काले रंग को नाकामयाबी से जोड़ने का चलन, अकारण ही गोरी त्वचा को कटघरे में खड़ा कर देता है, जैसे गोरे लोगों को सब कुछ सिर्फ उनके रंग की वजह से ही मिलता है. इस तरह हम किसी के सफर को सिर्फ उसके रंग-रूप से नहीं आंक सकते.
एक लड़की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाती है. उसका चुनाव सिर्फ इस वजह से नहीं होता, क्योंकि लड़की का रंग सांवला है. वह अपनी इस नाकामी से बहुत निराश होती है. तभी उसकी जिंदगी में आशा की किरण बन कर आती है वह फेयरनेस क्रीम, जिसके इस्तेमाल के कुछ रोज बाद ही आप गोरे हो जाते हैं! यह कोई ऐसा-वैसा गोरापन नहीं है, इस गोरेपन में आपका चेहरा ‘फ्लोरोसेंट बल्ब’ की तरह चमकने लगता है! वही लड़की अब अपना ‘सीएफएल नुमा चेहरा’ लिये फिर इंटरव्यू के लिए जाती है. लड़की के चेहरे से निकलते तेज के आगे नतमस्तक होने के लिए कंपनी का मालिक अपनी कुर्सी से खड़ा हो जाता है. जब मालिक फिदा हो जाये, तो नौकरी आपकी मुट्ठी में.
एक लड़की गायिका बनना चाहती है. लेकिन किस्मत की मारी बेचारी सांवली है. अब अगर आपका रंग ही सांवला हो, तो आप सुरीले कैसे हो सकते हैं! लड़की के पिता उसे चमत्कारी फेयरनेस क्रीम लाकर देते हैं. बस फिर क्या, चेहरा बल्ब की तरह दमकने लगता है और सुर चहकने लगते हैं. लड़की ‘स्टार सिंगर’ बन जाती है.
ऊपर लिखे दोनों ही किस्से किसी की भी असल जिंदगी के हिस्से नहीं हैं. ये दोनों ही ‘ओवर द टॉप’ एड्वर्टाइजिंग के नमूने हैं. कुछ साल पहले तक फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन विवाह या प्रेम केंद्रित होते थे. जैसे एक लड़की के सांवलेपन की वजह से लड़केवालों ने रिश्ते से इनकार कर दिया. या, एक लड़की किसी से प्रेम करती है, मगर लड़के को दूसरी गोरी त्वचा वाली लड़की पसंद है. ऐसे में बताया जाता था कि सात दिन के अंदर रंग निखारिये और जीवनसाथी पाइये. अब चूंकि समाज बदल रहा है और लड़कियां घर की चौखट लांघ रही हैं, तो कंपनियों ने अपने ‘टारगेट ग्रुप’ को लुभाने के पैंतरे बदल लिये हैं. बेशक एड्वर्टाइजिंग में बदलाव कंपनी के वित्त के लिए होते हैं, समाज के हित के लिए नहीं.
भारत में सौंदर्य उत्पादों का बाजार 9,000 करोड़ रुपयों से अधिक का है. इसमें फेयरनेस क्रीम/ब्लीच का हिस्सा 3,000 करोड़ से ज्यादा का है. यही वजह है कि लॉरियल या नीविया जैसी बड़ी विदेशी कंपनियां जब भारत आती हैं, तो वे भी यहां के मार्केट के अनुसार अपनी-अपनी गोरेपन की डिब्बियां दुकानों में सजा देती हैं. आज बाजार में रंग निखारने के लिए फेस क्रीम, बॉडी लोशन, फेस वॉश के साथ ही अंडर-आर्म को गोरा बनाने के डियोड्रंट तक मौजूद हैं. अंगरेजी कहावत ‘टॉल, डार्क एंड हैंडसम’ को ‘फेयर एंड हैंडसम’ में बदलने की कवायद भी जारी है.
पिछली सदी में दुनिया के एक बड़े हिस्से ने रंगभेद के संघर्ष को देखा और जिया. यही वजह है कि वक्त गुजरने के साथ-साथ पश्चिमी और अफ्रीकी देश रंगभेद के मसले पर संवेदनशील हुए. हालांकि, यह संवेदनशीलता दक्षिण-एशियाइ देशों तक नहीं पहुंची, क्योंकि यहां धर्म और जाति ज्यादा बड़ा मसला था. आज हमारा कानून धर्म और जाति के आधार पर हुए भेदभाव को लेकर सख्त है. वैसे अभी मंजिल बहुत दूर है, पर हमने चलना तो शुरू कर ही दिया है. धर्म या जाति की तरह रंग भी इंसान पैदा होते हुए खुद नहीं चुनता. इंसान धर्म बदल सकता है, लेकिन प्रकृति ने आप पर जो रंग चढ़ाया है, उसे उतारा नहीं जा सकता.
फेयरनेस प्रोडक्ट्स के विज्ञापन रंगभेद को बढ़ावा देते हैं. ये काले या सांवले रंग के लोगों के बीच हीन भावना भर कर उन्हें अपने उपभोक्ताओं में बदलने की कोशिश करते हैं. सेल्फ-रेगुलेटरी संस्था एड्वर्टाइजिंग स्टैंडर्डस काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआइ) की ‘कोड-बुक’ चैप्टर-3, 1 बी में धर्म, जाति, नस्ल या रंग के आधार पर टिप्पणी करने की मनाही है, लेकिन विज्ञापन कंपनियां इसकी अनदेखी करती रही हैं. यही वजह है कि ब्यूटी प्रोडक्ट्स ने, त्वचा और स्वाभिमान के लिए हानिकारक होते हुए भी, नि:संकोच चारों तरफ पैर पसार लिये हैं.
पिछले हफ्ते एएससीआइ ने इन कंपनियों के लिए कुछ गाइडलाइंस लागू कीं. इनके अनुसार फेयरनेस प्रोडक्ट्स के विज्ञापनों को कई बातों के लिए मना किया गया है, जैसे रंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव दिखाना. गहरे रंग के लोगों को निराश, नाकाम, नाखुश या यह दिखाना कि वे अपने रंग की वजह से किसी तरह के नुकसान में हैं. रंग के आधार पर लैंगिक भेदभाव के अलावा काले या गोरे रंग को किसी खास समुदाय, जाति, व्यवसाय या नस्ल से जोड़ना आदि.
विज्ञापन खूबसूरती को बेहद बदसूरती के साथ स्टेरियोटाइप करते हैं. काले रंग को नाकामयाबी से जोड़ने का चलन, बिना मतलब ही गोरी त्वचा को कटघरे में खड़ा कर देता है, जैसे गोरे लोगों को सब कुछ सिर्फ उनके रंग की वजह से ही मिलता है. हर इंसान की जिंदगी की लड़ाई अलग होती है, हर किसी का अपना रास्ता और संघर्ष होता है, हम किसी के सफर को सिर्फ उसके रंग-रूप से नहीं आंक सकते. सामान्यीकरण ने न कभी समाज का भला किया है, न ही किसी व्यक्ति विशेष का.
फौजिया रियाज
स्वतंत्र पत्रकार
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