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जो दिग्भ्रांत, वही संभ्रांत

II सुरेश कांत II वरिष्ठ व्यंग्यकार गलतफहमी कहने-सुनने में भले ही गलत प्रतीत होती हो, असल में बहुत सही और सुखद होती है. हर आदमी की अपनी खास पसंदीदा गलतफहमियां होती हैं, जो उसे जीने में मदद करती हैं. किसी को विद्वान होने की गलतफहमी है, तो किसी को कवि या लेखक होने की, किसी […]

II सुरेश कांत II

वरिष्ठ व्यंग्यकार

गलतफहमी कहने-सुनने में भले ही गलत प्रतीत होती हो, असल में बहुत सही और सुखद होती है. हर आदमी की अपनी खास पसंदीदा गलतफहमियां होती हैं, जो उसे जीने में मदद करती हैं. किसी को विद्वान होने की गलतफहमी है, तो किसी को कवि या लेखक होने की, किसी को ईमानदार होने की, तो किसी को सत्यवादी होने की.

किसी-किसी को तो कोई गलतफहमी न होने की गलतफहमी भी होती है. उससे उसकी गलतफहमी छीन लो, उसका जीना मुहाल हो जाता है. उसे गलतफहमी पकड़ा दो, उसमें जान आ जाती है. नेता उसकी इस कमजोरी को जानते हैं. वे उसे गलतफहमी पकड़ाते हैं, और फिर उसके पुरानी पड़ते ही कोई नयी गलतफहमी पकड़ा देते हैं. वह अपनी सारी तकलीफ भूलकर उसे झुनझुने की तरह बजाता घूमता रहता है.

गलतफहमी को ही पढ़े-लिखे लोग ‘भ्रांति’ और कुछ ज्यादा पढ़े-लिखे लोग ‘संभ्रांति’ कहते हैं. वे अपने को देश का संभ्रांत नागरिक समझते हैं, बावजूद इसके कि ‘संभ्रांत’ का अर्थ ‘पूरी तरह से भ्रांति में पड़ा हुआ’ होता है.

जो ‘दिग्भ्रांत’ का अर्थ है, वही ‘संभ्रांत’ का अर्थ है, यहां तक कि वही ‘उद्भ्रांत’ का भी अर्थ है. ‘उद्भ्रांत’ नाम के एक बड़े कवि हैं, जो उद्भ्रांत होने की वजह से कवि हैं या कवि होने की वजह से उद्भ्रांत हैं, पता नहीं, पर इतना जरूर है कि लगभग हर नये व्यक्ति से मिलने पर उन्हें यह सफाई देनी पड़ती है कि उनका नाम ‘उद्भ्रांत’ है, ‘दिग्भ्रांत’ नहीं, मानो दोनों में कोई खास फर्क हो.

वैसे देखा जाये, तो संभ्रांत कहने-कहलानेवाले ज्यादातर नागरिक भी बुरी तरह भ्रांति में पड़े ही दिखायी देते हैं. वरना हर बार ऐसे नेताओं को वोट क्यों दे बैठते, जिन्हें वोट देकर उन्हें पछताना पड़ता है?

हर पांच साल बाद और यदा-कदा पहले भी उन्हें अपनी गलती सुधारने का मौका मिलता है, पर उन्हें पछताने की ऐसी आदत हो जाती है कि वे फिर से पछताने के लिए पहले से भी बड़ी गलती कर देते हैं. माना कि नेता डायपर यानी पोतड़े जैसे होते हैं और उन्हें उन्हीं कारणों से बदलते भी रहना चाहिए, पर पोतड़े को पोंछे से तो नहीं बदला जा सकता न!

पहले अमूमन तोतों को ही भ्रांति हुआ करती थी या कहिये, जिन्हें भ्रांति होती थी, उन्हें तोते कहा जाता था. एक तोते की भ्रांति तो इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसे भ्रांतिमान अलंकार का ही दर्जा दे दिया गया.

हुआ यह कि उसने नायिका के नाक के मोती को गलती से अनार का बीज समझ लिया और अपनी चोंच जैसी उसकी नाक देखकर इस सोच में पड़ गया कि यह दूसरा तोता कौन है- नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाड़िम का समझकर भ्रांति से, देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है?

नागरिकों में ऐसे तोते आज भी खूब देखने को मिल जाते हैं. नित्यप्रति खंडित होते रहने के बावजूद वे अपनी भ्रांति से केवल इस कारण जी-जान से चिपके रहते हैं कि वे संभ्रांत नागरिक कहला सकें.

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