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डॉक् सांवलिया होय

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail.com डॉक्टर कई प्रकार के होते हैं, पर मुख्य रूप से उनकी दो ही श्रेणियां होती हैं- एक तो वे, जो होकर भी नहीं होते और दूसरे वे, जो न होकर भी होते हैं. मजेदार बात यह है कि न होकर भी होनेवाले डॉक्टर, होकर भी न होनेवाले डॉक्टरों की वजह […]

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

drsureshkant@gmail.com

डॉक्टर कई प्रकार के होते हैं, पर मुख्य रूप से उनकी दो ही श्रेणियां होती हैं- एक तो वे, जो होकर भी नहीं होते और दूसरे वे, जो न होकर भी होते हैं. मजेदार बात यह है कि न होकर भी होनेवाले डॉक्टर, होकर भी न होनेवाले डॉक्टरों की वजह से ही हो पाते हैं. डॉक्टरों की ये श्रेणियां प्रवृत्तिवार हैं, जो उनकी विषयवार श्रेणियों में भी बदस्तूर पायी जाती हैं.

विषयवार श्रेणियों में दो ही प्रमुख हैं- एक तो सेहत के डॉक्टर और दूसरे, साहित्य के डॉक्टर. एक आदमी की सेहत में सेंध लगता है, दूसरा साहित्य की सेहत में. दोनों क्षेत्रों के डॉक्टरों में ओवरलैपिंग भी खूब चलती है, जिसके चलते सेहत के कुछ डॉक्टर आदमी की सेहत में सेंध लगाने को नाकाफी पाकर साहित्य की सेहत में भी सेंध लगाने चले आते हैं, और साहित्य के कुछ डॉक्टर अपनी सेंधलगाऊ क्षमताओं का विस्तार होमियोपैथी, नेचुरोपैथी आदि के जरिये आदमी की सेहत में सेंध लगाने में भी करने से नहीं चूकते.

सेहत के डॉक्टर, जिन्हें संक्षेप में कहीं-कहीं ‘डॉक्’ भी कहते सुना जाता है, डॉक्टरी की उपाधि पर अपना अकेले का हक समझते हैं और साहित्य के डॉक्टरों को डॉक्टर कहे जाने का अधिकारी नहीं मानते. अलबत्ता इस क्षेत्र के डॉक्टरों की प्रतिष्ठा प्राचीन काल से है, जब उन्हें वैद्य कहा जाता था.

वैद्यों को तब कविराज भी कहा जाता था- केवल कवि नहीं, बल्कि कविराज- जिससे आज भी सेहत के डॉक्टरों के कविता वगैरह भी करने लग पड़ने का कारण समझ में आ जाता है. बहरहाल, इन वैद्यों की प्राचीन काल में कितनी प्रतिष्ठा थी, इसे संस्कृत के उस श्लोक से समझा जा सकता है, जिसमें अर्थी जाती देखकर कोई वैद्य कहता है कि अरे, बिना मेरे इलाज के ही यह व्यक्ति इस दशा को कैसे प्राप्त हो गया?

ऐसे वैद्य, जिन्हें किसी बिगाड़ के चलते या बिना किसी बिगाड़ के भी, बिगाड़कर वैद या बैद भी कह दिया जाता था, तबीयत से ही नहीं, बल्कि शक्ल-सूरत से भी कई रंगों के होते थे, पर सबसे ज्यादा पसंद सांवले रंग का वैद ही किया जाता था. मीराबाई ने इस बारे में विस्तार से लिखा है. उनकी कविताओं से पता चलता है कि वे अकसर बीमार रहती थीं और कई रंगों के वैद्यों से इलाज करवा चुकने के बावजूद उनके रोग की पीड़ा मिट नहीं पा रही थी.

आखिर में पता नहीं कैसे, शायद अपने गुरु रैदास जी के बताने पर, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि उनकी पीर तभी मिटेगी, जब उनका इलाज कोई सांवले रंग का वैद करेगा. इसीलिए वे अपने प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहती हैं- मीरा के प्रभु पीर मिटैगी जब वैद सांवलिया होय.

भयादोहन हालांकि ब्लैकमेलिंग के लिए रूढ़ हो गया है, पर उसका वास्तविक अर्थ भय दिखाकर दोहन करना है और यह काम धर्मगुरुओं और नेताओं के अलावा सेहत के डॉक्टर भी खूब करते हैं. ऐसे डॉक्टरों की वजह से ही, न होकर भी होनेवाले डॉक्टरों की श्रेणी सामने आती है, जिन्हें प्यार से झोलाछाप डॉक्टर कहा जाता है. झोलाछाप डॉक्टरों तथा अन्य सभी प्रकार के डॉक्टरों के बारे में फिर कभी.

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