रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
गांधी के पत्रकार रूप पर कम विचार किया गया है. तेईस वर्ष की अवस्था में 1893 में वे दक्षिण अफ्रीका पहुंचे पहुंचे थे और एक सप्ताह बाद डरबन से प्रीटोरिया जाते हुए उन्हें ट्रेन से फेंका गया, पीटा गया. यह नस्ली भेद था, जो अंग्रेजों को दक्षिण अफ्रीका में ही नहीं, भारत में भी महंगा पड़ा. दक्षिण अफ्रीका में गांधी का प्रवास 21 वर्षों का था. एक प्रमुख हथियार के रूप में उन्होंने वहां से ‘इंडियन ओपिनियन’ का प्रकाशन 4 जून, 1903 से आरंभ किया. पहला संपादकीय ‘हम स्वयं’ (आवरसेल्वज) था.
अहस्ताक्षरित, मगर गांधी द्वारा लिखित. इस अंक में ही गांधी ने अपना ‘स्टैंड’ साफ कर दिया था. इस अंक का प्रमुख लेख ‘द ब्रिटिश इंडियंस इन साउथ अफ्रीका’ गांधी ने लिखा था. ‘इंडियन ओपिनियन’ गुजराती, हिंदी, तमिल और अंग्रेजी में प्रकाशित होता था. दक्षिण अफ्रीका में गुजराती व्यापारियों और तमिल, हिंदी मजदूरों की संख्या अधिक होने के कारण इसका प्रकाशन गुजराती, तमिल और हिंदी में हुआ था.
गांधी ने लिखा- ‘इस समाचार पत्र की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है. भारतीय समाज दक्षिण अफ्रीका के राजकीय शरीर का निर्जीव अंग नहीं है. उसे जीवित अंग सिद्ध करने के लिए यह पत्र निकाला गया है.’ बाद में गांधी ने गुजराती में ‘नवजीवन’ (7 सितंबर, 1919 से) अंग्रेजी में ‘यंग इंडिया’ (8 अक्तूबर, 1919 से) और ‘हरिजन’ (11 फरवरी, 1933) का प्रकाशन आरंभ किया.
गांधी के प्रेस संबंधी विचार आज के भारत में सभी पत्रकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. वे रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति की समानता में विश्वास रखते थे. उनके लिए प्रेस की स्वतंत्रता सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी.
‘प्रेस की स्वतंत्रता एक मूल्यवान विशेषाधिकार है, जिसका त्याग कोई देश नहीं कर सकता.’ वे पश्चिम की पूर्व में भी समाचार पत्रों को जनता की बाइबिल, कुरान, जेंद-अवेस्ता और गीता सबको एक में देख रहे थे. हम कोई भी अखबार क्यों पढ़ें? गांधी ने कहा- ‘हमें समाचार पत्र तथ्यों के अध्ययन के लिए पढ़ने चाहिए. उन्हें यह अनुमति नहीं देनी चाहिए कि वे हमारे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त करें. स्वतंत्र भाषण, स्वतंत्र साहचर्य और स्वतंत्र प्रेस उनके लिए लगभग ‘पूर्ण स्वराज’ था.’ (यंग इंडिया, 6 अक्तूबर, 1921 के अंंक में)
पत्रकारिता का वास्तविक कार्य क्या है? गांधी के अनुसार, यह कार्य जनमानस को शिक्षित करना है, न कि जनमानस को आवश्यक-अनावश्यक विचार-भंडार बनाना. 18 अगस्त, 1946 के ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा कि पत्रकारिता मेरा ‘प्रोफेशन’ नहीं है और वे अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए लिखते हैं.
गांधी की 150वीं वर्षगांठ पर गांधी की पत्रकारिता पर विचार आज की भारतीय पत्रकारिता के लिए अधिक उपयोगी होगी. एसएन भट्टाचार्य ने 1965 में उनके पत्रकार रूप पर पुस्तक लिखी थी- ‘महात्मा गांधी: द जर्नलिस्ट’.
भवानी भट्टाचार्य की पुस्तक ‘गांधी: द राइटर’ नेशनल बुक ट्रस्ट से 1969 में आयी. इला गांधी ने ‘गांधीज एनकाउंटर विद द फोर्थ स्टेट’ लिखा और गांधी के अधिकारी इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लेख- ‘गांधी द जर्नलिस्ट’ (द हिंदू, 8 जून, 2003) लिखा. डॉ वाइपी आनंद ने विस्तार से ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन ओपिनियन’ लिखा है. गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ के जरिये टॉलस्टाय, थोरो, रस्किन और अन्य विचारकों के विचार प्रचारित किये. इन विचारों से वे स्वयं निर्मित हुए थे.
गांधी की संपादकीय दृष्टि का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने सात और 14 सितंबर, 1907 के गुजराती ‘इंडियन ओपिनियन’ में थोरो के प्रसिद्ध लेख ‘ऑन द ड्यूटी ऑफ सिविल डिसओबेडिएंस’ का शीर्षक बदलकर ‘ड्यूटी ऑफ डिसओबेइंग लॉज’ कर दिया. क्या आज के भारतीय पत्रकार उनसे कुछ सीख सकते हैं? उनके अनुसार, एक पत्रकार का विशिष्ट, विलक्षण कार्य देश के मानस को पढ़ना है और उस मानस को निश्चित और भयमुक्त अभिव्यक्ति प्रदान करना है. उन्होंने प्रेस एक्ट से भयभीत न होने की बात ब्रिटिश भारत में कही थी.
25 अप्रैल, 1909 को गोखले को अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अंतिम दिनों में अपनी पूरी कमाई के लगभग पांच हजार पौंड प्रेस में लगाये. ‘इंडियन ओपिनियन’ का प्रकाशन अपने समुदाय के सेवार्थ था. पत्र के प्रकाशन का व्यावसायिक लाभ से कहीं कोई संबंध-सरोकार नहीं था.
शब्द की शक्ति में उनका दृढ़ विश्वास था. उनकी भाषा स्वच्छ, ग्राह्य, प्रभावशाली और पारदर्शी थी. एमवी कामथ ने लिखा है कि गांधी इस प्रकार लिखते थे कि प्रत्येक व्यक्ति उसे समझ सके. ‘उनमें साहित्यिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, पर उन्होंने जो भी लिखा, वह साहित्य है.’ गांधी ने लिखा कि पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिए. समाचार पत्र प्रेस एक बड़ी शक्ति है. वे नियंत्रित कलम और अभिव्यक्ति के पक्ष में थे. उन्होंने स्वीकारा है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के बिना सत्याग्रह असंभव था.
बार-बार उन्होंने पत्रकारों के उत्तरदायित्व की याद दिलायी है और यह लिखा है कि अगर सरकार को अप्रसन्न करनेवाला कुछ प्रकाशित हो गया हो, तो भी संपादक को क्षमा नहीं मांगनी चाहिए. उनकी दृष्टि में संपादक का कद बड़ा था. बड़ा होना चाहिए भी. उनका यह प्रसिद्ध कथन है कि हम जो आज करते हैं, उस पर भविष्य निर्भर करता है. क्या वर्तमान भारतीय पत्रकारिता यह कर पा रही है?