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लोकतंत्र में विपक्ष का विचार

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in भाजपा की एकतरफा जीत ने विपक्ष के अस्तित्व को संकट में खड़ा कर दिया है. संसदीय राजनीति में विपक्ष के विचार का न होना सत्ता के निरंकुश हो जाने का संकेत होता है. भले ही विपक्ष की सांख्यिकी उपस्थिति कमतर हो, लेकिन अगर उसके […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
भाजपा की एकतरफा जीत ने विपक्ष के अस्तित्व को संकट में खड़ा कर दिया है. संसदीय राजनीति में विपक्ष के विचार का न होना सत्ता के निरंकुश हो जाने का संकेत होता है. भले ही विपक्ष की सांख्यिकी उपस्थिति कमतर हो, लेकिन अगर उसके विचार मजबूत हों, तो वह जनता को सत्ता की कार्यवाहियों के प्रति सतर्क करता है. लेकिन भाजपा ने जिस तरह जनता को अपने पक्ष में किया है, उससे क्या यह लगता है कि विपक्ष के पास अपना कोई सशक्त विचार रह गया है, जिसकी बदौलत वह सत्ता की आलोचना कर सके? कई बार सत्ता पक्ष ने कहा है कि विपक्ष तो है ही नहीं. सवाल है कि सत्ता पक्ष के ताकतवर होने से विपक्ष का विचार क्या खत्म हो जाता है? क्या सत्ता पक्ष में ही जनता के सभी मुद्दे निहित होते हैं?
भाजपा शुरू से ही वंशवाद और परिवारवाद के खिलाफ हमलवार रही है. वह अपने धुर विरोधी कांग्रेस, सपा और राजद पर यह आरोप लगाती रही है, अपने खेमे के दलों पर नहीं. वह जनमानस के बीच में इस विचार को ले जाने में सफल भी रही. अब जबकि उसके विरोधी खेमे के दिग्गज राजनीतिक परिवारों को हार का सामना करना पड़ा, तो यह कहा जा रहा है कि परिवारवाद का खात्मा हो रहा है. साथ ही अस्मिता की राजनीति करनेवालों के बारे में कहा जा रहा है कि जातिवादी राजनीति का समय भी खत्म हो गया है. भाजपा की जीत के विश्लेषण का एक पक्ष यह भी रखा जा रहा है कि भाजपा ने वंशवादी, जातिवादी राजनीति को समाप्त कर दिया है. लेकिन ऐसा तो नहीं है कि पूरा विपक्ष ही वंशवाद की चपेट में है, या वह जातिवादी-अस्मितावादी राजनीति करता है. कम-से-कम यह आरोप वामपंथी दलों पर नहीं लगाया जा सकता है.
भारतीय संसदीय राजनीति के इतिहास में अवसरवाद उत्तरोतर बढ़ा है. राजनीति में नहीं लेकिन साहित्य में तो इसके पुख्ता सबूत दर्ज हैं. साल 1954 में ही रेणु ने ‘मैला आंचल’ लिखकर गांधीवादी विचार की हत्या, कांग्रेस की नाकामी, सोशलिस्ट-कम्युनिस्टों और हिंदू धार्मिक संगठनों के अंतर्विरोध के जरिये आजाद भारत की अवसरवादी राजनीति का चित्र खींच दिया था. बाद में धूमिल जैसे युवा कवियों ने खुलकर जनता से दूर होती संसदीय राजनीति की आलोचना की. कांग्रेस, गैर-कांग्रेस के बीच के द्वंद्व और राजनीतिक उठा-पटक का लंबा इतिहास रहा है. इसी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षाओं के बीच में जनता पिसती रही है और उसने हमेशा जनपक्षधर शासन की उम्मीद में अपने मत का प्रयोग किया है. लेकिन उसके लिए जनपक्षधर शासन का आना अब भी बाकी रह गया है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने जनता के सामने उसी अवसरवादी राजनीति का चेहरा रखने की कोशिश की है. भाजपा ने जनता के सामने ‘विकास’ की जो बात रखी है उसकी परिभाषा में जनता की बुनियादी बातें उतनी नहीं हैं, जितनी कि पहले से शासनरत उसके विरोधी दलों के अवसरवादी चरित्र और व्यवहार की आलोचना है. उसके ‘विकास’ की परिभाषा में शामिल है हिंदुत्व, गैर-कांग्रेसवाद, अस्मितावादी राजनीति का विरोध, देशभक्ति, संस्कृति और राष्ट्रवाद की भावनात्मक अपील. भाजपा की यह कुशल रणनीति रही है कि उसने अपने विरोधी दलों के एजेंडों को ही देश की दुर्दशा का कारण बताया और जनता को इसका समर्थन करने के लिए तैयार भी कर लिया.
लेकिन इतने से तो न देश चलता है, न लोकतंत्र और न ही जनता का हित सिद्ध होता है. जनता की वास्तविक चुनौतियां व्यापक हैं. उन्हें केवल लोकप्रिय या भावनात्मक अपील से दूर नहीं किया जा सकता. जनता के बुनियादी मुद्दों से ही सत्ता पक्ष या विपक्ष का विचार निर्मित होना चाहिए. इस संबंध में विपक्ष को ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत होती है.
भाजपा के विरोधी विपक्षी दलों की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही है कि वे सत्ता पक्ष की आलोचना करने में वैचारिक रूप से एक नहीं हो सके. एक तरह से देखा जाये तो सत्ता पक्ष के कई विपक्ष थे. कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा-बसपा, राजद और वामपंथी इत्यादि उसके कई विपक्ष थे. इनके अपने-अपने हित थे और वे सरकार की नीतियों की समग्र आलोचना कर उसे जनता के बीच ले जाने के बजाय भविष्य में अपना अस्तित्व भी देख रहे थे. इस तरह के खंडित विपक्ष से जनता के सामने विकल्प की कोई तस्वीर नहीं उभरती है. उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है और भाजपा वहां उसकी विपक्षी पार्टी है.
दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की सरकार है और तृणमूल उसकी विपक्षी पार्टी है. भाजपा पश्चिम बंगाल सरकार की जिस आक्रामकता से आलोचना करती है, ठीक उसी तरह तृणमूल केंद्र की भाजपा सरकार की मुखरता से समग्र आलोचना नहीं कर पाती है. तृणमूल अन्य विपक्षी दलों से जुड़कर समस्त विपक्ष का एक स्वर नहीं बन पाता है. यही स्थिति कांग्रेस और अन्य दलों की है. आज की गठबंधन वाली संसदीय राजनीति में एनडीए के बरक्स यूपीए की यह रणनीतिक कमी है.
विपक्ष का विचार उसके राजनीतिक सांख्यिकी आंकड़ों से तय नहीं होना चाहिए, न ही उसका क्षेत्र राजनीति तक ही सीमित हो. इसे विचार, चिंतन साहित्य और कला की दुनिया तक फैलना चाहिए. यह जनता के प्रति प्रतिबद्धता और ईमानदारी से तय होना चाहिए. प्रेमचंद ने तो साहित्य को राजनीति से आगे चलनेवाली मशाल कहकर उसके पक्ष को बहुत पहले स्पष्ट कर दिया था. विपक्ष को चाहिए कि वह हमेशा अपना विचार मजबूत करे, न कि वह केवल सांख्यिकी आंकड़ों की गणना करे.

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