जिन क्षेत्रों में उद्यमी ने क्षमता हासिल कर ली है, उनसे सरकार को पीछे हट जाना चाहिए. वित्त मंत्री को चाहिए कि इन क्षेत्रों की इकाइयों का पूर्ण निजीकरण कर दें और मिली रकम का उपयोग नये क्षेत्रों में नयी इकाइयों को स्थापित करने में करें.
कर्मचारियों द्वारा की गयी हड़ताल के दबाव में सरकार ने आश्वासन दिया है कि कोल इंडिया का निजीकरण नहीं किया जायेगा. वित्त मंत्री ने संकेत दिया है कि घाटे में चलनेवाली सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के प्रति सरकार खुली है. विशेषकर वित्त मंत्री का चार इकाइयों पर ध्यान है, जिन्हें पुनर्जीवित करना कठिन पाया गया है. इनके निजीकरण पर भी वित्त मंत्री का प्रयास ढीला है. उन्होंने केवल इनके निजीकरण पर ‘खुले’ होने की बात कही है, जैसे दुकानदार कहता है कि ग्राहक के लिए दरवाजे खुले हैं.
शेष सैकड़ों सार्वजनिक इकाइयों को वित्त मंत्री सरकार की छत्रछाया में ही रखना चाहते हैं. संसद में दिये गये एक जवाब में उन्होंने बताया कि 79 सार्वजनिक इकाइयां घाटे में चल रही हैं. इनमें देश की 1.6 लाख करोड़ रुपये की पूंजी लगी हुई है. इस निवेश की उगाही कर ली, जाये तो देश के हर नागरिक को एक बड़ी राशि मिल सकती है. इन इकाइयों को जीवित रखने के लिए सरकार 10,000 करोड़ रुपये प्रति वर्ष और खर्च कर रही है. विशेष यह कि घाटे में चलनेवाली अन्य 75 इकाइयों तथा लाभ में चलनेवाली सैकड़ों इकाइयों के निजीकरण की सरकार को जरूरत नहीं दिख रही है. हां यदि ये भी घाटा देने लगीं तो सरकार इनके निजीकरण पर विचार करेगी अन्यथा नहीं.
वित्त मंत्री ने 58,425 करोड़ रुपये की विशाल राशि विनिवेश के माध्यम से अजिर्त करने का लक्ष्य रखा है. विनिवेश तथा निजीकरण की प्रक्रियाओं में मौलिक अंतर है. विनिवेश में इकाई पर सरकार का स्वामित्व बना रहता है. कंपनी के 49 प्रतिशत से कम शेयर बाजार में बेचे जाते हैं, जबकि निजीकरण में 51 प्रतिशत या अधिक शेयर क्रेता को बेच दिये जाते हैं, जिससे कंपनी का स्वामी बदल जाता है. विनिवेश के माध्यम से सार्वजनिक इकाइयों की समस्या का हल नहीं होगा, क्योंकि इनका कामकाज सरकारी ढंग से ही चलता रहता है. कंपनियों के बोर्ड पर स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति की जाती है. कंपनी के शेयरों का स्टाक एक्सचेंज में व्यापार होता है. निवेशकों की कंपनी के कार्यकलापों पर नजर रहती है. प्रबंधन में गड़बड़ी होने पर शेयर के दाम घटने लगते हैं और सरकार सचेत हो जाती है. स्टाक एक्सचेंजों के साथ समझौते के अनुरूप कंपनी द्वारा तमाम सूचनाएं सार्वजनिक की जाती हैं. परंतु सार्वजनिक कंपनियों का मूल चरित्र पूर्ववत् बना रहता है.
वित्त मंत्री को चाहिए कि सार्वजनिक इकाइयों की मूल समस्या पर ध्यान दें. कौटिल्य इस समस्या पर प्रकाश डालते हैं. ‘अर्थशास्त्र’ में आप लिखते हैं : ‘जिस प्रकार जीभ पर रखे गये शहद अथवा जहर का स्वाद न लेना संभव नहीं है, उसी प्रकार सरकारी अधिकारी द्वारा राजस्व के एक हिस्से का गबन न करना संभव नहीं है.’ सार्वजनिक इकाइयों के कर्मियों द्वारा इकाइयों का इसी प्रकार दोहन किया जाता है और कंपनी डूब जाये, तो भी कर्मी को व्यक्तिगत लाभ हो सकता है. सार्वजनिक इकाइयों को सरकार से अनुदान मिलता रहता है और इनके भ्रष्ट कर्मचारियों का धंधा चलता रहता है. इन इकाइयों की जवाबदेही मंत्री अथवा सरकारी ऑडिटर के प्रति रहती है, जो सब एक ही कुनबे के सदस्य होते हैं.
सार्वजनिक इकाइयों की इस मौलिक समस्या के बावजूद इनका महत्व है. जैसे पचास के दशक में दुर्गापुर तथा भिलाई जैसे स्टील के कारखाने सार्वजनिक क्षेत्र में लगाये गये. इनमें रिसाव हो तो भी ये देश के लिए लाभदायक रहते हैं, चूंकि इनके अप्रत्यक्ष लाभ अधिक रहते हैं. अथवा मेट्रो को लगाने तथा संचालित करने का सामथ्र्य संभवतया निजी उद्यमियों में नहीं है. ऐसे कार्यो के लिए सार्वजनिक इकाइयों की स्थापना जरूरी है. लेकिन एचएमटी द्वारा घड़ी तथा ट्रैक्टर बनाने या कोल इंडिया द्वारा खनन करने का कोई औचित्य नहीं है. जहां अप्रत्यक्ष लाभ अधिक हों, केवल वहां रिसाव की मार को देश द्वारा वहन करना उचित होता है.
जिन क्षेत्रों में उद्यमी ने क्षमता हासिल कर ली है, उनसे सरकार को पीछे हट जाना चाहिए. तेल रिफाइनरी, बैंक, इन्श्योरेंस, कोयले, तांबे, खनिजों का खनन, चीनी उत्पादन आदि क्षेत्रों में निजी क्षेत्र सक्षम हैं. वित्त मंत्री को चाहिए कि इन क्षेत्रों की इकाइयों का पूर्ण निजीकरण कर दें और मिली रकम का उपयोग नये क्षेत्रों में नयी इकाइयों को स्थापित करने में करें. छोटे देशों के पास डब्ल्यूटीओ तथा अन्य वैश्विक अदालतों में अपने मामलों की पैरवी करने की क्षमता नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र में एक कंसल्टेंसी कंपनी बना कर इस सेवा को उपलब्ध कराना चाहिए.
वित्त मंत्री को समझना चाहिए कि सरकारी कर्मी मूल रूप से भ्रष्ट एवं स्वार्थी होते हैं. इस दुष्चरित्र के बावजूद किन्हीं क्षेत्रों में इनकी जरूरत रहती है. जो कार्य निजी क्षेत्रों द्वारा संपादित नहीं किये जा सकते हैं, उन कार्यो मात्र में उन्हें लगाना चाहिए. सार्वजनिक इकाइयों की उपयोगिता केवल नये क्षेत्रों में है. पुराने क्षेत्रों से इन्हें बाहर कर देना चाहिए.
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
bharatjj@gmail.com