राज्यपाल के बारे में संविधान में मोटे तौर पर तीन बातें कही गयी हैं. हर राज्य में एक राज्यपाल होगा. राज्यपाल को कार्यपालिका संबंधी और विधायी अधिकार दिये गये हैं.
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे तथा वह राष्ट्रपति का विश्वास प्राप्त रहने तक अपने पद पर बना रह सकता है. भारत के संघीय ढांचे के भीतर राष्ट्रपति किसी व्यक्ति को तभी राज्यपाल नियुक्त कर सकते हैं, जब उसकी अनुशंसा केंद्र सरकार करे. ऐसे में किसी को राज्यपाल के रूप में चुनना केंद्र सरकार का विशेषाधिकार सरीखा जान पड़ता है और यह विशेषाधिकार अक्सर मनमानी का रूप ले लेता है. एक संवैधानिक पद के रूप में राज्यपाल की परिकल्पना केंद्र और राज्य के बीच कड़ी के रूप में की गयी है.
लेकिन, इतिहास को देखते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने कई दफे जिन राज्यों में विरोधी दल की सरकार हो, वहां अपनी मनमर्जी थोपने के लिए राज्यपाल के पद का इस्तेमाल किया है. साथ ही कई दफे राज्यपालों ने केंद्र की मर्जी के अनुरूप लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया है. यही वजह है कि राज्यपालों की नियुक्ति और इस्तीफे का मामला अकसर विवाद का विषय बनता रहा है. मिसाल के लिए, 2004 में यूपीए सरकार ने पूर्ववर्ती एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त चार राज्यपालों को कार्यकाल समाप्त हुए बिना हटा दिया था. अब बहुत कुछ इसी तर्ज पर नयी केंद्र सरकार भी काम करती दिख रही है.
सरकारिया आयोग और सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि राज्यपाल को बगैर कोई ठोस कारण बताये नहीं हटाया जा सकता, लेकिन दिल्ली में नयी सरकार के गठन के बाद से कई राज्यों के राज्यपालों ने जिस तरह एक-एक कर अपना इस्तीफा सौंपा है, वह केंद्र की मर्जी के आगे उनकी लाचारी ही जाहिर करता है. राज्यपाल का पद 21 वीं सदी के भारत में कितना प्रासंगिक है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन जबतक यह पद मौजूद है, राज्यपालों की नियुक्ति और इस्तीफे की प्रक्रिया को ज्यादा जवाबदेह और पारदर्शी बनाने की जरूरत है. इसके अभाव में राज्यपालों की नियुक्ति और इस्तीफे का मामला अकसर किसी खास व्यक्ति को उपकृत करने और इसी बहाने संकीर्ण राजनीतिक हितसाधन एक जरिया जान पड़ता है.