मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
चुनाव आते ही भारतीय राजनीति में उबाल आ जाता है. जनता कोशिश करती है कि उसके प्रतिनिधियों को पता चले कि उसकी समस्याएं क्या हैं और राजनेता कोशिश करते हैं कि जनता का ध्यान धर्म, जाति, चमत्कारी व्यक्तित्व की ओर लगा रहे. आप आज भी यह संघर्ष देख सकते हैं.
देश में किसान की हालात खराब है, आत्महत्याएं हर सरकार में होती रहती हैं. हमारे पास कोई साफ दृष्टि नहीं है इस समस्या को हल करने की. उसकी मांगों को दरकिनार कर मीडिया और पार्टियां केवल कर्जमाफी तक ही उसे समेट देती हैं. फिर बहस होती है कि कर्ज माफ करना कितना मुश्किल है. नौकरियां नहीं हैं, शिक्षा को निजी क्षेत्रों की चारागाह बनाया जा रहा है. छात्रों के विरोध को राष्ट्रद्रोह कह दिया जाता है. और इन सबके बदले राजनेता क्या करते हैं? या तो जुमलों का व्यापार या फिर चेहरों की राजनीति!
कांग्रेस पार्टी ने इस बार तय किया है कि राहुल गांधी की अध्यक्षता में उनकी बहन पार्टी में महत्वपूर्ण पद पर रहेंगी और उत्तर प्रदेश के एक खास क्षेत्र का नेतृत्व करेगी. निश्चित रूप से वह कोई मामूली कार्यकर्ता नहीं हैं, बल्कि एक प्रभावशाली व्यक्तित्व दिखती हैं.
राजनीति में उनकी नेतृत्व क्षमता कितनी है, यह तो अभी नहीं मालूम, लेकिन लोगों का अनुमान है कि इसका व्यापक प्रभाव कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा. ऐसा क्यों है, ठीक-ठीक पता नहीं. किसी को उनमें इंदिरा गांधी की तस्वीर नजर आ रही है, तो किसी को पार्टी के उत्थान की एकमात्र उम्मीद. हो सकता है कि उनके पार्टी में सक्रिय होने का प्रभाव पड़े भी!
इस घटना पर भाजपा की प्रतिक्रिया भी देखने लायक है. पार्टी के सभी वरीय नेता कांग्रेस के इस निर्णय पर प्रतिक्रिया देने में लगे हैं. कोई कह रहा है कि उनका आना प्रमाण है कि पार्टी को राहुल गांधी पर विश्वास नहीं है और मोदीजी को हराने की क्षमता उनमें नहीं है. एक बड़े नेता ने तो यहां तक कह दिया कि प्रियंका गांधी को एक तरह की मानसिक बीमारी है और इसके कारण राजनीति के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं.
व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व पर केंद्रित यह बहस भारतीय पार्टी व्यवस्था के पतन की ओर इंगित करती है. जनतंत्र में पार्टी व्यवस्था की कल्पना की गयी थी, ताकि उनके द्वारा नागरिकों के हितों को प्रतिनिधित्व मिल सके.
लेकिन चेहरों की राजनीति से इतना तो साफ है कि पार्टियां जनता से कट गयी हैं. उनके पार्टी मेनिफेस्टो से जनता प्रभावित नहीं हो पाती है, तो पार्टियां चेहरों के खेल से उनका मनोरंजन करना चाहती हैं और बाजार के सफल ब्रैंड गुरु उनके ब्रैंडिंग के लिए कठिन श्रम करते हैं. ऐसा लगता है जनहित से कटे ये लोग जनता को मूर्ख समझते हैं!
लेकिन भारतीय जनता के सामूहिक चेतना में स्वतंत्रता आंदोलन की यादें भरी हैं, उन्हें सही-गलत की बेहतर पहचान है. चाय पर चर्चा और खाट पर चर्चा की जगह उनको सीधी बात पसंद है. कभी-कभार जुमलों में भले उलझ जाती है जनता. यह समझना जरूरी है कि राजनेता याद रखें कि चेहरों की राजनीति में जनता बार-बार नहीं फंस सकती.
पार्टियों को चाहिए कि अपनी नीतियों को साफ करें. किसानों को बतायें कि उनके हित में क्या नीतियां होंगी. फसल बोने से लेकर बाजार में बेचने तक की नीतियों पर अपना विचार बतायें. खाद, बीज और दवाओं की अंतरराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के बारे में पार्टियां क्या सोचती हैं और फसल की न्यूनतम कीमत का उसकी लागत से तुलना में उनकी आर्थिक सुरक्षा की क्या गारंटी है. पार्टियों को मालूम होना चाहिए कि किसान अपने हित-अहित जानते हैं. उनसे सीधी बात कर नीतियों का निर्धारण पार्टियों की ओर उन्हें आकर्षित कर सकती है, न कि चेहरे.
युवाओं को शिक्षा और रोजगार की जरूरत है. दोनों ही प्रमुख पार्टियों ने युवाओं को ठगा है. शिक्षा पर खर्च कम किया गया है. देश की उच्च शिक्षा को गर्त में मिला दिया है.
अधिकतर राज्यों में सरकारी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की हालत खराब है. विज्ञान और समाजशास्त्र दोनों के शोध संस्थाओं की हालत खराब है. छात्रों के वजीफे को घटाया गया है. नौकरियां खत्म कर दी गयी हैं. बाकी विश्वविद्यालयों को तो जाने दें, केंद्रीय विवि की हालत खराब है. दिल्ली विवि में लगभग साढ़े चार हजार शिक्षकों की नौकरियां पक्की नहीं हैं.
इस पर कोई ठोस नीति निकालने के बदले आरक्षण का एक मुद्दा उछाल कर, उनके बीच बंटवारे की राजनीति हो रही है. शिक्षा को पूंजीपतियों के हाथों हवाले करके छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ किया जा रहा है.
समाज के कमजोर वर्ग और समुदाय जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर हैं. स्वतंत्रता के बाद जो न्यायपूर्ण समाज की उम्मीद उनमें जगी थी, वह अब डर में बदल गयी है. आये दिन धर्म और जाति के नाम पर हिंसा हो रही है. महिलाएं पहले से ज्यादा असुरक्षित महसूस कर रही हैं. मध्यम वर्ग को एक तरफ हर सुविधा के लिए पूरी तरह बाजार पर निर्भर रहना पड़ रहा है, तो दूसरी तरफ रोजगार की सुरक्षा भी नहीं है.
किसी के राजनीति में आने और नहीं आने से यदि इन विषयों पर कोई फर्क पड़े, तो ठीक है, अन्यथा इस बहस का क्या मतलब? इस बहस से राजनीति का असली चेहरा नजर आने लगा है.
इसलिए अब समय आ गया है किसी वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचने का, जिसमें जन-भागीदारी ज्यादा हो और नीतियां साफ हों. हो सके तो एक-दो बार से ज्यादा कोई संसद या विधानसभा न जाये, ताकि चेहरों की ब्रैंडिंग की यह राजनीति खत्म हो. जनतंत्र की सुरक्षा का यही एक उपाय है.