।। प्रमोद जोशी ।।
हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सर्वे के लिए सही सांचा ही तैयार नहीं हो पाता है. सर्वेक्षकों की विश्वसनीयता को लेकर सामान्य वोटर की दिलचस्पी नहीं दिखती. और न उसे पेश करनेवाले मीडिया हाउसों को उसे लेकर फिक्र दिखायी पड़ती है.
मोटे तौर पर यह एक व्यावसायिक कर्म है जो चैनल या अखबार को दर्शक और पाठक मुहैया कराता है. सर्वेक्षक अपनी अध्ययन पद्धति को ठीक से घोषित नहीं करते और न कोई उनकी टेब्युलेशन शीट्स को जांचता–बांचता है.
गामी विधानसभा चुनावों में चार राज्यों की तसवीर क्या होगी, इसे लेकर कयास शुरू हो गये हैं. इन कयासों को हवा दे रहे हैं चुनाव–पूर्व सर्वेक्षण जिन पर भले ही यकीन कम लोगों को हो, पर वे चर्चा के विषय बनते हैं. हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों में होने हैं लेकिन सर्वेक्षण करने वालों ने सारा ध्यान चार राज्यों पर केंद्रित कर रखा है.
हाल में जो सर्वेक्षण सामने आये हैं, वे कांग्रेस के हृस और भारतीय जनता पार्टी के उदय की एक धुंधली सी तसवीर पेश कर रहे हैं. सर्वेक्षणों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बारे में कमोबेश साफ, लेकिन दिल्ली के बारे में भ्रामक तसवीर बनायी है. इसकी एक वजह आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की उपिस्थति है, जो एक राजनीतिक समूह है. उसकी ताकत और चुनाव को प्रभावित करने के सामर्थ्य के बारे में कयास इस भ्रम को और भी बढ़ा रहे हैं.
तीन सर्वेक्षण तीन तरह के नतीजे दे रहे हैं, जिनसे इनकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा होते हैं. सर्वेक्षणों के बुनियादी अनुमानों में इतना भारी अंतर है कि संदेह के कारण बढ़ जाते हैं.
दिल्ली का महत्व
दिल्ली भारत के मध्य वर्ग का प्रतिनिधि शहर है. यहां पर होने वाली राजनीतिक हार या जीत के व्यावहारिक रूप से कोई माने नहीं हों, पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है. यहां से उठनेवाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं. हाल में दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ और उसके पहले अन्ना हजारे के आंदोलन की जमीन देश–व्यापी नहीं थी, पर दिल्ली में होने के कारण उसका स्वरूप राष्ट्रीय बन गया.
इसकी एक वजह वह खबरिया मीडिया है, जो दिल्ली में निवास करता है. दिल्ली की इसी प्रतीकात्मक महत्ता के कारण यहां के नतीजे महत्वपूर्ण होते हैं, भले ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघों के हों या दिल्ली विधानसभा के.
हाल में भाजपा के मंच पर प्रधानमंत्री के प्रत्याशी का नाम घोषित करने की प्रक्रिया पर जो ड्रामा शुरू हुआ था, उसका असर दिखायी पड़ने लगा है और इसमें भी पहल दिल्ली की है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ ही उनकी रैलियों का कार्यक्र म बन रहा है.
दिल्ली में हुई उनकी 29 सितंबर की रैली एक बड़ा मीडिया ईवेंट थी. भाजपा के शब्दों में ‘2014 की विजय का शंखनाद.’ पार्टी की दिल्ली इकाई ‘तबेले में लतिहाव’ की शिकार है. पर उसे इस शंखनाद से काफी उम्मीदें थीं. यह शायद पहला मौका था, जब किसी नेता की रैली से पहले उस स्थल का भूमि पूजन किया गया, मानो रैली में भाजपा के भगवान अवतरित होने वाले हों.
तीन सर्वेक्षण, तीन नतीजे
रैली से पहले अचानक दिल्ली के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण घोषित हो गये. तीन समाचार चैनलों और कुछ अखबारों ने इन सर्वेक्षणों को प्रसारित–प्रकाशित किया है. इनमें टाइम्स नाउ–सीवोटर, हेडलाइंस टुडे–सीवोटर और सीएनएन–आइबीएन–एचटी–सीफोर के सर्वे के कारण भ्रम तो था ही, योगेंद्र यादव के नेतृत्व में ‘आप’ के अपने सर्वे ने इसे और भ्रामक बना दिया.
बड़ा भ्रम यह है कि एक ही सर्वेक्षक दो तरह के नतीजे दिखा रहा है. टाइम्स नाउ के अनुसार दिल्ली में कांग्रेस को 29, भाजपा को 30 और आप को नौ सीटें मिलेंगी. हेडलाइंस टुडे में यह संख्या इसी क्र म में 28, 28 और सात हो जाती है. इसके विपरीत एचटी–सीफोर के अनुसार कांग्रेस को 32-37, भाजपा को 22-27 और ‘आप’ को 7-12. ‘आप’ के सर्वे में सीटों का जिक्र नहीं है, पर वह सबसे बड़ी पार्टी होगी और संभवत: पूर्ण बहुमत पायेगी.
एचटी–सीफोर के अनुसार दिल्ली में भाजपा को 32 फीसदी, कांग्रेस को 34 फीसदी और ‘आप’ को 21 फीसदी वोट मिलेंगे. ‘आप’ के अनुसार दिल्ली में भाजपा को 23, कांग्रेस को 24 और ‘आप’ को 32 फीसदी वोट मिलेंगे. तीन कोण के मुकाबले में 32 फीसदी वोट आराम से पूर्ण बहुमत दिलाते हैं. उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 30 फीसदी के करीब वोटों से अच्छा खासा बहुमत हासिल कर लिया था.
सन 2008 के दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस को 40.31 और भाजपा को 36.34 फीसदी वोट मिले थे. तब आमने–सामने का मुकाबला था. इस बार तीसरी पार्टी के आने का क्या असर होगा, किसके वोट किसके पास जायेंगे और स्विंग के कारण सीटों पर क्या फर्क पड़ेगा, इसे किसी ने स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की है. टाइम्स नाउ–सीवोटर के अनुसार ‘आप’ को 16 फीसदी वोट मिलेंगे.
बसपा का जिक्र ही नहीं
इनमें से कोई भी बसपा के बारे में बात नहीं कर रहा, जिसे पिछली बार 14.04 फीसदी वोट मिले थे और जिसके वोट खिसकना आसान नहीं है. कहना मुश्किल है कि सर्वेक्षक बसपा के वोटर तक पहुंच भी पाये या नहीं. एचटी–सीफोर के अनुसार इस बार बसपा को सात फीसदी वोट मिलेंगे. किसका क्या गणति है समझ में ही नहीं आता.
एचटी–सीफोर का दावा है कि दिल्ली के 14,689 वोटरों को इस सर्वेक्षण में शामिल किया गया है. औसतन हर क्षेत्र में तकरीबन 200 वोटर. ‘आप’ का दावा है कि वह 35,000 वोटरों का सर्वे करा रहा है यानी औसतन 500 वोटर. सीवोटर ने चारों विधानसभाओं की 590 सीटों के लिए 39,000 वोटरों के सर्वे का दावा किया है, यानी हर सीट पर 60 से 70 वोटर.
आप कल्पना करें कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सुदूर और विविध जन–संस्कृतियों वाले इलाकों से कोई राय किस तरह निकल कर आयी होगी. एक फॉर्म भरने में तीन से पांच मिनट का समय लगे और एक वोटर से दूसरे वोटर तक जाने में दस मिनट का समय भी लगे और एक बूथ से दूसरे बूथ में जाने का समय भी इसमें जोड़ें, तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि छोटे से छोटे सैम्पल में भी कितना समय लगेगा.
योगेंद्र यादव का सर्वे
आम आदमी पार्टी ने अपनी पार्टी की तरफ से कराये सर्वे को मीडिया के सामने रखा. वहीं सर्वे का पूरा डेटा पार्टी की वेबसाइट पर अपलोड किया गया है. पार्टी का दावा है कि विधानसभा चुनाव में न सिर्फ उनकी सरकार बनने जा रही है, बल्कि नयी दिल्ली सीट से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर अरविंद केजरीवाल ने बढ़त हासिल की है. ‘आप’ ने सर्वे योगेंद्र यादव की देखरेख में कराया है.
उसका कहना है कि योगेंद्र यादव ‘आप’ के वरिष्ठ नेता हैं. इसलिए सवाल उठेगा कि यह ‘आप’ का सर्वे है, इस पर कैसे यकीन करें? यही सवाल उन मीडिया कंपनियों पर भी उठेगा जिनके मालिक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से विभिन्न पार्टियों से जुड़े हैं.
इसका एक ही तरीका है–पारदर्शिता. यदि सभी एजेंसियां, टीवी चैनल और पार्टियां अपने–अपने सर्वे का पूरा का पूरा आंकड़ा अपनी वेबसाइट पर डाल दें, तो जनता तय कर लेगी कि कौन–सा सर्वे विश्वास करने लायक है. ‘आप’ ने अपना कच्चा डेटा अपनी वेबसाइट पर रखा है. ‘आप’ ने तीन बार सर्वे कराया–फरवरी में, अगस्त के अंत में और तीसरा अभी चल रहा है.
पहले दो सर्वे पूरी दिल्ली की स्तर पर कराये गये, जबकि तीसरा सभी 70 विधानसभाओं के स्तर पर अलग–अलग कराया जा रहा है. इस तीसरे सर्वे में 70 में से केवल 22 विधानसभा क्षेत्रों के नतीजे आये हैं. पहले सर्वे में टोटल सैम्पल साइज 3310 था. दूसरे में 3325 और तीसरे में हर विधानसभा स्तर पर 500-500 का सैम्पल लिया जा रहा है. अंतत: 35000 का सैम्पल पूरे दिल्ली के स्तर पर लिया जायेगा.
‘आप’ के अनुसार फरवरी में भाजपा को मिलने वाले वोट 35, कांग्रेस को 35 और आप को 14 फीसदी थे, जो अगस्त में क्र मश: 31, 26 और 27 फीसदी और सितंबर में 23, 24 और 32 फीसदी हो गए. यानी ‘आप’ सबसे आगे है. इसके अनुसार बतौर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल 41 फीसदी दिल्लीवासियों की पसंद हैं. दूसरा स्थान शीला दीक्षित (25%) और तीसरा विजय गोयल (20%) का है. साथ ही 41 फीसदी लोग राजधानी में ‘आप’ की सरकार बनते देखना चाहते हैं.
बेशक ‘आप’ ने पिछले एक साल में दिल्ली में लगातार अपनी उपस्थिति बनाये रखी है. यह सर्वे उसके आंतरिक उपभोग के लिए नहीं है, बल्कि प्रचार के लिए है. महत्वपूर्ण यह है कि उसके निष्कर्ष दूसरी संस्थाओं के निष्कर्षो से काफी अलग हैं. महत्वपूर्ण यह भी है कि दूसरी संस्थाओं के निष्कर्ष भी एक–दूसरे के विपरीत हैं.
कांग्रेस ही जीतेगी
हिंदुस्तान टाइम्स के लिए सीफोर के ओपिनियन पोल के अनुसार ‘आप’ ने बीजेपी के वोट काटे हैं. इस सर्वे में दावा किया गया है कि दिल्ली के अलग–अलग जातीय समूहों से, जिनमें 48 फीसदी महिलाएं थीं, बात की गयी. सर्वे के अनुसार जिन लोगों ने भी आम आदमी पार्टी को वोट देने की बात कही थी, उनसे यह भी पूछा गया कि अगर आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ नहीं होती, तो आप किसे वोट देते.
54 फीसदी लोगों का जवाब था– भाजपा को देते. 34 फीसदी लोगों ने कहा कांग्रेस को देते. सिर्फसात फीसदी ने बसपा और पांच फीसदी ने अन्य और निर्दलीयों की बात कही. यानी आप ने बीजेपी के वोट काट लिये. सर्वे का निष्कर्ष है कि कांग्रेस के खिलाफ माहौल तो बना, पर ‘आप’ ने उस दोष को दूर कर दिया.
विश्वसनीयता का संकट
कोई दावा नहीं कर सकता कि हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पूरी तरह विश्वसनीय होते हैं. हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सर्वेक्षण के लिए सही सांचा ही तैयार नहीं हो पाता है. सर्वेक्षकों की विश्वसनीयता को लेकर सामान्य वोटर की दिलचस्पी दिखायी नहीं देती.
और न उसे पेश करनेवाले मीडिया हाउसों को उसे लेकर फिक्र दिखायी पड़ती है. मोटे तौर पर यह एक व्यावसायिक कर्म है जो चैनल या अखबार को दर्शक और पाठक मुहैया कराता है. सर्वेक्षक अपनी अध्ययन पद्धति को ठीक से घोषित नहीं करते और किसी के पास समय नहीं होता कि उनकी टेब्युलेशन शीट्स को जांचा–बांचा जाए.
चुनाव आयोग ऐसे सर्वेक्षणों की चुनाव के दौरान अनुमति नहीं देता इसलिए चुनाव के काफी पहले से ये शुरू हो जाते हैं. इस साल जनवरी से इस किस्म के सर्वेक्षणों के निष्कर्ष सामने आ रहे हैं और दो या तीन महीने की अवधि के बाद ये दोबारा आते हैं. हमारा वोटर प्राय: वोट देने में बिचौलियों की मदद लेता है और चुनाव के काफी पहले उसके निर्णय का पता लगा पाना मुश्किल होता है.
बहरहाल एक्जिट पोल एक हद तक वोटर के मन को प्रकट कर पाते हैं. पर उनके परिणाम तभी आते हैं, जब चुनाव का आखिरी दौर पूरा हो जाये. उसके पहले के सर्वेक्षण माहौल बनाने का काम करते नजर आते हैं.
(बीबीसी से साभार)