शैक्षणिक संस्थाओं की गिरती गुणवत्ता, लचर प्रबंधन और परीक्षा एवं प्रवेश में धांधली के साथ फर्जी संस्थानों की भरमार भी विकट समस्या बनती जा रही है. साल 2014 में अवैध विश्वविद्यालयों की संख्या 21 थी, जो अब 24 हो गयी है. तकनीकी शिक्षा परिषद ने 277 ऐसे इंजीनियरिंग कॉलेजों की सूची जारी की है, जिन्हें बगैर मंजूरी चलाया जा रहा है.
आश्चर्य की बात है कि इनमें से 66 कॉलेज देश की राजधानी दिल्ली में हैं. पिछले साल बार कौंसिल ने सर्वोच्च न्यायालय को जानकारी दी थी कि करीब 40 फीसदी फर्जी वकील देशभर की अदालतों में सक्रिय हैं.
दो साल पहले समाचार एजेंसी रॉयटर ने सरकारी और अदालती दस्तावेजों की जांच के बाद बताया था कि देश के हर छह में से एक मेडिकल कॉलेज पर धोखाधड़ी के आरोप हैं. इलाज कर रहे कम-से-कम 45 फीसदी कथित डॉक्टरों के पास कोई औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं है तथा इनमें से कई बड़े अस्पतालों में कार्यरत हैं.
दुर्भाग्य है कि शिक्षा संस्थानों को मंजूरी देने और उनकी निगरानी करने के लिए अनेक संस्थाएं हैं. उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग है, तो इंजीनियरिंग और अन्य कुछ क्षेत्रों के लिए तकनीकी शिक्षा परिषद है. भारतीय चिकित्सा संघ और बार कौंसिल अपने विषय की संस्थाओं पर नजर रखती हैं.
लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण ऐसी संस्थाओं को भी मान्यता मिलने के उदाहरण हैं, जिनमें समुचित संसाधन उपलब्ध नहीं हैं. निगरानी इतनी लचर है कि फर्जीवाड़े की शिकायतों और जानकारी के बावजूद भी ठोस कार्रवाई नहीं की जाती है. अक्सर अधिकारी इस बहाने की आड़ लेते हैं कि फर्जी संस्थाओं को रोकने के लिए कानूनी प्रावधानों का अभाव है. यह जगजाहिर तथ्य है कि शिक्षा माफियाओं ने डिग्रियों की खरीद-फरोख्त का बड़ा कारोबार बना लिया है.
इस लूट को न सिर्फ राजनीतिक और प्रशासनिक सहयोग मिलता है, बल्कि नेताओं और अधिकारियों का सीधा जुड़ाव गिरोहों से है. सरकारी उपेक्षा के कारण स्कूली शिक्षा प्रणाली की दुर्गति पहले ही हो चुकी है. यदि इंजीनियरिंग, मेडिकल और वकालत जैसे पेशेवर शिक्षण-प्रशिक्षण में भी फर्जीवाड़ा चलता रहा, तो भविष्य की दशा-दिशा का अंदाजा लगाया जा सकता है.
विडंबना ही है कि सरकारों और नियमन संस्थानों के पास अवैध संस्थाओं की पूरी जानकारी है, लेकिन कुछ छापों, गिरफ्तारियों और चेतावनी जारी करने से ज्यादा कुछ नहीं किया जा सका है. लाल फीताशाही के जाल में अदालती निर्देशों की भी अवहेलना की जाती रही है. देश में पेशेवरों की संख्या जरूरत से बहुत कम है और जो हैं, उनकी काबिलियत शक के दायरे में है.
क्या अयोग्य और अवैध पेशेवरों के भरोसे विश्व में भारत अपनी साख जमा सकेगा? क्या विकास और समृद्धि के सपने धांधली और धोखेबाजी के सहारे पूरे किये जायेंगे? जो अभिभावक एवं छात्र झूठ और फरेब के हाथों लुटते रहने को अभिशप्त हैं, बेहतर कल की उनकी आकांक्षाओं का क्या होगा?