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भूस्खलन की चुनौती
यह जगजाहिर तथ्य है कि वैश्विक पर्यावरण एवं पारिस्थिकी तंत्र गहरे संकट में है और इस संकट का सबसे बड़ा कारण मानवीय गतिविधियां हैं. वैश्विक तापमान के बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी निरंतर बढ़ती जा रही है. इस संदर्भ में एक ताजा शोध से पता चला है कि भूस्खलन […]
यह जगजाहिर तथ्य है कि वैश्विक पर्यावरण एवं पारिस्थिकी तंत्र गहरे संकट में है और इस संकट का सबसे बड़ा कारण मानवीय गतिविधियां हैं. वैश्विक तापमान के बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी निरंतर बढ़ती जा रही है. इस संदर्भ में एक ताजा शोध से पता चला है कि भूस्खलन की घटनाएं भी विकास कार्यों के कारण बढ़ रही हैं. ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने 2004 से 2016 के बीच हुए 4800 से अधिक खतरनाक भूस्खलनों का अध्ययन किया है.
इस अवधि में इन घटनाओं में 56,000 से अधिक लोग मारे गये थे. इनमें से 700 घटनाओं के कारण निर्माण कार्य, अवैध खनन और अनियमित ढंग से पहाड़ों की कटाई हैं. जैसे बाढ़ और बारिश में बढ़ोतरी का भुक्तभोगी एशिया है, उसी तरह भूस्खलन की घटनाएं भी सबसे अधिक एशिया में होती हैं. इस त्रासदी के शिकार शीर्ष के दस देश एशिया में हैं. इसी महादेश में 75 फीसदी घटनाएं भी दर्ज की गयी हैं. भारत के हिसाब से देखें, तो हमारे देश में दुनिया की 20 फीसदी भूस्खलन की घटनाएं इन बारह सालों में हुई हैं. इसके बरक्स चीन में नौ, पाकिस्तान में छह तथा फिलीपींस, नेपाल और मलेशिया में पांच फीसदी घटनाएं हुई हैं. भारत में होने वाली घटनाओं में 28 फीसदी के कारण निर्माण कार्यों से जुड़े हुए हैं. इन दिनों केरल बाढ़ की भीषण आपदा का सामना कर रहा है.
इससे पहले राज्य में 1924 में ऐसी भयावह बाढ़ देखी गयी थी, लेकिन उस समय भूस्खलन इतना घातक स्तर पर नहीं हुआ था. मौजूदा बाढ़ की त्रासदी भूस्खलन के कारण भी भयावह हो गयी है. पर्यावरणविदों की राय में भूस्खलन की यह स्थिति पर्यावरण की कीमत पर विकास की होड़ का परिणाम है. पांच साल पहले उत्तराखंड में केदारनाथ की भयंकर त्रासदी भी भूस्खलन के कारण हुई थी. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हिमालय क्षेत्र है. भारत के अलावा अनेक एशियाई देश इसके दायरे में हैं, लेकिन आपदा सबसे ज्यादा हमारे हिस्से में आती है.
चूंकि दक्षिण एशिया और चीन का नदी-तंत्र भी इससे जुड़ा हुआ है, तो हमें नीतिगत स्तर पर बहुत गंभीरता से सोच-विचार करने की आवश्यकता है. यह सही है कि ऊर्जा, संसाधन, यातायात, सिंचाई, पेयजल आदि के लिए निर्माण, खनन तथा पहाड़ और जंगल काटने की जरूरत पड़ती है, पर यह सब समुचित नियमन और दूरदर्शिता के साथ किया जाना चाहिए. पर्यावरण के संकट के अनेक कारण अंतरराष्ट्रीय कारकों से संबद्ध हैं, पर कई कारणों का समाधान स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर किया जा सकता है.
हिमालय धरती का नवीनतम पर्वत है और अभी यह स्वयं निर्माणाधीन है. ऐसे में वहां अंधाधुंध निर्माण विनाश को आमंत्रण देने जैसा ही है. इसका असर नदियों पर भी पड़ना स्वाभाविक है, जो पहले से ही बांधों-बराजों के संजाल से त्रस्त हैं. अब हमें सचेत और सजग होना ही होगा.
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