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स्वच्छता अभियान : कुछ जरूरी बातें

इस राष्ट्रव्यापी अभियान में इतने बड़े पैमाने पर मानवीय एवं वित्तीय ऊर्जा का निवेश किया जा रहा है, पर चूंकि असली मुद्दों को संबोधित नहीं किया जा रहा है, इस वजह से मुहिम के अपने मकसद में सफल होने के आसार न्यूनतम ही दिखते हैं. ‘हिंदू सामाजिक व्यवस्था एक ऐसे श्रम विभाजन पर टिकी है, […]

इस राष्ट्रव्यापी अभियान में इतने बड़े पैमाने पर मानवीय एवं वित्तीय ऊर्जा का निवेश किया जा रहा है, पर चूंकि असली मुद्दों को संबोधित नहीं किया जा रहा है, इस वजह से मुहिम के अपने मकसद में सफल होने के आसार न्यूनतम ही दिखते हैं.

‘हिंदू सामाजिक व्यवस्था एक ऐसे श्रम विभाजन पर टिकी है, जिसमें ‘हिंदुओं’ के लिए साफ-सुथरे और सम्मानित काम आरक्षित रखे गये हैं और ‘अछूतों’ के लिए गंदे एवं हल्के काम सौंपे गये हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वह हिंदुओं को सम्मान से ढंक देती है और अछूतों को गुमनामी थोपती है.’ (द रिवॉल्ट ऑफ द अनटचेबल्स, डॉ आंबेडकर : रायटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 5. मुंबई. महाराष्ट्र सरकार, 1989, पेज 256-58)

बहुत गाजेबाजे के साथ शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान को लेकर दिल्ली के कूड़ा बीननेवाले संजय की दिलचस्प प्रतिक्रिया थी. संजय ने अफसरों और मंत्रियों के हाथों में झाड़ू देख कर कहा ‘यही वह लोग हैं, जिनके घरों से हम रोज कूड़ा उठाते हैं. यह हमारी जिंदगी का हिस्सा है. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इसी बात को लेकर इतना हंगामा क्यों किया जा रहा है.’ (हिंदुस्तान टाइम्स, 3 अक्तूबर, 2014). संजय उन तीन लाख लोगों में शामिल है, जो हम सभी के जीवन से लगभग ओझल रहते हैं, लेकिन राजधानी के कूड़ा प्रबंधन में अहम रोल अदा करते हैं. एनजीओ के कार्यकर्ता बताते हैं कि अगर कूड़ा बीननेवालों ने काम रोक दिया, तो पूरा शहर ठप पड़ सकता है. विडंबना यही है कि भले ही सरकारें, नगरपालिकाएं उनके काम से लाभ लेती हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर उनकी उपस्थिति से इनकार ही करती हैं.

वैसे स्वच्छ भारत अभियान जैसी योजनाओं से कूड़ा बीननेवालों का हाशियाकरण, उनकी उपस्थिति से भी इनकार आश्चर्यचकित नहीं करता है. वह उन ‘मौनों’, ‘खामोशियों’ का ही प्रतिबिंबन है, जिनके साथ इस मुहिम का आगाज हुआ है. उदाहरण के लिए, जहां विश्लेषकों ने महात्मा गांधी की विरासत को महज स्वच्छता तक न्यूनीकृत करने की बात रेखांकित की है, वहीं कहा है कि किस तरह उपनिवेशवाद के खिलाफ उनके ताउम्र संघर्ष, हर किस्म की सांप्रदायिकता के खिलाफ जद्दोजहद एवं एक समावेशी समाज रचना के लिए चली उनकी कोशिशों पर इसी बहाने परदा डाल दिया गया है, उनके प्रति सूचक मौन बरता गया है.

गौर करें, अभियान के दौरान शपथ दिलायी गयी है, ‘अब हमारा कर्तव्य होगा कि गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करें.’ यह पूछा जा सकता है कि इस आपाधापी में क्या किसी ने ‘जातिप्रथा’ का जिक्र सुना, जो हमारे यहां विकसित एक अनोखा सोपानक्रम है- जिसे धर्म, ईश्वरीय स्वीकृति हासिल है, समाज की तरफ से वैधता भी मिली हुई है- जिसने जनता के एक हिस्से को ही सफाई, झाड़ू लगाना और मल उठाना जैसे ‘पेशे’ में रहने के लिए सदियों से अभिशप्त कर रखा है. मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में इनके अलग-अलग नाम हैं. संविधान निर्माता डॉ आंबेडकर के लेखन एवं संघर्ष पर गौर करके हम समझ सकते हैं कि जब तक जाति उन्मूलन नहीं होगा, तब तक क्या धर्म, परंपरा के नाम पर उत्पीड़ित समुदायों को जिन ‘पेशों’ के साथ नत्थी किया गया है, उनसे वे मुक्त हो सकते हैं? क्या शेष समाज उन ‘पेशों’ को अपना सकता है?

मोदीजी ने अभियान की शुरुआत उसी वाल्मीकि बस्ती से की, जहां गांधी पहले कभी रुका करते थे. क्या यह उनके इस चिंतन का ही नतीजा था, जिसके तहत उन्होंने 2007 में लिखी ‘कर्मयोग’ नामक किताब में सफाई को ‘अध्यात्मिक अनुभव’ का दर्जा दिया था? विडंबना यह है कि मोदीजी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि ऐसा कदम एक समाज को फिर से अपने उस ‘पेशे’ की याद दिला सकता है, जिसने उसे हजारों साल से अपमानित जिंदगी दी है. वह भी ऐसे वक्त में, जबकि समूचे उत्पीड़ित समाज में अंदर से आलोड़न उठा हो कि ‘झाड़ू छोड़ो, कलम उठाओ.’

स्वच्छता अभियान पर गुजरात के पर्यावरणवादी कार्यकर्ता रोहित प्रजापति पूछते हैं- ‘मोदीजी स्वच्छ भारत की बात कर रहे हैं, पर गुजरात में तो कचरा प्रबंधन और प्रदूषण नियंत्रण का उनका रिकॉर्ड गंदा है!’ वह गुजरात में मोदीजी द्वारा अपने मुख्यमंत्रित्व काल में शुरू की गयी ‘निर्मल गुजरात’ योजना पर तथ्य पेश करते हैं कि इस मुहिम के बड़े-बड़े दावे पेश किये गये, मगर वास्तविकता देखनी हो तो अहमदाबाद की ‘ग्यासपुर पिराना डंपिंग साइट’ को देख सकते हैं. वह इस तथ्य को भी उजागर करते हैं कि मोदी के सत्ता में आने पर देश के 88 औद्योगिक क्लस्टर्स के पर्यावरण को सुधारने का काम हाथ में लेने के बजाय उलटे उन पर लगी पाबंदियों को हटाने का सिलसिला एक आदेश के जरिये शुरू किया गया, (10 जून, 2014) और एक प्रश्न के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं कि क्या इन क्लस्टर्स को साफ करने की योजना सरकार के पास है?

जाहिर है, इस राष्ट्रव्यापी अभियान में इतने बड़े पैमाने पर मानवीय एवं वित्तीय ऊर्जा का निवेश किया जा रहा है, मगर चूंकि असली मुद्दों को संबोधित नहीं किया जा रहा है, इस वजह से इस मुहिम के अपने मकसद में सफल होने के आसार न्यूनतम ही दिखते हैं.

सुभाष गाताडे

सामाजिक कार्यकर्ता

subhash.gatade@gmail.com

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