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दलों की लापरवाही या पारदर्शिता से परहेज!

राजनीतिक दलों द्वारा जमा-खर्चे का हिसाब-किताब समय से पेश नहीं करने पर चुनाव आयोग ने कड़ा रुख अख्यिार कर लिया है. आयोग ने 10 राजनीतिक दलों द्वारा लेखा-संबंधी तय नियमों के अनुपालन नहीं करने के कारण उनको कर में मिलने वाली रियायतों को निरस्त करने के लिए केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को पत्र लिखा है. […]

राजनीतिक दलों द्वारा जमा-खर्चे का हिसाब-किताब समय से पेश नहीं करने पर चुनाव आयोग ने कड़ा रुख अख्यिार कर लिया है. आयोग ने 10 राजनीतिक दलों द्वारा लेखा-संबंधी तय नियमों के अनुपालन नहीं करने के कारण उनको कर में मिलने वाली रियायतों को निरस्त करने के लिए केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को पत्र लिखा है. इनमें झारखंड मुक्ति मोर्चा और सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया के अलावा कई छोटी पंजीकृत पार्टियां हैं. इन पार्टियों ने निर्धारित समय-सीमा के अंतर्गत चंदे और दान की राशि का ब्योरा आयोग को नहीं दिया है.

हालांकि झामुमो ने 2006 से 2012 तक की अवधि में प्राप्त चंदे का हिसाब बीते साल दिसंबर में सौंपा था, पर अंतिम तारीख 30 सितंबर थी. जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की व्यवस्था के अनुसार उन्हीं दलों को करों में छूट का लाभ मिल सकता है, जिन्होंने वित्तीय वर्ष का लेखा-जोखा नियत समय तक जमा करा दिया हो. इसी कानून में यह भी कहा गया है कि हर राजनीतिक दल को किसी व्यक्ति या संस्था से प्राप्त चंदे या अनुदान का पूरा ब्योरा देना है.

भारत के संविधान ने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा संसद व विधानमंडलों के सदस्यों के निर्वाचन के ‘अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण’ का अधिकार चुनाव आयोग को दिया है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया की बड़ी कवायद को सफलतापूर्वक अंजाम देकर आयोग ने मिसाल कायम की है. उसे इस राजनीतिक प्रक्रिया के विविध पक्षों की निगरानी भी करनी पड़ती है, जिनमें पार्टियों को प्राप्त धन और चुनावी खर्च पर नजर रखना बहुत जटिल काम है. अक्सर देखा गया है कि पार्टियां धन के हिसाब-किताब के मामले में चुनाव आयोग को अपेक्षित सहयोग नहीं करती हैं.

चुनाव सुधार से जुड़े क ई मसलों पर तो सर्वोच्च न्यायालय को दिशा-निर्देश जारी करने पड़े हैं. न्यायालय को ही यह कहना पड़ा था कि कोई भी प्रत्याशी नामांकन पत्र में न तो कोई कॉलम खाली छोड़ सकता है और न ही कोई जरूरी जानकारी छुपा सकता है. लोकतंत्र को मजबूत और बेहतर बनाने की बड़ी जिम्मेवारी राजनीतिक दलों की है, लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि वित्तीय पारदर्शिता के मामले में उनका रवैया निराशाजनक रहा है. उम्मीद है कि अब आयोग के कड़े रुख से उन्हें सबक मिलेगा.

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