरीबी का बंटवारा नहीं होगा.
झारखंड की स्थिति स्पष्ट है.
हाल में झारखंड में कुमारमंगलम बिड़ला का बड़ा समूह आया, अभी मित्तल समूह के लोग आये थे, ये महत्वपूर्ण और उत्साहवर्द्धक संकेत हैं. पर जब तक धरातल पर चीजें क्रियान्वित नहीं होंगी, तब तक नया आत्मविश्वास नहीं झलकेगा. आखिर क्या कारण है कि पिछले चार वर्षों के दौरान तीस कंपनियों के साथ एमओयू साइन हुआ, पर अब तक धरातल पर कोई बड़ा काम नहीं दिख रहा है. क्या विधानसभा में कभी इस पर धैर्य से विस्तृत बहस कर पक्ष-विपक्ष ने ईमानदारी से मूल कठिनाइयों को जानने की कोशिश की?एमओयू साइन होने के तीन-तीन, चार-चार वर्षों बाद काम शुरू न हो पाना किसकी जिम्मेवारी है? इसकी वजहें कहां है?
बाहर से लगता है, सबसे बड़ी समस्या सरकार की कार्यसंस्कृति है. यह परिणामोन्मुखी (रीजल्ट ओरियंटेड) नहीं है. उद्योग लगाने के लिए जमीन चाहिए.
पर सरकार द्वारा लैंड बैंक बनाने की कई बार घोषणाएं हुई, लेकिन अब तक कुछ नहीं हो सका. इसका दोष किसे दिया जाये? सरकार आसानी से पूरे झारखंड के खाली जमीनों का लैंड बैंक बना सकती है, फिर जिन रिहायशी इलाकों को विस्थापित करने की सख्त जरूरत पड़ेगी, उसके लिए अलग नीति बना सकती है.
विस्थापन की एक पारदर्शी नीति बन सकती है. विस्थापितों को स्थापित होने वाले उद्योगों में स्टेक शेयर दिये जा सकते हैं. विस्थापन से पहले उनके लिए आदर्श घर, स्कूल, कॉलोनी बनाना जरूरी किया जा सकता है. टाटा घराने ने उड़ीसा के गोपालपुर में संभावित विस्थापितों के लिए आदर्श ग्राम बनाया.
हालांकि टाटा का कारखाना वहां नहीं लगा, पर गोपालपुर में उन्होंने बहुत अच्छे घर, स्कूल, सामुदायिक भवन, कॉलोनी वगैरह बना कर स्थानीय लोगों को सौंप दिया है. झारखंड के लिए सबसे सुखद संयोग है कि यहां टाटा जैसा घराना है, जिसकी कार्य-संस्कृति, विश्वसनीयता देश के अन्य उद्योग घरानों से भिन्न है. पिछले सौ सालों में टाटा ने सामुदायिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किये हैं. यह सच है कि बाहर से आने वाली कंपनियों की रूचि सामुदायिक विकास के बजाय स्वविकास में है, पर यह एक ऐसा प्रकरण है, जिसमें बीच का रास्ता निकल सकता है.
टाटा घराना, झारखंड में पूंजी निवेश का सबसे बड़ा ‘एंबेसडर’ (दूत) बन सकता है. टाटा घराना उड़ीसा में पंद्रह हजार करोड़ की लागत से छह मिलियन टन क्षमता का स्टील प्लांट लगाने जा रहा है. छत्तीसगढ़ में पांच मिलियन टन क्षमता का प्लांट, दस हजार करोड़ की लागत से बैठाने का करार किया है.
उसी टाटा स्टील का लीज का मामला वर्षों से लंबित है? क्या सरकार और विपक्ष के बीच कभी खुले रूप से विधानसभा में इस पर चर्चा हुई ? खनन के बदले वृक्षारोपण का प्रावधान है. इसके लिए जरूरी जमीन भी नहीं दी गयी, सिंहभूम के खनन उद्योग को गढ़वा में जमीन दी जाती है. 1988 में झारखंड के उद्योगपतियों ने चालीस लाख रुपये जमीन के लिए जमा किया, पर उन्हें आज तक वृक्षारोपण के लिए जमीन नहीं मिली. इस तरह हर काम में विलंब की कीमत क्या है? क्या हमारे विधायक जानते हैं? आज दुनिया में विलंब पिछड़ेपन का प्रतीक है.
इस दौड़ में जो पीछे छूट गया, वह पिछड़ा-अविकसित रहने के लिए ही अभिशप्त है. क्या हमारे विधायक यह जानते हैं? लाइसेंस, कोटा परमिट, राज के मानस से आप इस सूचना क्रांति के दौर में प्रगति नहीं कर सकते. यह नॉलेज एरा है (ज्ञान युग). पुलिस, प्रशासन और सरकार के दंभ का दौर नहीं.
जिन तीस कंपनियों के साथ एमओयू हुआ है, उनमें से औसतन एक उद्योग को 500 एकड़ जमीन चाहिए. इस तरह 15-20 हजार एकड़ जमीन की जरूरत होगी. पर सरकार के पास कोई प्लान तैयार नहीं है. जमीन के साथ-साथ बिजली चाहिए. झारखंड बिजली बोर्ड, उद्योगों की मांग पूरा करने में सक्षम नहीं है.
और उद्योग जेनरेटर से चल नहीं सकते. न नये पावर प्लांट लग रहे हैं? जमीन और बिजली के बाद खनिज अधिकार का मामला है. झारखंड सरकार के सामने कैपटिव कोल ब्लॉक देने, कोल लिंकेज देने का मामला भी गंभीर हो रहा है. कैपटिव कोल ब्लॉक के लिए सरकार को केंद्रीय कोयला मंत्रालय पर निर्भर रहना पड़ता है.
कोयला मंत्रालय के अलग नाज-नखरे हैं. सिंगल विंडो सिस्टम बना, पर आज तक इसे एक्ट का रूप नहीं दिया जा सका. 2003 में इसका उद्‌घाटन हुआ. इससे संबंधित नियम-कानून बन गये, पर इसे एक्ट का रूप दिया जाना शेष है. इसी तरह औद्योगिक नीति बनी, पर वह ठंडे बस्ते में ही है. एक उद्योग स्थापित करने के लिए 17 विभागों पर निर्भर रहना पड़ता है. और सरकार के इन सत्रहों विभागों में न समन्वय है, न तालमेल. हर एक की अपनी अलग शर्त हैं. ऐसी स्थिति में कौन उद्योग लगायेगा? आज एक उद्योग लगानेवाला उद्यमी वित्तीय संस्था से पैसा उधार लेता है, फिर उद्योग लगाता है.
अगर चार वर्ष तक उसे विभिन्न विभागों में जूते रगड़ने पड़ें, तो कौन यहां पूंजी लगायेगा? जबकि दूसरे राज्य पूंजी निवेशकों के स्वागत में खड़े हैं. इसी तरह एसपीटी एक्ट में परेशानी के कारण निवेशक संथाल परगना जाना नहीं चाहते. सरकार और विपक्ष को गंभीरता से मुद्दे पर विचार करना होगा, क्योंकि संथाल -परगना में अगर उद्योग नहीं गये, निवेश नहीं हुआ, तो क्षेत्रीय विषमता पैदा होगी और राज्य में नया संकट खड़ा होगा.
जहां बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य वगैरह की बुनियादी समस्याएं हों, कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति हो, वहां कौन निवेश करेगा. आज बिजली, आधुनिक प्रगति का पर्याय है. झारखंड बनने के चार वर्षों बाद बिजली उत्पादन में 150 मेगावाट की कमी हुई, 2001-02 में राज्य के ताप-विद्युत घरों में 390 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था, साथ ही पीक ओवर में हाइडल प्रोजेक्ट से 130 मेगावाट बिजली पैदा होती थी, वहां अब ताप विद्युतघरों से बिजली उत्पादन घट कर 240 मेगावाट रह गया है.
पानी की कमी से हाइडल प्रोजेक्ट से उत्पादन बंद कर दिया गया है. बिजली की इतनी नाजुक स्थिति हो और राज्य के पास कोई मुकम्मल योजना न हो, तो आप क्या कहेंगे. बिजली आधुनिक विकास के लिए सबसे क्रिटिकल फैक्टर है. इसी तरह बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता और उत्पादित हो रही बिजली में भारी अंतर है.
जेएसइबी की वर्तमान उत्पादन क्षमता है, 715 मेगावाट, पर उत्पादन हो रहा है 220 मेगावाट. कोई गंभीरता से अध्ययन करनेवाला है कि यह स्थिति क्यों है? काम करनेवालों की संख्या अन्य बिजली बोर्डों से यहां अधिक है, करोड़ों-करोड़ों वेतन से लेकर अन्य लोगों की सुविधाओं पर खर्च हो रहे हैं, पर रिजल्ट क्यों नहीं मिल रहा. इस कम उत्पादन क्षमता के लिए दोषी कौन है, सरकार ने क्या दोषियों को दंडित किया है? विस्तार से इन विषयों पर चर्चा हो, तो राज्य को मालूम होगा कि बिजली की खराब स्थिति के लिए जिम्मेवार कौन है?
राज्य बनने के समय से ही बिजली मंत्री से लेकर के सारे बड़े अधिकारी नियमित बिजली देने का आश्वासन देते रहे हैं. झारखंड के दूर-दराज इलाकों में तो कई जिलों में तो शायद ही बिजली जाती हो. अब डालटनगंज या ऐसे अन्य इलाकों में जहां बिजली जाती ही नहीं, कौन आयेगा? कौन निवेश करेगा? इस विषय पर एक गंभीर बहस के साथ-साथ वैकल्पिक समयबद्ध योजना की जरूरत है और वैसी ही सक्षम टीम की. विधानसभा में बिजली संकट पर बहस तो हुई पर विकल्प क्या है यह कोई प्रस्तुत नहीं कर सका. सरकार के पास अब तक कोई ठोस योजना नहीं है. कब तक लोग ठगे जाते रहेंगे?
सूत्र – सात : आवागमन इंफ्रास्ट्रक्‍चर बढ़ाने में लगे
झारखंड में सड़क, रेल और हवाई अड्डो को बेहतर बनाने के लिए राज्य सरकार की समयबद्ध नीति होनी चाहिए. नेशनल हाइवे और स्टेट हाइवे की सड़कें विकसित राज्यों के समकक्ष बनें, जिस पर गाड़ी 30-40 की रफ्तार से चले. सबसे जरूरी है कि बेहतर ट्रांसपोर्ट का विकास हो. गरीब आदमी भी कम समय में सुविधा से यात्रा कर सके. आज कुछ इलाकों में ट्रेकरों पर जानवर की तरह लोग यात्रा करते हैं, उनकी पीड़ा देखनेवाला कोई है.
साथ ही जिलों-गांवों को अच्छी सड़कों से जोड़ा जाये. कोडरमा-हजारीबाग-रांची रेल लाइन की अब कोई चर्चा ही नहीं होती. रांची और झारखंड से देश के बड़े शहरों तक अच्छी रेल सेवा हो, यह कोशिश होनी चाहिए. इस बार रेल बजट में झारखंड को काई खास महत्व नहीं मिला, पर झारखंड के सांसद मौन बने रहे.
मात्र दक्षिण के एक राज्य में कई-कई हवाई अड्डे हैं. झारखंड में जमशेदपुर में क्यों नहीं हवाई अड्डा बन सकता है? रांची में देश के महत्वपूर्ण शहरों को क्यों नहीं जोड़ा जा सकता है? अगर कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र वगैरह के लोग 500 से एक रुपये में हवाई यात्रा कर सकते हैं, तो झारखंड के लोगों को यह मौका क्यों नहीं मिले?
झारखंड का ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्‍चर कैसी हो, इस पर बेहतर प्रारूप बना कर विधानसभा में चर्चा हो, तो एक माहौल बनेगा.
पता नहीं झारखंड की सरकार, विधायक, सांसद और नौकरशाह यह जानते हैं कि नहीं ? अब आइटी कंपनियों की निगाह हैदराबाद, चेन्नई बंगलूर से आगे बढ़ कर पुणे पहुं च गयी है. उनका मानना है कि पुणे में दोनों लाभ हैं, वह छोटा शहर भी है और बड़ा भी. आइटी कंपनियों का तेजी से विस्तार पुणे में हो रहा है.
इसके पीछे एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि बड़े महानगरों में एयरपोर्ट पहुं चने में घंटे- दो घंटे लग जाते हैं, उद्यमी चाहते हैं कि हवाई अड्डा 10-15 मिनट में पहुं चा जा सके. पुणे में यह तैयारी हो रही है कि 10-15 मिनट में एयरपोर्ट पहुं चने की सड़क, ट्रैफिक वगैरह की व्यवस्था हो. यह खुली प्रतियोगिता का दौर है, अगर आप बेहतर इन्फ्रास्ट्रˆर देंगे, तो लोग आयेंगे या लौट जायेंगे?
पुणे के पास ही शरद पवार का बारामती संसदीय क्षेत्र है. देश के विकसित क्षेत्रों में से एक बारामती के किसान भी आइटी का लाभ लेकर अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर बना रहे हैं. डेयरी, खेती, पढ़ाई, आवागमन, उद्योग धंधे की दृष्टि से शरद पावर ने ‘बारामती’ को एक सफल ‘माडल’ बना दिया है.
क्या हमारे विधायक-सांसद अपने-अपने क्षेत्रों को माडल बनाने का संकल्प नहीं ले सकते? दो दिनों पहले, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालान कलकत्ता में थे. अपनी पुस्तक ‘द फ्यूचर ऑफ इंडिया’ के लोकार्पण समारोह में उन्होंने वहां कहां कि कोलकाता में उपलब्ध मानव संसाधन से यहां आइटी उद्योग तेजी से बढ़ेगा.
कोलकाता, दक्षिण पूर्व और पूर्व एशिया का ‘गेटवे’ (प्रवेश द्वार) है, इसलिए, इसका भविष्य उज्जवल है. बंगाल की माकपा सरकार का पूरा प्रयास है कि वह बंगाल को कैसे पूर्व भारत का आइटी सेंटर बनाये. क्या झारखंड में ऐसी कोई तैयारी है?
सूत्र – आठ : पर्यटन : बड़ा उद्योग है
झारखंड में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं. आज केरल पर्यटन उद्योग से दुनिया के नक्शे पर पहुं च गया है, जो झारखंड पहले बंगाल-बिहार वगैरह के पर्यटकों के लिए आकर्षण केंद्र था, वहां अब कोई आना नहीं चाहता. कानून-व्यवस्था, आवागमन, होटल-लॉज वगैरह की समस्याओं से क्या पर्यटन उद्योग को बेहतर बनाने के लिए कोई मुकम्मल योजना नहीं बन सकती है? पर्यटन से आय, रोजगार की कितनी संभावनाएं है.
इस पर व्यापक अध्ययन करा कर विधानसभा के पटल पर किसी विधायक को ब्ल्यूप्रिंट रखना चाहिए. केंद्र सरकार का पर्यटन मंत्रालय लगातार देश के अन्य हिस्सों में पर्यटन में बड़ी मदद कर रहा है. झारखंड में पिछले चार वर्षों में कितने पैसे आये और कितने खर्च हुए , विधायकों को पता है?
झारखंड के शहरो पर ‘गवर्नेस’ भी भगवान भरोसे है. बढ़ती गाड़ियों की संख्या, पर्यावरण संकट, पेयजल संकट, पर कोई अल्पकालीन या दीर्घकालीन योजना सरकार के पास है? केंद्र सरकार, वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक वगैरह शहरों की अव्यवस्था ठीक करने में पूंजी और ‘एक्सपर्टाइज’ (विशेषज्ञों) दोनों की मदद ले रहे हैं, क्या झारखंड में यह लाभ सरकार ले रही है? क्या हमारे विधायक इन चीजों के बारे में जानते हैं?
इसी तरह जल, जंगल, जमीन, भ्रष्टाचार, पर्यावरण संकट से जुड़े अनेक मुद्दे है, जिन पर विधायक गहराई में जायें, तो हर समस्या के समाधान का विकल्प वे ढूंढ सकते है. विधानसभा में राज्य के भविष्य से जुड़े इन ‘ब्लूप्रिंटों’ पर बहस होगी, तो राज्य की जनता को संदेश जायेगा कि हमारे विधायक हमारा भविष्य बेहतर बनाने में लगे है. इस प्रयास से ही ‘झारखंड’ की अलग पहचान देश में बन सकती है. सवाल है कि क्या हमारे विधायक इसके लिए तैयार है?

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