Pollution In India : भारत जहरीली हवा में इस सघनता से ढका हुआ है कि यह हमारे जीवन की दिशा तय कर रही है. देश ऐसी सुबह में टहलने का अभ्यस्त हो गया है, जब सिर के ऊपर नीला आसमान होता ही नहीं. हमारी सुबह वेदर एप पर नजर गड़ाने से होती है, जिसमें प्रदूषण की चेतावनी होती है. मास्क महामारी से बचने के लिए नहीं, पार्टिकुलर मैटर से बचने के लिए लगाये जाते हैं. प्रदूषण की वैश्विक रैंकिंग शर्मिंदा करती है. दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में हैं, जिनमें से दिल्ली, गाजियाबाद, बेगूसराय, नोएडा, फरीदाबाद, कानपुर और लखनऊ सबसे प्रदूषित शहरों में हैं.
दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक अक्सर 450 के ऊपर रहता है. समुद्रतटीय हवाओं में भीगी मुंबई में सूचकांक 300 के आसपास रहता है, तो कोलकाता में यह 200-300 के बीच रहता है. यह चेतावनी है कि कोई महानगर प्रदूषण से बचा हुआ नहीं है. शहरों में पीएम 2.5 स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से 20-25 गुना ज्यादा है.
संकट के इस क्षण में संसद में सामूहिक चिंता दिखी. प्रदूषण पर बहस ऐसे आंकड़ों के साथ शुरू हुई, जो सच नहीं लगते थे. विपक्ष की तरफ से जवाब की मांग की जा रही थी, पर्यावरण कार्यकर्ता तो पहले ही क्षुब्ध थे, और नागरिक आशा, निराशा और थकावट के बीच संसदीय कार्यवाही पर नजरें गड़ाये थे. तभी ऐसा क्षण आया, जो हाल की संसदीय स्मृति में अभूतपूर्व था. लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक करियर में पर्यावरणीय मुद्दे पर सबसे प्रभावशाली हस्तक्षेप किया. उनके भाषण में क्षोभ के साथ सरकार से तत्काल दखल देने का भाव था.
वैश्विक एक्यूआइ रैंकिंग पेश करते हुए उन्होंने जहां यह कहा कि मौजूदा संकट वैचारिक विभाजन से ऊपर चला गया है, वहीं उन्होंने सरकार से मांग की कि इसे मौसमी बाधा की बजाय राष्ट्रीय आपातकाल की तरह देखा जाये. उनका कहना था कि इस संकट के हल के लिए सरकार द्वारा उठाये जाने वाले किसी भी कठोर कदम का विपक्ष समर्थन करेगा. उन्होंने प्रधानमंत्री से अपील की कि वह प्रदूषण के खिलाफ कारगर योजना ले आयें. इसका असर सदन में दिखा. तभी पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने जवाब देते हुए विपक्ष के आरोप को खारिज किया कि सरकार इस समस्या पर निष्क्रिय रही. उन्होंने औद्योगिक मानदंड सख्त करने, वाहन उत्सर्जन के मानक कड़ा करने तथा निर्माण स्थलों की निरंतर निगरानी किये जाने के बारे में सदन को याद दिलाया. उन्होंने प्रदूषण पर राजनीति करने का आरोप भी विपक्ष पर लगाया.
संसद की दीवारों से बाहर इन तर्कों का कोई असर नहीं पड़ा. प्रदूषण की भीषणता चारों ओर चर्चा का विषय है. पैदल चलते लोग दमा के बढ़ते मामलों की बात कर रहे हैं, शिक्षकों की शिकायत है कि स्कूलों में छात्रों की बाहरी गतिविधियां रोक देनी पड़ी हैं, तो बुजुर्गों का कहना है कि उन्हें सुबह की सैर छोड़नी पड़ी है. अदालतों तक का धैर्य जवाब दे रहा है और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का गुस्सा सरकारों पर फूट पड़ा है. प्रदूषण नियंत्रण बजट का या तो इस्तेमाल नहीं होता या बहुत मामूली हिस्सा इस्तेमाल होता है. कूड़ा प्रबंधन के नियम दिखावटी ज्यादा हैं. पर्यावरण कार्यकर्ताओं के मुताबिक, जब तक सत्ता राजनीति प्रदूषण पर युद्ध जैसी गंभीरता नहीं दिखायेगी, तब तक धरातल पर कुछ भी नहीं बदलेगा.
किसी भी युद्ध में जीत तब तक नहीं मिल सकती, जब तक उसके कारणों की पड़ताल न की जाये. भारत में प्रदूषण मानव निर्मित संकट है, जो प्रशासनिक संवेदनहीनता व नीतिगत अपंगता से इस स्थिति में पहुंचा है. कारों की बढ़ती बिक्री से सड़कें प्रदूषणजनित धुएं से भरी हैं, जबकि बसें सिमट रही हैं और यात्रियों के दबाव में मेट्रो प्रणाली चरमरा जाती है. निर्माण गतिविधियों के निरंतर चलते रहने से प्रदूषण बढ़ता है.
धूल नियंत्रण के दिशानिर्देश कागजों पर ही ज्यादा हैं. अर्थव्यवस्था नि:संदेह बढ़ रही है, पर सेहत के मोर्चे पर मनुष्य इसकी कीमत चुका रहा है. अनगिनत जगहों में कूड़ा खुले में जलाया जाता है. सीवेज नदियों-तालाबों को गंदा और प्रदूषित कर रहा है. उत्तर भारत में हर सर्दी में किसान खेतों में पराली जलाते हैं, और उनका कहना है कि सरकारी मदद के बगैर इसका विकल्प चुनना संभव नहीं है. पराली के निष्पादन की तकनीक अस्तित्व में है, लेकिन नीति इतनी धीमी गति से चलती है कि तकनीक को जमीन पर उतारना मुश्किल है.
आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति चरम पर है. राज्य एक-दूसरे को दोष देते हैं, केंद्र राज्यों पर ठीकरा फोड़ता है, स्थानीय निकाय नागरिकों को इस संकट का जिम्मेदार बताते हैं, और नागरिक अपने भाग्य को कोसते हैं. समाधान अब भी है. बस इच्छाशक्ति चाहिए. निर्माण कार्यों की सख्त मॉनिटरिंग होनी चाहिए. प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योगों पर भारी जुर्माना होना चाहिए. सार्वजनिक परिवहन को सड़कों पर झोंक देने की जरूरत है. बसों के फेरे बढ़ाये जायें और मेट्रो की सेवा और बढ़ायी जाये. कूड़ों को उसके स्रोतों पर अलग-थलग किया जाये, उन्हें इकट्ठा कर जिम्मेदारी से निपटान किया जाये. खुले में कूड़ा जलाने को सामाजिक-कानूनी रूप से प्रतिबंधित किया जाये. इसके साथ ही, किसानों को पराली जलाने का विकल्प प्रदान किया जाये.
अलबत्ता सभी नीतियों से परे, देश को ईमानदार स्वीकारोक्ति की जरूरत है- कि संकट बहुत भीषण है, कि पहले गलतियां हुई हैं. साथ ही, बदलाव की प्रतिबद्धता भी चाहिए. शायद इसी कारण नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा विपक्षी सहयोग की पेशकश प्रभावित करती है. यह बताती है कि संकट इतना बड़ा है कि दलगत राजनीति से ऊपर उठने की जरूरत है. और विपक्ष अब आशा कर रहा है कि सरकार इस संकट से निपटने के लिए वास्तविक, अमल करने लायक और आक्रामक योजना के साथ संसद में लौटेगी. तब तक नागरिकों को ऐसी हवा में घुट कर रहना होगा, जिसे उन्होंने जहरीला नहीं बनाया है. न ही तब तक आरोप-प्रत्यारोप की विषैली राजनीति से उनके निकल पाने की उम्मीद है. भारत एक ऐसे संकट के कगार पर खड़ा है, जिससे निपटा जा सकता है. यह देश हवा को स्वच्छ बनाने, मिलकर काम करने और साहसी नेतृत्व देने में सक्षम है. अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो इसे इसी तरह घुट-घुट कर जीना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

