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जड़ों की ओर लौटने की मजबूरी

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार surendarkishore@gmail.com इस देश में सक्रिय समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक दल इन दिनों दोराहे पर हैं. इस साल के लोकसभा चुनाव मंे भारी पराजय के बाद सोच में हैं कि अब वे किधर जाएं? उनमें से कुछ नेता कह रहे हैं कि हम जनता के बीच जायेंगे. पर, क्या लेकर उसके पास […]

सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
surendarkishore@gmail.com
इस देश में सक्रिय समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक दल इन दिनों दोराहे पर हैं. इस साल के लोकसभा चुनाव मंे भारी पराजय के बाद सोच में हैं कि अब वे किधर जाएं? उनमें से कुछ नेता कह रहे हैं कि हम जनता के बीच जायेंगे. पर, क्या लेकर उसके पास जायेंगे? जब कुछ देने के लिए आपके पास सरकार थी, तो जिसको जो कुछ दिया, या नहीं दिया, उसका परिणाम तो इस चुनाव में मिल गया. राहुल गांधी भी ग्रामीण महिला कलावती के पास गये थे, उसका क्या असर हुआ?
दरअसल जब आप सत्ता में होते हैं, तो आपके पास देने के लिए एक सरकार होती है. पर उस समय जब आप अंधे की रेवड़ी की तरह अपनों को ही बांटने में लगे रहे, तो अब आपके पास व्यापक जनता का विश्वास पाने के क्या उपाय हैं?
अब उन स्थितियों पर आपको विचार करना होगा कि आप व्यापक जनता से सिमट कर सीमित वोट बैंक तक क्यों रह गये. यदि ऐसा ही बना रहा तो आपका भी वही हाल होगा, जो हाल कुछ राजनीतिक दलों का इस देश में हो चुका है.
राज गोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी और राजा कामाख्या नारायण सिंह के जन क्रांति दल की तरह कई दल समय के साथ विलुप्त हो गये. बड़ा सवाल यही है कि क्या आपकी मौजूदा कार्य नीति-रणनीति के सहारे आपके पुराने दिन लौट सकते हैं? लगता तो नहीं है!
राजग खासकर भाजपा ने उनकी राह में अनेक कांटे बो दिये हैं. अब आपको यानी समाजवादी धारा के दलों को भाजपा से मुकाबला कर उससे वह वोट छीनना है, जो कभी आपका था, तो इसके लिए जरूरी है कि आप अपनी शैली बदलें. समाजवादी धारा की राजनीति को पहले समझना होगा.
स्वातंत्र्योत्तर समाजवादी राजनीति को तीन कालावधियों में बांटा जा सकता है. आजादी के तत्काल बाद की समाजवादी राजनीति मुख्यतः आचार्य नरेंद्र देव, जेपी, डाॅ लोहिया की आदर्शवादी राजनीति थी.
उत्तर प्रदेश में राजनारायण के बाद मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी राजनीति की कमान संभाल ली. मुलायम-लालू की राजनीति कमोवेश एक समान रही है. साल 1990 का मंडल आरक्षण का जमाना था. मंदिर आंदोलन भी उसी दौरान चला. वह भावनाओं का दौर था. आरक्षण विरोधियों के आंदोलन को बिहार में मुख्यमंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने बेरहमी और दबंगियत से दबाया. सामाजिक न्याय के आंदोलन में सफलता का लाभ लालू प्रसाद को सबसे अधिक मिला.
इससे लालू प्रसाद सभी पिछड़ों के बीच काफी लोकप्रिय हो गये. मुलायम सिंह यादव को भी उस दौर का लाभ मिला, जिसमंें मंदिर आंदोलन का भी दौर शामिल था. लालू की सरकार ने लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोका और उन्हें समस्तीपुर में गिरफ्तार करवाया. इसका लाभ भी मिला.
साल 1991 के लोकसभा चुनाव और 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले दल को भारी सफलता मिली. पर उसी के साथ भटकाव भी शुरू हो गया. यादव और मुस्लिम मतदाता तो फिर भी लालू के साथ बने रहे, पर अन्य वोटर धीरे-धीरे कटने लगे. साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय तो जदयू से तालमेल का लाभ राजद को बिहार में मिल गया, पर इस बार उसकी अनुपस्थिति में लोकसभा चुनाव में राजद जीरो पर आउट हो गया. इससे पहले राजद ने एक अन्य विवादास्पद कदम उठा लिया. राजद ने सामान्य वर्ग के आरक्षण के लिए संसद में पेश विधेयक का विरोध कर दिया.
इसका नुकसान राजद को होना ही था. इन विषम राजनीतिक परिस्थितियों से समाजवादी धारा वाले इस दल को कठिन मार्ग से गुजर कर अपने लिए रास्ता बनाना है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की भी आगे की राह कठिन है. बिहार आंदोलनों की भूमि रही है. राजद में भी जन आंदोलन का हौसला रखनेवाले नेता-कार्यकर्ता मौजूद हैं. अब तो रास्ता आंदोलन का ही बचा है. आंदोलन के जरिये ही जनता से जुड़ने का विकल्प रहता है.
उल्लेखनीय है कि मोदी और नीतीश सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में आम लोगों के लिए कई ठोस कदम उठाये हैं. उसके मुकाबले लालू प्रसाद के दल के पास एक ही बड़ी पूंजी है. वह है 1990 में मंडल आरक्षण के बचाव में किया गया जोरदार आंदोलन. बालाकोट अभियान के अलावा राजग ने अपने विकास व कल्याण के कामों के जरिये भी मतदाताओं को अपनी ओर खींचा है. अपवादों को छोड़ दें, तो ऐसे सम्यक विकास कार्यों से समाजवादी धारा की राजनीति को कम ही मतलब रहा है.
राजग शासन काल में बिजलीकरण का भारी विस्तार हुआ है. किसान सम्मान योजना ने बहुत बड़ी आबादी को मोहित किया है. आयुष्मान भारत योजना, उज्ज्वला योजना, शौचालय योजना और अब घर-घर नल-जल योजना. बड़ी बात है कि केंद्र सरकार के मंत्रियों की छवि पर इस बीच कोई आंच नहीं आयी.
साठ-सत्तर के दशक में सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट दलों के कार्यकर्ता गण सरकारी लूट और अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन करते थे. जेल जाते थे. परचे बांटते थे. जिला-जिला धरना देते थे. अन्य तरह से भी लोगों की मदद में शामिल रहते थे.
साठ के दशक में सोशलिस्ट कार्यकर्ता के रूप में मैं अपने इलाकों के भूमिहीन लोगों को अंचल कार्यालय से बासगीत का परचा दिलवाता था.
बिना किसी रिश्वत के. तब सोशलिस्ट पार्टी इस बात का ध्यान नहीं रखती थी कि यह तो सरकार का काम है, हम क्यों करें? पर आज कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता यह कह सकते हैं कि सरकार अपने कामों में विफल होगी, तो उसका चुनावी लाभ खुद ब खुद हमें मिल जायेगा.
समाजवादी पृष्ठभूमि वाले दलों को अपने बीच से नि:स्वार्थी व कर्मठ कार्यकर्ताओं की जमात तैयार करनी होगी. उन्हें स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाना होगा. तब शायद धीरे-धीरे समाजवादी धारा के दल अपनी पिछली ताकत हासिल कर सकें. समस्या यह है कि जिन दलों में टिकट, ठेकेदारी तथा अन्य तरह के लाभ के लिए ही अधिकतर कार्यकर्ता व नेता जुड़ते रहे हैं, उस दल से आंदोलन की उम्मीद कैसे पूरी हो सकेगी, यह देखना दिलचस्प होगा.
प्रतिपक्षी दलों के एक हिस्से को यह गलतफहमी हो सकती है कि मोदी-नीतीश सरकार के अलोकप्रिय होने का हमें इंतजार करना चाहिए. यदि ऐसी सोच है, तो उसके लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ सकता है. क्योंकि लोक लुभावन काम करने में राजग सरकार की डबल इंजन वाली सरकारों की बराबरी में अभी कोई दल नहीं है.

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