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कश्मीर समस्या का समाधान
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com अगर जवाहरलाल नेहरू कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र में लेकर नहीं गये होते, तो क्या यह समस्या सुलझ गयी होती? क्या शिमला समझौते से समाधान हमारे पक्ष में हो सका? ये दो ऐसे प्रश्न हैं, जो हमारा पीछा छोड़ते नहीं दिखते और इसलिए इनके संबंध में कुछ […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
अगर जवाहरलाल नेहरू कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र में लेकर नहीं गये होते, तो क्या यह समस्या सुलझ गयी होती? क्या शिमला समझौते से समाधान हमारे पक्ष में हो सका? ये दो ऐसे प्रश्न हैं, जो हमारा पीछा छोड़ते नहीं दिखते और इसलिए इनके संबंध में कुछ करना जरूरी है.
पाकिस्तानी अनियमित सैनिकों (इन्हें कबायली कहा जाता है) द्वारा कश्मीर पर आक्रमण किये जाने के बाद, जिसे पाकिस्तान ने स्वयं जिन्ना की सहमति से प्राेत्साहित किया था और हथियार दिये थे, जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र गये थे. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इस मामले पर विचार करते हुए कुछ प्रस्ताव पारित किये. इनमें सबसे महत्वपूर्ण था- कश्मीर के जिन हिस्सों को पाकिस्तान ने अपने कब्जे में लिया है, वहां से उसे अपने सैनिकों को हटाना होगा और इसके बाद कश्मीरी लोगों के विचारों को जानने के लिए भारत जनमत संग्रह करायेगा.
अटलांटिक चार्टर, जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति एफडी रुजवेल्ट व ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने हस्ताक्षर किये थे, के कारण उन दिनों ‘स्व-निर्धारण’ की बात बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती थी. इसमें था कि अमेरिका तय सिद्धांतों के तहत यूरोप में युद्ध करेगा, जो यह सुनिश्चित करेगा कि यूरोप अपने उपनिवेशों से हट जायेगा. चार्टर में कहा गया था कि अमेरिका-ब्रिटेन लोगों के अपनी मर्जी से सरकार चुनने के अधिकारों का सम्मान करेंगे और वंचितों को संप्रभु अधिकार और स्वशासन के अधिकार को बहाल करेंगे.
हालांकि, युद्ध खत्म होने के पहले ही 1945 में रूजवेल्ट की मृत्यु हो गयी और चर्चिल चुनाव हार गये, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के कश्मीर प्रस्ताव में उपयोग के लिए यह वाक्यांश बेहद महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके बाद, चूंकि इन दोनों बेहद महत्वपूर्ण निर्देशों का पालन नहीं किया गया (भारत बहुत जोर देकर कह रहा है कि पहले पाकिस्तान पीछे हटे), ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की रुचि इस मामले से लगभग खत्म हो गयी और इस संगठन में अब इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया जाता है.
दरअसल, अगर यह उपमहाद्वीप खुद को परेशानी में डालता रहेगा- जैसे, परमाणु क्षमता विकसित करना और ढेरों हथियारों से लैस करना- तो दुनिया भी कश्मीर की परवाह नहीं करेगी. यह दुनिया के दर्जनों वैसे हिस्से की तरह ही रहेगा, जहां राज्य द्वारा विभिन्न कारणों से अपने नागरिकों के अधिकारों का हनन किया जाता है.
यह बताना मुश्किल है कि वाकई में नेहरू ने क्या गलत किया था (क्रोध के साथ इसके लिए अंतरराष्ट्रीयकरण शब्द का उपयोग किया जाता है) और आखिरकार कैसे उन्होंने इस समस्या को बढ़ाया.
दूसरा प्रश्न यह है कि जो मामला शिमला में हल हो सकता था, वह फिर से सामने आ खड़ा हुआ है. यह मामला इंदिरा गांधी के साथ काम कर चुके राजनयिक पीएन हक्सर पर जयराम रमेश की लिखी पुस्तक के कारण उठा है, जिसमें यह विचार किया गया है कि जब बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान को भारत ने हरा दिया था और उसके हजारों सैनिकों को बंदी बना लिया था, तब नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने का दबाव भारत द्वारा क्यों नहीं बनाया गया?
बावजूद इसके, इन शर्तों पर सहमति बनी कि ‘जम्मू-कश्मीर में 17 दिसंबर, 1971 के युद्ध-विराम के परिणामस्वरूप जो नियंत्रण रेखा निर्धारित हुई है, उसे बिना किसी पूर्वाग्रह के दोनों देशों द्वारा मान्यता दी जायेगी.
बेशक दोनों देशों के बीच मतभेद व कानूनी व्याख्याएं हैं, लेकिन इसके बावजूद कोई भी पक्ष इसे खुद से बदलने की कोशिश नहीं करेगा. दोनों देश धमकी देने और सीमा रेखा के उल्लंघन से बचेंगे.’
क्या यह एक भयंकर भूल थी? केवल इसी कारण रमेश की पुस्तक पढ़ने लायक है कि इसमें दोनों तरफ के तर्क को जगह दी गयी है. रमेश ने हक्सर के लेखन और उनके औचित्य के बारे में उद्धृत किया है कि क्यों भारत इस सबसे बेहतर समझौते को साकार कर सका (पाकिस्तान द्वारा इसे स्वीकार करना और कश्मीर मुद्दे का द्विपक्षीय बने रहने का समझौता और इन्हीं कारणों के बीच नियंत्रण रेखा की शुचिता बरकरार रहना). लेकिन, अगर हमने इसे प्रतितथ्यात्मक होकर देखा होता और भारत वास्तव में नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा में परिवर्तित करने में सक्षम हो गया होता, तब भी क्या कश्मीर समस्या का हल निकालना बाकी रहता? इन सभी का उत्तर इस प्रश्न में समाहित है कि कश्मीर की समस्या क्या है? बेशक, इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि आप यह प्रश्न किससे पूछ रहे हैं.
इस संबंध में भारत सरकार कहेगी कि यह आतंकवाद है और दूसरी कोई समस्या नहीं है, कश्मीर घाटी में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जम्मू की भाजपा से अलग बात कहेगी और कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस कोई दूसरी बात कहेंगे.
इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम कश्मीर मामले को कैसे देखते हैं. जिन्होंने कश्मीर में हिंसा का चक्र और 1989 से वहां हो रहे आंदोलनों को देखा है, वे अवश्य यह निष्कर्ष निकालेंगे कि नियंत्रण रेखा इस समस्या का वास्तविक समाधान नहीं है. कम-से-कम यह उस समस्या का समाधान नहीं है, जिसका वे सामना कर रहे हैं. कश्मीर में 1950 के दशक में जो राजनीतिक समस्या थी, वह आज भी बनी हुई है.
अगर हम सरकार का पक्ष लें और स्वीकार करें कि वहां चिंता का एकमात्र कारण पत्थरबाज हैं, तब भी नियंत्रण रेखा के सरहद बन जाने पर यह मामला कैसे सुलझ जायेगा? यहां तक कि अगर हम यह भी मान लेते कि वहां जो भी हिंसा है, वह पाकिस्तानी समूहों की उपज है, तब भी नियंत्रण रेखा का नाम कैसे बदलेगा?
पिछले कुछ दशकों में कश्मीर की स्थिति स्पष्ट हो चुकी है. यह अब भी मूल विवाद के तरह की समस्या नहीं है. इस मामले में दुनिया की बहुत कम रुचि है, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव प्रासंगिक नहीं हैं और वे कभी भी उठाये नहीं गये. दोनों देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक-दूसरे को लेकर जो थकाऊ आरोप लगाये जा रहे हैं और पिछले छह दशक से बिना रुके लगाये जा रहे हैं, संभवत: दुनिया उन सब बातों से ऊब चुकी है.
कश्मीर मुद्दा अब ऐसा बन चुका है कि भारतीय राजनीति कश्मीर के लोगों के साथ कैसा बरताव करती है. पाकिस्तान के बजाय हमें अपना ध्यान वहां केंद्रित करना चाहिए और समस्या के असली कारणों की पहचान के बिना यह संभव नहीं है. वे नियंत्रण रेखा से जुड़े हुए नहीं हैं. इस प्रक्रिया में पाकिस्तान अप्रासंगिक है. हम इसे अपनी कल्पना में बनायी गयी समस्या के अनुरूप एक बड़ी समस्या मानने की भूल कर रहे हैं.
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