जेल अधिकारी को यह नागवार गुजरा, तो जेल में डाल दिया. अब उन्हें कौन समझाये कि हमारा राशन कार्ड है नहीं. मिड-डे मील मिलता नहीं. भोजन-गारंटी कानून इंसानों पर लागू नहीं हो पा रहा, तो हम पर क्या खाक लागू होगा. हम गधे निरक्षर ठहरे. हमें क्या मालूम जहां चर रहे हैं-
वह जेल परिसर है या राष्ट्रपति आवास!
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‘अपराधी’ गधे की आत्मकथा
माई बाप, मैं ही वह ‘अपराधी’ गधा हूं, जो पौधा चरने के आरोप में उरई जेल में चार दिन की सजा काटकर लौटा है. मैं बहुत खुशनसीब हूं कि चार दिन में ही लौट आया. वरना, वहां कई गधे, सॉरी कई कैदी कब से से बंद हैं. कइयों को तो यह तक मालूम नहीं कि […]
माई बाप, मैं ही वह ‘अपराधी’ गधा हूं, जो पौधा चरने के आरोप में उरई जेल में चार दिन की सजा काटकर लौटा है. मैं बहुत खुशनसीब हूं कि चार दिन में ही लौट आया. वरना, वहां कई गधे, सॉरी कई कैदी कब से से बंद हैं. कइयों को तो यह तक मालूम नहीं कि वे किस जुर्म में बंद हैं. मुझे यह तो मालूम था कि मेरा जुर्म क्या है. भूख लगी तो मैंने जेल के बाहर के पौधे चर लिये थे.
मैं खुशनसीब हूं कि मेरी और मेरे सात साथियों की जेल में कोई ठुकाई-पिटाई नहीं हुई. पुलिसवालों ने हम पर डिग्री का इस्तेमाल नहीं किया. वरना, जेल के किस कोने से कब दर्दभरी चीखने की आवाज आ जाये, कहा नहीं जा सकता.
वैसे, मैं पहला गधा नहीं हूं, जो चारा चरने की वजह से पुलिस की चौखट पर पहुंचा हो. कृश्नचंदरजी के उपन्यास में मेरे परदादा अपनी आत्मकथा कह चुके हैं. वह बाराबंकी से दिल्ली पहुंचे थे, और इंडिया गेट पर चारा चरने की वजह से पुलिस ने उन्हें भी गिरफ्तार किया था. फिर वह दिल्ली में घूमते-घूमते नेहरूजी से मिले और विश्व-विख्यात हुए!
मैं जेल से छूट गया, लेकिन मुझे अफसोस है कि मैं अभी तक कोई टीवी चैनल वाला मेरी बाइट लेने नहीं आया. मेरे छूटने की खबर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनी. मेरा एक्सक्सूलिव इंटरव्यू होता, तो मैं भी गधा समाज का दर्द दुनिया को बताता. जिस तरह गधे को एक बार रास्ता बता दो, तो वह बगैर बताये या हांके अपनी जगह पहुंच जाता है, उसी तरह देश की जनता को बता दो कि चुनाव आये हैं, तो वह बिना बताये वोट डाल आती है. कुछ चारित्रिक समानताओं की वजह से कुछ असभ्य लोग आम आदमी को गधा ही कहते हैं. पर मैं इससे सहमत नहीं हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि गधे को मौका मिले तो क्रांति कर सकता है, लेकिन आम लोग क्रांति की रट लगाते हुए भी क्रांति नहीं कर पाते.
खैर, मुझे अफसोस है कि अभी तक दिल्ली से कोई बुलावा नहीं आया. मुझे जेल में कोई खास परेशानी नहीं हुई. सच कहूं तो वक्त से खाना मिला और काम कुछ करना नहीं पड़ा. वहां मैंने सीखा कि इस देश में जब खाने के लाले हों, तो बंदे को जेल चले जाना चाहिए. वक्त से दो जून की रोटी मिल जाती है. गरीब और गधे को और क्या चाहिए!
माई बाप उर्फ पाठकों! मैं चार दिन की जेल के अनुभव पर किताब लिखने की सोच रहा हूं. आप लोग खरीदियेगा. जानता हूं कि अंटी से पैसे निकालकर किताब खरीदना मुश्किल काम है, लेकिन गुजारिश तो कर ही सकता हूं. वैसे, मैं जेल वालों का ब्रांड एंबेसेडर हो सकता हूं. विज्ञापन मिले तो कह सकता हूं- कुछ दिन तो गुजारिये जेल में.
पीयूष पांडे
व्यंग्यकार
pandeypiyush07@gmail.com
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