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नक्सली हिंसा के साथी शब्द-जेहादी
तरुण विजय वरिष्ठ नेता, भाजपा tarunvijay55555@gmail.com माओवादी और नक्सली कम्युनिस्ट विचारधारा को माननेवाले क्रूर आतंकवादी हैं, जो गरीब जनजातियों और संवैधानिक सत्ता के प्रतिनिधि सुरक्षा बलों पर धोखे से हमला कर एक काल्पनिक ‘सर्वहारा का राज’ बनाने का दावा करते हैं. वे भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था एवं सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा हैं. ऐसे वक्तव्य […]
तरुण विजय
वरिष्ठ नेता, भाजपा
tarunvijay55555@gmail.com
माओवादी और नक्सली कम्युनिस्ट विचारधारा को माननेवाले क्रूर आतंकवादी हैं, जो गरीब जनजातियों और संवैधानिक सत्ता के प्रतिनिधि सुरक्षा बलों पर धोखे से हमला कर एक काल्पनिक ‘सर्वहारा का राज’ बनाने का दावा करते हैं. वे भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था एवं सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा हैं. ऐसे वक्तव्य कांग्रेस शासन में उनके प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने दिये थे. ऐसे कम्युनिस्ट आतंकवादी संगठनों को शंकर राव चव्हाण, तत्कालीन कांग्रेस शासन में गृहमंत्री के समय प्रतिबंधित किया गया था और दस राज्यों के 106 जिले नक्सल प्रभावित घोषित किये गये थे.
वह कांग्रेस, जो राष्ट्रविरोधियों और भारतीय सुरक्षा के प्रति सबसे बड़ा खतरा पैदा करनेवाले अराजक तत्वों के विरुद्ध निर्ममता और निर्णायक तरीके से प्रहार करती थी, अब समाप्त हो चुकी है.
यह उस कांग्रेस का प्रभाव था कि इंदिरा गांधी के दौर में सिद्धार्थ शंकर रे जब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने नक्सलवादी आतंकवादियों को निर्णायक ढंग से समाप्त किया था और इसके लिए बंगाल आज भी उनका ऋणी है. रे ने पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट आतंकवादियों को जड़ से खत्म कर दिया था. उनके समय में नक्सलवादी खुलकर नारा लगाते थे- चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन और युवाओं को दिग्भ्रमित कर प्रचार किया जाता था कि गरीबों और सर्वहारा का शासन लायेंगे.
इस तरह युवाओं को भटकाकर उन्हें हिंसा के रास्ते पर ले जाया जा रहा था. इन सबसे युवाओं को बचाकर रे ने एक ऐतिहासिक काम किया था. वही कांग्रेस आज सत्ता के लिए किसी भी देश-विरोधी का साथ देने के लिए तैयार है.
आज हमारे सुरक्षा-सैनिकों पर प्रहार करनेवाले नक्सलियों के विरुद्ध हमारा शासन जब कानून-सम्मत कार्रवाई कर रहा है, तब कांग्रेस इसका समर्थन करने के बजाय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रही है. यह बहुत दुखद और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक बात है कि विपक्षी देश को पीछे रखकर अपने राजनीतिक स्वार्थ और वैचारिक मूर्खता का प्रदर्शन करते हुए हमारे सैनिकों के विरुद्ध हमला करनेवालों को एक प्रकार का आवरण प्रदान कर रहे हैं.
कम्युनिस्ट नक्सलियों को वैचारिक, मीडिया, प्रचार एवं अन्यान्य तरीकों से सहारा, समर्थन, सहायता देनेवाले विभिन्न विश्वविद्यालयों, अकादमिक संस्थानों में चुपचाप कार्य करते हैं, नक्सल विरोधी व्यक्तियों और सरकारों के खिलाफ वातावरण बनाते हैं, सुरक्षा सैनिकों पर हमलों को सही सिद्ध करने या उसे उपेक्षित करने के लिए मीडिया, राजनीति, सार्वजनिक संस्थानों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं.
इनकी शब्द-क्रूरता इतनी जघन्य और आतंक बढ़ाने में सहयोगी होती है, जितनी नक्सलियों की राइफलें और हमले. ऐसे आठ शब्द-क्रूर नक्सल समर्थक लोगों पर महाराष्ट्र पुलिस ने कार्रवाई की और उससे पहले उसके बारे में पूरी तथ्यात्मक जानकारी जुटायी, तो सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ‘मैं भी नक्सल’ अभियान चलाया तथा कार्रवाई को लोकतंत्र एवं असहमति के अधिकार का हनन बताया.
इन लोगों ने कभी सुरक्षा सैनिकों से हमदर्दी नहीं जतायी, कभी उनकी शहादत पर नक्सलियों से असहमति प्रकट नहीं की, कभी नक्सलियों की विचारधारा, उनकी हिंसा का विरोध नहीं किया, पर नक्सल समर्थकों पर देश हित में कानूनी कार्रवाई पर जो शोर मचा रहे हैं, वह हमारे सुरक्षा सैनिकों की शहादत का ही अपमान है.
वास्तव में जो कम्युनिस्ट विचारधारा को माननेवाले इन नक्सली आतंकवादियों का समर्थन करे, उसे वही सजा मिलनी चाहिए जो नक्सलियों को मिली है. इसके अलावा और कोई मार्ग नहीं है इस बर्बरता को खत्म करने का. दुर्भाग्य से भारत में साधारण नागरिकों और सैनिकों पर हमले भी राजनीतिक खेल का विद्रूप हिस्सा बना दिये जाते हैं, जबकि ऐसे विषय सर्वसम्मत कठोर कार्रवाई की मांग के होने चाहिए.
कांग्रेस नेताओं ने नक्सली हिंसा की घटनाओं पर केंद्र व छत्तीसगढ़ सरकार पर प्रहार किये, पर क्या उन्होंने एक शब्द भी नक्सलियों, उनकी विचारधारा और उनके समर्थकों के विरुद्ध कहा? जो लाेग नक्सली हिंसा पर खामोशी ओढ़ते हैं और उनके विरुद्ध कार्रवाई पर सरकार को घेरते हैं, वे खुले तौर पर हिंसक गुटों को रक्षा-कवच प्रदान करते हैं.
अप्रैल 2017 में सुकमा में केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल के 25 जवानों को नक्सलियों ने मार दिया था. वे सैनिक किनके पुत्र थे? क्या वे किसी हिंसक दल के उद्देश्यहीन भटके लोग थे या संविधान की सत्ता के निर्देश पर मातृभूमि के सिपाही थे? नक्सल समर्थक शब्द-जेहादी भारतीय सैनिकों के शत्रु और सैनिकों पर आक्रमण करनेवालों के रक्षा-कवच बने हैं.
विश्व के किसी देश में अपने नागरिकों तथा सैनिकों पर आक्रमण करनेवालों का ऐसा खुला महिमा-मंडन नहीं किया जा सकता, जैसा भारत के सोशल मीडिया पर शब्द-जेहादी कर पा रहे हैं. इसी सप्ताह सिंगापुर में एक बैंक कर्मचारी ने फेसबुक पर दिखाया कि उसके सीने पर सिंगापुर का ध्वज भले ही होगा, लेकिन उसे चीर कर देखो, तो भीतर भारत का ध्वज दिखेगा.
सिर्फ इसी बात पर उसे नौकरी से निकाल कर वापस भारत भेज दिया गया, पर भारत में देश की सुरक्षा पर, सैनिकों पर, नागरिकों पर हमला करनेवालों से हमदर्दी जताना एक विकृत, भर्त्सना योग्य ‘सोशल मीडिया’ फैशन बना दिया जाता है.
इन लोगों ने कभी ‘मैं भी सैनिक हूं’ ऐसा कभी ट्विटर पर ट्रेंडिंग का अभियान चलाया होगा क्या? सैनिक नहीं बनेंगे, पर सैनिकों पर हमला करनेवालों को समर्थन देने के लिए ‘मैं भी नक्सली’ बनेंगे?
नक्सली स्थानीय जनता के प्रति इतने निर्मम होते हैं कि अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में न सड़क बनाने देते हैं, न अस्पताल या विद्यालय खोलने देते हैं. पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने कितनी हिंसा की है, उसका अंदाजा भी सामान्यजन नहीं कर पाते. साल 2016 में कुछ 69 घटनाओं में नक्सलियों ने 123 नागरिकों तथा 66 सुरक्षा बलों के सैनिकों को शहीद किया. साल 2015 में 118 घटनाएं हुईं, 93 नागरिक और 57 सुरक्षा सैनिक शहीद हुए. साल 2014 में 155 घटनाएं, 128 नागरिक और 87 सुरक्षा सैनिक शहीद हुए.
कदाचित चीन और पाकिस्तान से युद्ध में हमारे नागरिकों तथा सुरक्षा सैनिकों की इतनी बड़ी मात्रा में क्षति नहीं हुई होगी, जितनी गत बीस वर्षों में नक्सली-माओवादी हिंसा में हुई है. उनके विरुद्ध राष्ट्रीय एकजुटता से निर्णायक प्रहार करने की आवश्यकता है, न कि उनके समर्थन को एक विद्रूप आजादी का मुद्दा बनाना.
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