Insurance coverage : केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की सीमा 74 प्रतिशत से बढ़ा कर 100 प्रतिशत करने का जो फैसला लिया है, वह ढांचागत क्षेत्र में आर्थिक विकास के पक्ष में उठाया गया सुधारात्मक कदम है. इससे लोगों के बीच बीमा के प्रति अनुकूल धारणा बनेगी, इस क्षेत्र में पूंजी के साथ वैश्विक विशेषज्ञता भी आयेगी और बीमा कंपनियों की संख्या बढ़ने से उपभोक्ताओं के लिए विकल्प बढ़ेंगे.
अलबत्ता इस फैसले से विनियमन, घरेलू स्वामित्व और एलआइसी पर पड़ने वाले असर से जुड़े कुछ प्रासंगिक सवाल भी हैं, जिन पर सतर्कतापूर्वक विचार करने की जरूरत है. अगर समग्र रूप से प्रीमियम के स्थानीय निवेश और नियामक निगरानी से जुड़ी सहायक सुरक्षा व्यवस्थाओं को प्रभावी तरीके से लागू किया गया, तो इसका प्रभाव वित्तीय समावेशन, क्षेत्रीय स्थिरता और दीर्घकालिक विकास के रूप में सकारात्मक होने की संभावना है.
इस साल के बजट में ही बीमा क्षेत्र में एफडीआइ को 74 फीसदी से बढ़ा कर 100 फीसदी करने की घोषणा की गयी थी. हालांकि बढ़ायी गयी एफडीआइ सीमा का लाभ उन विदेशी बीमा कंपनियों को ही मिलेगा, जो पूरी प्रीमियम राशि का निवेश भारत में करेंगी. सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम वित्तीय क्षेत्र में किये गये व्यापक सुधार कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसका लक्ष्य बीमा के प्रति लोगों में रुचि बढ़ाना, बीमा प्रक्रिया को सहज करना, इन्श्योरेंस एक्ट, एलआइसी एक्ट और आइआरडीएआइ एक्ट का आधुनिकीकरण है.
इसका उद्देश्य देश की बड़ी आबादी के लिए किफायती लागत पर बीमा उत्पाद उपलब्ध कराना है. बीमा क्षेत्र में उदारीकरण की प्रक्रिया देश में निरंतर चलती रही है. इसके तहत एफडीआइ की सीमा पहले 26 फीसदी से बढ़ा कर 49 प्रतिशत, फिर 74 फीसदी की गयी और अब 100 फीसदी की गयी है. इस क्षेत्र में हुए सुधार के कारण बीमा कंपनियों की संख्या कुछ सरकारी कंपनियों से बढ़ कर अब करीब 60 हो गयी है. गौरतलब है कि कनाडा, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया और चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने पहले ही बीमा क्षेत्र में 100 फीसदी एफडीआइ की अनुमति दे रखी है.
इस लिहाज से भारत भी अब इस क्षेत्र में वैश्विक मानक अपनाने जा रहा है. इसका तात्कालिक प्रभाव यह पड़ेगा कि बाजार में बीमा राशि की उपलब्धता बढ़ेगी, जिससे बीमा कराने वालों की ऋण चुकाने की क्षमता बढ़ेगी, पेंशन और एन्युटि जैसे दीर्घावधि बीमा उत्पादों का चलन बढ़ेगा और टेक्नोलॉजी में फंड निवेश बढ़ेगा. भारत जैसे देश में, जहां पूंजी आसानी से उपलब्ध नहीं है, सरकार द्वारा उठाये गये कदम से बीमाकर्ता ढांचागत और स्वास्थ्यगत क्षेत्र में बीमा का बड़ा जोखिम उठा सकेंगे. इससे व्यापक आर्थिक सुधार का रास्ता प्रशस्त होगा और सरकारों पर जिम्मेदारियों का बोझ भी कम होगा.
जहां तक उपभोक्ताओं का सवाल है, तो खासकर स्वास्थ्य और सामान्य बीमा के क्षेत्र में उन्हें प्रोडक्ट डिजाइन, लागत और सेवा की गुणवत्ता के मोर्चे पर बेहतर बीमा कंपनियों के विकल्प मिलेंगे. प्रतिद्वंद्विता बढ़ने से कंपनियां दावा निपटान की प्रक्रिया, डिजिटल इंटरफेस और शिकायत निवारण प्रक्रिया में सुधार लाती हैं. इससे देश में बीमा कंपनियों के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा और 2047 तक सभी नागरिकों के बीमित होने का लक्ष्य पूरा हो सकेगा. सामान्य और स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में देश चूंकि वैश्विक औसत से बहुत पीछे है, लिहाजा नीति निर्माताओं को उम्मीद है कि इस क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा बढ़ाने से बीमा से दूर रहने वाले परिवारों और एमएसएमइ क्षेत्र को इसके दायरे में लाया जा सकेगा.
बीमा क्षेत्र के घरेलू नेटवर्क को अतिरिक्त विदेशी पूंजी का साथ मिलेगा, तो ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में बैंकों, वित्तीय कंपनियों तथा कॉमन सर्विस सेंटर्स के माध्यम से बीमा कवरेज बढ़ाया जा सकेगा. चूंकि विदेशी बीमा कंपनियां अपने साथ आधुनिक बीमा प्रोडक्ट्स और तकनीक भी लायेंगी, ऐसे में, समय के साथ गिग वर्कर्स और छोटे कारोबारी इसके दायरे में आयेंगे तथा जलवायु संबंधित जोखिमों के लिए भी बीमा उत्पाद उपलब्ध होंगे. बीमा क्षेत्र में 100 फीसदी एफडीआइ की एक प्रमुख शर्त यह है कि पूरी प्रीमियम राशि का निवेश भारत में करना होगा.
इससे बीमा के जरिये जो घरेलू बचत होगी, उसका इस्तेमाल भारत के वित्तीय और ढांचागत बाजारों में होना जारी रहेगा. इसी के साथ प्रस्तावित सुधार से विदेशी निवेश की शर्तों का सरलीकरण होगा, साथ ही, पूंजीगत जरूरतों, कॉरपोरेट गवर्नेंस तथा ढांचागत निगरानी के संदर्भ में आइआरडीएआइ को मजबूती प्रदान की जायेगी. हालांकि बीमा क्षेत्र में 100 फीसदी एफडीआइ से जुड़ी चिंताएं भी हैं. एक चिंता यह है कि पूरी तरह विदेशी स्वामित्व वाली बीमा कंपनियां अगर देश के शहरी इलाकों और उच्च आय वाले लोगों का पूरा दोहन कर लें, तो एलआइसी के विकास और सामाजिक कार्यक्रमों को कॉस सब्सिडाइज करने की उसकी क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है.
चिंता यह भी है कि विदेशी स्वामित्व वाली बीमा कंपनियां देश की बाजार हिस्सेदारी के बड़े हिस्से पर काबिज हो सकती हैं, जिससे एक समय बाद बाजार शक्तियां घरेलू नियंत्रण से दूर हो सकती हैं. भविष्य में ऐसी स्थिति न आये, इस पर ध्यान रखना होगा. हालांकि देश के बीमा बाजार में एलआइसी की जैसी मजबूत पकड़ है, देशभर में इसका जैसा नेटवर्क है और सरकारी योजनाओं में इसकी जितनी बड़ी भूमिका है, उसे देखते हुए इस पर बहुत असर पड़ने की आशंका नहीं है. अलबत्ता बीमा क्षेत्र में बदलाव के बाद अब एलआइसी और दूसरी घरेलू बीमा कंपनियों को बीमा उत्पादों के आधुनिकीकरण, साझेदारी और डिजिटल चैनल्स में अधिक निवेश करने तथा जोखिम प्रबंधन में अधिक कुशल होने की जरूरत पड़ेगी. इससे विदेशी कंपनियों के सामने घरेलू कंपनियों के विस्थापन का डर नहीं होगा, बल्कि ये विदेशी कंपनियों के सामने मजबूत विकल्प के रूप में खड़ी होंगी.
हालांकि इस निर्णय की आलोचना में कहा गया है कि यह फैसला घरेलू बीमा कंपनियों के हितों के बजाय विदेशी कंपनियों के हितों को देखते हुए लिया गया है, पर इस फैसले में भारतीयों के हाथ में नेतृत्व, पूरे प्रीमियम का देश में निवेश तथा आइआरडीएआइ की निगरानी जैसी शर्तों से साफ है कि भारतीय कंपनियों के हितों से समझौता करने की आशंका बेबुनियाद है. इसके बावजूद आने वाले दिनों में इस पर नजर रखनी होगी कि विदेशी स्वामित्व वाली बीमा कंपनियां बड़ी राष्ट्रीय बीमा कंपनियों को अपने में विलय करने जैसी स्थिति में न आए. इस दृष्टि से देखें, तो आइआरडीएआइ की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होने वाली है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

