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गांधी और आजादी के मायने

कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com हमारी अाजादी ने 73 वसंत देख लिये हैं. किसी मुल्क के इतिहास में इतना साल युवा होने की, कमर सीधा करने की अौर पंख खोल कर अासमान को थाहने की उम्र होती है. क्या अाप भीतर से महसूस करते हैं कि उत्साह में झूमता अपना देश बढ़ रहा है, धूल […]

कुमार प्रशांत

गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
हमारी अाजादी ने 73 वसंत देख लिये हैं. किसी मुल्क के इतिहास में इतना साल युवा होने की, कमर सीधा करने की अौर पंख खोल कर अासमान को थाहने की उम्र होती है. क्या अाप भीतर से महसूस करते हैं कि उत्साह में झूमता अपना देश बढ़ रहा है, धूल झाड़ता खड़ा हो रहा है अौर अासमान सर कर रहा है? या कि हम एक ऐसी अंधेरी सुरंग में पहुंच कर ठिठक गये हैं कि जिसके किसी सिरे से प्रकाश का कोई अाभास मिल नहीं रहा है; अौर रास्ता बदल लें हम ऐसी हिम्मत व हिकमत हम सबमें है नहीं.
आज भी कुछ लोग महात्मा गांधी से रास्ता पूछते हैं! उनकी सारी जिंदगी हम उनसे रास्ता ही तो पूछते रहे, मानते कुछ भी नहीं रहे, यह अलग बात है. तब भी अौर अाज भी महात्मा गांधी हमारे देश के मनपसंद शगल हैं.
जब वे थे तब भी; आज जब वे नहीं रहे तब भी, शब्द या वाक्य बदल-बदल कर लोग इस बूढ़े महात्मा के पास अाते हैं अौर पूछते हैं कि अाज देश में गांधी कहां हैं? मैं कहता हूं कि मान लें हम कि गांधी कहीं नहीं हैं, तो क्या मुल्क नहीं है, हम नहीं हैं.
हम क्यों न यह खोजने की कोशिश करें कि हमारी 73 साल की अाजादी में इसके नागरिक की कोई पहचान या भूमिका बची है क्या? अगर खोजना ही है, तो हम यह खोजें कि इतने साल के इस सफर वे सारे सपने कहां छूट गये, जिन्हें गांधी ने हमारी अांखों में बुन दिये थे?
गांधी में शिफत है कि वे बहुत कम शब्दों में अौर बड़ी सरल भाषा में अपनी बात कह देते हैं. यह सरलता उनको बहुत कठिन लगती है कि जो गांधी को जी कर नहीं, पढ़कर समझना चाहते हैं.
गांधी ने जो जिया नहीं, वह कहा नहीं; हमने जो कहा उसे कभी जिया नहीं, जीना चाहा भी नहीं. गांधीजी ने कहा : ‘सबके भले में अपना भला है!’ उन्होंने कहा : ‘वकील अौर नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि अाजीविका पाने का हक दोनों को एक-सा ही है.
‘उन्होंने कहा : ‘मजदूर अौर किसान का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है.’ अाजादी के बाद कुर्सी पर बैठनेवालों से उन्होंने कहा : ‘इस पर मजबूती से बैठो, लेकिन इसे हल्के से पकड़ो- सिट अॉन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली!- सत्ता की कुर्सी पर पूरे अात्मविश्वास व इरादे से बैठो, लेकिन इससे चिपके मत रहो!’ लेकिन हम कहां हैं?
हम अपने बच्चों को सिखाते हैं कि संसार में जो कुछ है, हमारे लिए ही है- अपनी सोचो, दूसरों की नहीं! नयी अाकांक्षा के पंख फड़फड़ाते युवा से कहते हैं : ‘तू ही अाया है क्या महात्मा गांधी बनने!’ वकील अौर नाई की कौन कहे, अार्थिक असमानता इतनी बढ़ी है कि कोई महीने भर अपना पूरा अस्तित्व घिस कर भी इतना नहीं कमा पाता है कि परिवार के लिए दोनों शाम का खाना जुटा सके; दूसरी तरफ लोग हैं कि जो दिनों में नहीं, घंटों में कमाते हैं अौर वह कमाई भी करोड़ों में होती है.
सत्ता अौर संपत्ति का ऐसा गठबंधन किसकी कल्पना में था? कहां मजबूती से बैठो अौर हल्के से पकड़ो की सीख अौर कहां अाज का अालम कि जो जहां पहुंच गया है, वहीं चिपक गया है. फिर लोकतंत्र आखिर है क्या?
महात्मा गांधी का जीवन बहुत कठिन था, क्योंकि वे जिन मूल्यों को मानते थे उनके साथ जीते थे. हमारा जीवन अौर हमारे मूल्य परस्पर जुड़ते नहीं हैं. वे जिन मूल्यों के लिए मरते थे, हम उन मूल्यों के लिए मरते नहीं हैं, बल्कि उन मूल्यों को कहीं-न-कहीं मारते हैं. अौर फिर भी हम सभी उन्हें ‘महात्मा’ कहते थकते नहीं थे.
प्रशंसकों-समर्थकों की बहुत बड़ी भीड़ में अपने विश्वासों के साथ अकेले खड़े रहना विराट अास्था की मांग करता है. उनकी अास्था इतनी गहरी अौर मजबूत थी कि वे अपने लिए कह सके कि मैं बीमार-जर-ज्वराग्रस्त मरूं तो अागे अा कर हिम्मत से दुनिया को बताना कि यह नकली महात्मा था. किसी हत्यारे की गोली से मारा जाऊं अौर गोली खा कर भी मेरे मुंह से रामनाम निकले तब मानना कि मुझमें कुछ महात्मनापना था. वे अपनी कसौटी पर जी कर अौर मर कर गये.
लेकिन वे जिसके लिए जिये अौर मरे वह अादमी- अंतिम अादमी- कहां रहता है; क्या खाता-पीता-अोढ़ता-बिछाता है, किसे पता है? नीति अायोग को पता है कि जिसे यह भी पता नहीं है कि साल भर में देश में कितना रोजगार पैदा हुअा? राज्य सरकारों को पता है कि जिन्हें यह भी पता नहीं है कि उनके नारी संरक्षण गृहों में क्या हो रहा है?
आजादी के बाद इतने साल में किसानों और मजदूरों की अात्महत्या का सीधा मतलब है : जीवन व जीविका से बेजार इंसान! यही गांधी का अंतिम अादमी है, जो वंचित है. यही है जिसके बच्चे कुपोषित हैं; यही है जिसकी किशोर अाबादी के पास जीवन की न कोई दिशा है अौर न शिक्षा की कोई व्यवस्था है; यही है युवा बेरोजगार जो रह-रहकर ही खत्म हो जाता है; यही है जिसकी अंतिम बूंद तक निचोड़ लेने में व्यवस्था लगी रहती है.
अाजादी का यह कैसा महाभंजक स्वरूप उभर रहा है? हमें यह हिसाब लगाना ही चाहिए कि 73 साल पहले गांधी ने जो सपने देखे थे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे? सवाल उपलब्धियों के अांकड़ों का नहीं है. उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का है कि आखिर ये चीजें कहां हैं! सरकारी खेतों में हर चुनाव के वक्त उम्मीदों की जरखेज फसल होती है, लेकिन अाजादी भूखी ही जागती है अौर भूखी ही सो जाती है.

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